व्यंग्य
शिकायत है तो घंटा
बजाइये
ब्रजेश कानूनगो
एक होता है घंटा ! एक होती है घंटी। मनुष्य हो, पशु-पक्षी हो या अचर वस्तु, हर जगह लिंग भेद विद्यमान होता ही है। स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक संबोधन जरूर मिलता है मगर पितृसत्ता का बखेड़ा अचर में है या नहीं, इसके बारे में ज्यादा जानकारी मुझे नहीं।
बहरहाल, बात घण्टा-घण्टी की ही करते हैं। दोनों ही बजाने के काम आते हैं। एक तरह से इन्हें वाद्य यंत्र की श्रेणी में माना गया है। यही एक मात्र म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट है जिसे प्ले करने के लिए किसी उस्ताद से ताबीज नहीं बंधवाना पड़ता है। गाइड के घर की सब्जियां वगैरह बाजार से लाये बगैर भी आप इस कला में पीएचडी कर सकते हैं।
सामान्यतः भारतीय परिवारों में बच्चे के अपने पैरों पर खड़ा होते ही उसे हनुमानजी की मूठ वाली घंटी थमा दी जाती है।सब यही करते हैं। हमने भी यही किया। घर के बुजुर्ग जब चित्रगुप्त भगवान की तस्वीर सजाकर कलम दवात की पूजा करते थे तब हम भी घण्टी बजाया करते थे और अब एस्टेट में पैदा हुआ पोता भी घण्टी थामें उसे प्ले करता है।
दफ्तरों में साहब के सामने रखी घंटी का महत्व कौन नहीं जानता। उनके उद्घोष से कहीं प्रभावी उनकी घण्टी हुआ करती है। कक्ष के बाहर सेवक चौकन्ना सदैव कान लगाए उसी तरह बैठा रहता है जैसे शिव मंदिरों में नंदी विराजमान होते हैं। काम के लोग तो यही होते हैं। इन्ही लोगों को अपना कष्ट कह कर समाधान की राह आसान हो जाती है। इसीलिए पहले घण्टी बजती है, फिर याचक द्वारपाल के कान में समस्या फूंकता है।
जो याचक है,पीड़ित है, परेशान है उसे घंटा बजाना आना चाहिए। बड़े-बूढ़े इस कला का महत्व जानते थे। इसलिए नई पीढ़ी को घण्टी बजाने के लिए अभ्यस्थ करने की हमेशा उनकी कोशिश रहती थी। मालिक का ध्यान घण्टी की ध्वनि के प्रति सदा सेंसिटिव होता है।
राजा को भी प्रजा का धरती पर मालिक और भगवान कहा गया है। कुछ शासकों ने तो अपने प्रासादों के सामने घंटे लगवा रखे थे। कोई भी नागरिक कभी भी 'ट्वेंटी फॉर सेवन' अपने कष्टों की सुनवाई के लिए सरकार की नींद खराब कर सकता था। ये शानदार सवेंदनशील परम्परा रही है हमारी।
अब चूंकि देश बदल रहा है। दुनिया भी बदल रही है। राजतंत्र ने गणतंत्र का रूप ले लिया है। प्रजा अब वोटर में बदल गयी है। घण्टे और घंटियों का भी डिजिटल रूपांतरण हुआ है। सोशल मीडिया जैसे नए सुनवाई प्रतिष्ठानों में ट्वीट्स और स्टेटमेंट की घंटियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं हैं। सच तो यह है कि इन्ही के नाद से सरकारों में हलचल भी सहजता से देखने को मिलने लगी है। कितना महत्व होता है घण्टे,घंटियों का, यह आसानी से समझा जा सकता है। घंटियाँ बजाने में कोताही नहीं की जानी चाहिए. बजाइए! बजाइए!!
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर 452018
ब्रजेश कानूनगो
एक होता है घंटा ! एक होती है घंटी। मनुष्य हो, पशु-पक्षी हो या अचर वस्तु, हर जगह लिंग भेद विद्यमान होता ही है। स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक संबोधन जरूर मिलता है मगर पितृसत्ता का बखेड़ा अचर में है या नहीं, इसके बारे में ज्यादा जानकारी मुझे नहीं।
बहरहाल, बात घण्टा-घण्टी की ही करते हैं। दोनों ही बजाने के काम आते हैं। एक तरह से इन्हें वाद्य यंत्र की श्रेणी में माना गया है। यही एक मात्र म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट है जिसे प्ले करने के लिए किसी उस्ताद से ताबीज नहीं बंधवाना पड़ता है। गाइड के घर की सब्जियां वगैरह बाजार से लाये बगैर भी आप इस कला में पीएचडी कर सकते हैं।
सामान्यतः भारतीय परिवारों में बच्चे के अपने पैरों पर खड़ा होते ही उसे हनुमानजी की मूठ वाली घंटी थमा दी जाती है।सब यही करते हैं। हमने भी यही किया। घर के बुजुर्ग जब चित्रगुप्त भगवान की तस्वीर सजाकर कलम दवात की पूजा करते थे तब हम भी घण्टी बजाया करते थे और अब एस्टेट में पैदा हुआ पोता भी घण्टी थामें उसे प्ले करता है।
दफ्तरों में साहब के सामने रखी घंटी का महत्व कौन नहीं जानता। उनके उद्घोष से कहीं प्रभावी उनकी घण्टी हुआ करती है। कक्ष के बाहर सेवक चौकन्ना सदैव कान लगाए उसी तरह बैठा रहता है जैसे शिव मंदिरों में नंदी विराजमान होते हैं। काम के लोग तो यही होते हैं। इन्ही लोगों को अपना कष्ट कह कर समाधान की राह आसान हो जाती है। इसीलिए पहले घण्टी बजती है, फिर याचक द्वारपाल के कान में समस्या फूंकता है।
जो याचक है,पीड़ित है, परेशान है उसे घंटा बजाना आना चाहिए। बड़े-बूढ़े इस कला का महत्व जानते थे। इसलिए नई पीढ़ी को घण्टी बजाने के लिए अभ्यस्थ करने की हमेशा उनकी कोशिश रहती थी। मालिक का ध्यान घण्टी की ध्वनि के प्रति सदा सेंसिटिव होता है।
राजा को भी प्रजा का धरती पर मालिक और भगवान कहा गया है। कुछ शासकों ने तो अपने प्रासादों के सामने घंटे लगवा रखे थे। कोई भी नागरिक कभी भी 'ट्वेंटी फॉर सेवन' अपने कष्टों की सुनवाई के लिए सरकार की नींद खराब कर सकता था। ये शानदार सवेंदनशील परम्परा रही है हमारी।
अब चूंकि देश बदल रहा है। दुनिया भी बदल रही है। राजतंत्र ने गणतंत्र का रूप ले लिया है। प्रजा अब वोटर में बदल गयी है। घण्टे और घंटियों का भी डिजिटल रूपांतरण हुआ है। सोशल मीडिया जैसे नए सुनवाई प्रतिष्ठानों में ट्वीट्स और स्टेटमेंट की घंटियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं हैं। सच तो यह है कि इन्ही के नाद से सरकारों में हलचल भी सहजता से देखने को मिलने लगी है। कितना महत्व होता है घण्टे,घंटियों का, यह आसानी से समझा जा सकता है। घंटियाँ बजाने में कोताही नहीं की जानी चाहिए. बजाइए! बजाइए!!
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर 452018
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