व्यंग्य
भौंकने और काटने पर एक विमर्श
ब्रजेश कानूनगो
जैसा मैं सोंच ही रहा था साधुरामजी अखबार लहराते हुए ड्राइंग रूम में
तेजी दाखिल हुए. अखबार में बड़ी दिलचस्प खबर आई थी. वीरों के प्रदेश से किसी
कलेक्टर के अनमोल वचन फूट पड़े थे - ‘कलेक्टर भौंकता है और एसपी काटता है!’.
हालांकि कलेक्टर ने अपने बोलबचन पर क्षमा भी मांग ली थी तथापि कमान से निकला तीर
और मुख से निकले शब्द तो अपना काम करके ही जाते हैं.
‘देखा तुमने! ये क्या कह दिया इस लोकसेवक ने!’ साधुरामजी खीजते हुए
बोले.
‘इसमें क्या गलत कह दिया साधुरामजी, मनुष्य भी इसी धरती का एक प्राणी
है, ये प्रवत्ति सभी प्राणियों में संभव है. कलेक्टर हो या एसपी वह अन्य प्राणियों
की तरह भौंकने और काट खाने के लिए स्वतन्त्र है. मैंने कहा.
‘ये तो बिलकुल गलत बात है, वे संवैधानिक और अहम पदों पर आसीन होते
हैं, उन्हें ऐसा कहना और ऐसा करना कतई शोभा नहीं देता.’ साधुरामजी का गुस्सा शांत
नहीं हुआ था. उनके गुस्से को शांत करने की गरज से मैं थोड़ी चुहुल के मूड में आ
गया.
‘साधुरामजी, भौंकना भी उसी तरह सहज क्रिया है जैसे चिड़िया चहचहाती है,
बकरी मिमियाती है, कौआ कांव-कांव करता है, कोयल कूकती है, गधे रेंकते हैं, उसी तरह
कुछ लोग भौंक सकते हैं. यह जरूरी नहीं कि आदमी केवल बोलता ही रहे. वह चहचहाता भी
है, मिमियाता भी है, कांव –कांव भी करता है, रेंकता भी है तो भौंक क्यों नहीं
सकता? इसी तरह यदि ईश्वर ने दांत दिए हैं तो जीवन भर केवल चबाते ही तो नहीं रहना
है, दिल चाहे तो काट भी सकते हैं प्यार में.’ मैंने हंसते हुए कहा तो साधुरामजी भी
थोड़े मूड में आने लगे.
‘वो तो ठीक है मगर यह प्यार में काट लेने वाली बात ज़रा समझ में नहीं
आई?’ उन्होंने प्रश्न रखा. ‘एक विशेषज्ञ ने अपने शोध में यह सिद्ध किया है कि
मनुष्यों में एक दूसरे को काट खाने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढती जा रही है और इसका
बहुत बड़ा कारण प्रेम की प्रगाढ़ता है. जब दो व्यक्ति बहुत अधिक प्रेम की स्थिति में
आ जाते हैं तो वे एक-दूसरे को दांतों से काटने लगते हैं.’ हाल ही में कहीं पढी हुई
जानकारी देते हुए अपना ज्ञान बघारा तो वे खिलखिला पड़े. बोले ‘तभी साधुराइन इन
दिनों बात-बात में काटने को दौड़ती हैं!’ मैं भी मुस्कुराए बिना रह नहीं सका.
‘भौंकना और काटना बहुत स्वाभाविक क्रियाएं हैं साधुरामजी! भौंकने में
क्या बुराई है भला! बल्कि भौंकना तो शुद्ध रूप से एक अहिंसक क्रिया है, जो भौंकते
हैं वे काटते नहीं. और यदि काटते भी हैं तो वे यह कार्य अत्यधिक प्रेमवश करते हैं और
रहा सवाल इससे किसी को होने वाली दिक्कत का तो ’हाथी जाए बाजार-कुत्ते भौंके हजार’
यदि आपका मन हाथी जैसा विशाल है तो क्यों फ़िक्र पालते हैं किसी के भौंकने की.’
मैंने कहा.
‘वैसे भौंकना है बड़ी प्रभावी क्रिया है मित्र! कई लोग लगातार
भौंक-भौंक कर अपना मकसद पूरा करते देखे गए हैं. कुछ लोग सामूहिक रूप से सार्वजनिक
भौंकने में विश्वास करते हैं, रोज थोड़ा-थोड़ा भौंकते हैं. एक दिन उनका भौंकना रंग
लाता है और उद्देश्य पूरा हो जाता है तब भौंकने के स्वर भी लुप्त होते जाते हैं.’
साधुरामजी पटरी पर आ चुके थे.
‘लेकिन इस काटने की प्रवत्ति पर लगाम लगाना बहुत जरूरी है मित्र!
क्योंकि जिस तरह संसार शान्ति और
सौहार्द्र के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है, विशेषकर हमारा देश जो विविधता में
अनेकता का देश है, यहाँ जिस तरह आपसी भाई चारे और आत्मीयता के विस्तार के वृहद्
उपाय हो रहे हैं उससे कहीं ऐसा न हो कि अत्यधिक प्रेम में काट खाने की महामारी इस
महा देश में भी फ़ैल जाए.’ साधुरामजी की चिंता बहुत जायज थी.
‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं साधुरामजी, वैज्ञानिकों को अभी से
‘प्रेम-काट प्रतिरोधक टीके’ को तैयार करने के लिए शोध शुरू कर देना चाहिए’. मैंने
गंभीर चिता पर अपना गंभीर परामर्श दिया.
मैं और साधुरामजी दोनों बहुत खुश थे. लोकसेवक के बोल से मनुष्य जाति पर
मंडराने वाले खतरे से निपटने का उपाय जो सूझ गया था. हमारी सरकार ने इस पर तुरंत
ध्यान देना चाहिए अन्यथा फिर कोई पाताल वासी इसका पेटेंट करा लेगा और हम भरतवंशी देखते
रह जायेंगे. फिर हम कितना ही भौंकते रहें, श्रेय और कीर्ति का हाथी सम्मान के
बाजार से चुपचाप गुजर जाएगा.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018