Tuesday, March 29, 2016

भौंकने और काटने पर एक विमर्श

व्यंग्य
भौंकने और काटने पर एक विमर्श
ब्रजेश कानूनगो  

जैसा मैं सोंच ही रहा था साधुरामजी अखबार लहराते हुए ड्राइंग रूम में तेजी दाखिल हुए. अखबार में बड़ी दिलचस्प खबर आई थी. वीरों के प्रदेश से किसी कलेक्टर के अनमोल वचन फूट पड़े थे - ‘कलेक्टर भौंकता है और एसपी काटता है!’. हालांकि कलेक्टर ने अपने बोलबचन पर क्षमा भी मांग ली थी तथापि कमान से निकला तीर और मुख से निकले शब्द तो अपना काम करके ही जाते हैं.
‘देखा तुमने! ये क्या कह दिया इस लोकसेवक ने!’ साधुरामजी खीजते हुए बोले.
‘इसमें क्या गलत कह दिया साधुरामजी, मनुष्य भी इसी धरती का एक प्राणी है, ये प्रवत्ति सभी प्राणियों में संभव है. कलेक्टर हो या एसपी वह अन्य प्राणियों की तरह भौंकने और काट खाने के लिए स्वतन्त्र है. मैंने कहा.
‘ये तो बिलकुल गलत बात है, वे संवैधानिक और अहम पदों पर आसीन होते हैं, उन्हें ऐसा कहना और ऐसा करना कतई शोभा नहीं देता.’ साधुरामजी का गुस्सा शांत नहीं हुआ था. उनके गुस्से को शांत करने की गरज से मैं थोड़ी चुहुल के मूड में आ गया.
‘साधुरामजी, भौंकना भी उसी तरह सहज क्रिया है जैसे चिड़िया चहचहाती है, बकरी मिमियाती है, कौआ कांव-कांव करता है, कोयल कूकती है, गधे रेंकते हैं, उसी तरह कुछ लोग भौंक सकते हैं. यह जरूरी नहीं कि आदमी केवल बोलता ही रहे. वह चहचहाता भी है, मिमियाता भी है, कांव –कांव भी करता है, रेंकता भी है तो भौंक क्यों नहीं सकता? इसी तरह यदि ईश्वर ने दांत दिए हैं तो जीवन भर केवल चबाते ही तो नहीं रहना है, दिल चाहे तो काट भी सकते हैं प्यार में.’ मैंने हंसते हुए कहा तो साधुरामजी भी थोड़े मूड में आने लगे.

‘वो तो ठीक है मगर यह प्यार में काट लेने वाली बात ज़रा समझ में नहीं आई?’ उन्होंने प्रश्न रखा. ‘एक विशेषज्ञ ने अपने शोध में यह सिद्ध किया है कि मनुष्यों में एक दूसरे को काट खाने की प्रवत्ति दिनों-दिन बढती जा रही है और इसका बहुत बड़ा कारण प्रेम की प्रगाढ़ता है. जब दो व्यक्ति बहुत अधिक प्रेम की स्थिति में आ जाते हैं तो वे एक-दूसरे को दांतों से काटने लगते हैं.’ हाल ही में कहीं पढी हुई जानकारी देते हुए अपना ज्ञान बघारा तो वे खिलखिला पड़े. बोले ‘तभी साधुराइन इन दिनों बात-बात में काटने को दौड़ती हैं!’ मैं भी मुस्कुराए बिना रह नहीं सका.

‘भौंकना और काटना बहुत स्वाभाविक क्रियाएं हैं साधुरामजी! भौंकने में क्या बुराई है भला! बल्कि भौंकना तो शुद्ध रूप से एक अहिंसक क्रिया है, जो भौंकते हैं वे काटते नहीं. और यदि काटते भी हैं तो वे यह कार्य अत्यधिक प्रेमवश करते हैं और रहा सवाल इससे किसी को होने वाली दिक्कत का तो ’हाथी जाए बाजार-कुत्ते भौंके हजार’ यदि आपका मन हाथी जैसा विशाल है तो क्यों फ़िक्र पालते हैं किसी के भौंकने की.’ मैंने कहा.

‘वैसे भौंकना है बड़ी प्रभावी क्रिया है मित्र! कई लोग लगातार भौंक-भौंक कर अपना मकसद पूरा करते देखे गए हैं. कुछ लोग सामूहिक रूप से सार्वजनिक भौंकने में विश्वास करते हैं, रोज थोड़ा-थोड़ा भौंकते हैं. एक दिन उनका भौंकना रंग लाता है और उद्देश्य पूरा हो जाता है तब भौंकने के स्वर भी लुप्त होते जाते हैं.’ साधुरामजी पटरी पर आ चुके थे.

‘लेकिन इस काटने की प्रवत्ति पर लगाम लगाना बहुत जरूरी है मित्र! क्योंकि जिस तरह संसार  शान्ति और सौहार्द्र के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है, विशेषकर हमारा देश जो विविधता में अनेकता का देश है, यहाँ जिस तरह आपसी भाई चारे और आत्मीयता के विस्तार के वृहद् उपाय हो रहे हैं उससे कहीं ऐसा न हो कि अत्यधिक प्रेम में काट खाने की महामारी इस महा देश में भी फ़ैल जाए.’ साधुरामजी की चिंता बहुत जायज थी.

‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं साधुरामजी, वैज्ञानिकों को अभी से ‘प्रेम-काट प्रतिरोधक टीके’ को तैयार करने के लिए शोध शुरू कर देना चाहिए’. मैंने गंभीर चिता पर अपना गंभीर परामर्श दिया.
मैं और साधुरामजी दोनों बहुत खुश थे. लोकसेवक के बोल से मनुष्य जाति पर मंडराने वाले खतरे से निपटने का उपाय जो सूझ गया था. हमारी सरकार ने इस पर तुरंत ध्यान देना चाहिए अन्यथा फिर कोई पाताल वासी इसका पेटेंट करा लेगा और हम भरतवंशी देखते रह जायेंगे. फिर हम कितना ही भौंकते रहें, श्रेय और कीर्ति का हाथी सम्मान के बाजार से चुपचाप गुजर जाएगा.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018   

    
  


    

Tuesday, March 22, 2016

काले रंग के पक्ष में

व्यंग्य  
काले रंग के पक्ष में
ब्रजेश कानूनगो 

काले रंग में महानता छिपी होती है. बल्कि यों कहा जाए महानता काले रंग में ही अधिक खिलती है  हमारे ग्रंथों में कहीं इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि हमारी आदर्श विभूतियों ने कभी अपने काले होने का  दुःख व्यक्त किया हो. महानता के  रंग का काले रंग के साथ अद्भुत संयोग होता है. पीले सिंह पर महाकालीसफ़ेद हिमालय पर विराजमान काले शिव और गले में काला नाग,काले चूहे पर बुद्धि के देवता काले हाथी का मस्तक धारण किए गजानन. 'काली-काली अंखियों ने ऐसा जादू डालाबन गया काला नंदलाला.कजरारी आँखों का अनोखा चमत्कार,जिससे 'माधवकृष्ण बन जाते हैं.न जाने क्यों जब भी किसी पर स्याही उंढेल दी जाती है , बवाल खडा हो जाता है. होली खेलने में भी काले रंग से ऐसे बचते हैं जैसे कोई तेज़ाब लगाने चला आ रहा हो. रंग तो रंग होते हैं. क्या लाल, हरा, सफ़ेद या काला.  लोगों को आखिर काले रंग से इतनी चिढ क्यों होती हैमैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ. 

अब देखिये! गाय काली होलाल हो या सफेद वह दूध तो सफेद ही देती है। भैंस का रंग भी यदि बदल  जाए तो क्या हम घी और दही से परहेज करने लगेंगे। इसी तरह धन भी बस धन होता है वह काला हो या सफेद क्या फर्क पडने वाला है। यह कैसा रंग भेदजीवन में सुख –दुःख का एक साथ अस्तित्व होता है ,दुःख नहीं होगा तो सुख का आनंद दुर्लभ हो जाएगा उसी तरह काले के बगैर  उजले या किसी अन्य रंग के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है.  काला रंग अन्य रंगों के सौंदर्य का आधार है. आकाश काला होगा तभी तो सितारों का संसार झिलमिला सकेगा. काली रात ही है जिसके कारण चाँद और चांदनी का अस्तित्व है.


काले रंग से प्रभावित नायक गा रहा है-'गोरे रंग पे इतना न गुमान कर गोरा रंग दो दिन में झर जाएगा.उधर नायिका काले रंग की महिमा का बखान करते हुए गा रही है-'मोरा गोरा रंग लइले ,मोहे श्याम रंग दइदे .अहा! कितना मर्मस्पर्शी अहसास है.

जहाँ सफ़ेद हाथी से काला हाथी अधिक विश्वसनीय और ईमानदार होता है,वहीं सफ़ेद कबूतर की गुटुर गूं से काली कोयल की कुहुक कानों में मिश्री घोल देती है. श्वेत क्रान्ति का नारा खोखला है जब तक कि उसमे दूध की धारा प्रवाहित करनेवाली काली भैसों का योगदान न रहे.

किसी से अब यह भी छुपा नहीं रह गया है कि समृद्धि काले दरवाजों से ही गृह प्रवेश करती है. लोकायुक्त के छापों और न्यायपालिका की फटकारों से यह सच्चाई सिद्ध भी हो चुकी  है. यह अलग बात है कि न जाने किस काले जादू के कारण कुबेरों की खाता सूची से कई नाम अन्धेरों में विलुप्त हो जाते हैं या उनका वहाँ होने का कोई अर्थ ही नही रह जाता है. काले की माया और महिमा अद्भुत होती है.
  
बहरहाल ,काले रंग के प्रति जो काला पर्दा हमारी आँखों पर पड़ा हुआ हैइसे हटाना चाहिए . काले रंग को किसी भी तरह अशुभ या असुंदर नहीं समझा जाना चाहिए. क्या प्रेयसी के बालों में लगा सफ़ेद फूल कभी सफ़ेद बालों में दिखाई दे सकेगा ? क्या सफ़ेद जुल्फें लहराएंगी तो सावन का महीना आ सकेगा ? काली घटाएं नहीं घिरने पर विरह की व्यथा और इंतज़ार की टीस कैसे अनुभव की जा सकती है. सच तो यह है कि दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण रंग है तो वह शायद काला ही है. हर रंग पर काला रंगरंग जमा लेता है. इसे किसी के अपमान से जोड़ा जाना भी ठीक नहीं लगता. तो आइये एक काला टीका हमारी ओर से भी लगा लीजिये इस होली पर. सच मानिए आपकी मस्ती और खुशियों पर किसी की बुरी नजर भी प्रभाव नहीं डाल पाएगी.      

ब्रजेश कानूनगो


Thursday, March 17, 2016

मार्च माह का ‘मार्च’

व्यंग्य
मार्च माह का ‘मार्च’
ब्रजेश कानूनगो

क्यों आता है यह मार्च का महीना? क्या फरवरी के बाद सीधे अप्रैल नहीं आ सकता? और फिर मार्च के बाद पहली अप्रैल को मूर्ख-दिवस के रूप में मनाने की क्या आवश्यकता है? अपने वेतन से आयकर कटवाने के बाद वैसे ही क्या बचा रह जाता है सिवाय मूर्ख बने रहने के. अगर एक सामान्य आयकरदाता किसी टैक्स सेविंग बचत या नियोजन की व्यवस्था न करे तो उसका लगभग ढाई माह का वेतन आयकर की बलि चढ़ जाता है. राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को सृदृढ बनाने में नौकरी पेशा व्यक्ति का पेटकाट योगदान, विकास के यज्ञ में एक विनम्र आहुति. वर्ष में लगभग साढे नौ माह के वेतन का जायज अधिकारी होता है वेतनभोगी. प्रकृति ने ही मनुष्य को धारण करने की नौ, साढ़े नौ माह की प्राकृतिक व्यवस्था की है, तब उसे  इतना वेतन मिलना प्रकृति सम्मत है.

सेठ-साहूकारों और कॉर्पोरेटों को आयकर से बचने के अनेक वैधानिक रास्ते बजट की गलियों में ही छुपे रहते हैं. गरीब-फटेहाल के पास तो करयोग्य धनराशि पहुँचती ही नहीं, जो राशि पहुँचती है उसमें से भी बहुत सारा हिस्सा तंत्र के संचालन में क्षयित हो जाता है. अब रहा वेतनभोगी माध्यम वर्ग, जिससे राष्ट्र के समूचे आयकर का महज दो प्रतिशत प्राप्त होता है, जो उसकी कमर तोड़ने के लिए पर्याप्त होता है.

हर साल मार्च माह के प्रारम्भ होते ही वेतनभोगी कर्मचारी का कठिन समय प्रारम्भ हो जाता है. जीवन बीमा स्कीमों का वह नाश्ता करने लगता है, प्यास लगती है तो पीपीएफ विड्राल से बुझाता है, भूख सताती है तो म्यूचुअल फंडों , बाडों-यूनिटों को निगलने लगता है. नींद में भी उसे कर सलाहकार, स्कीम एजेंट और  मनीब्रोकरों के सपने दिखाई देने लगते हैं. घबराकर वह जाग जाता है, नींद उचट जाती है. मार्च माह और  कैसी नींद? अपने आयकर को लेकर यदि आप परेशान नहीं हैं तो आपके सहयोगी आपको निश्चिन्त नहीं रहने देंगे, वे अपना दुःख बांटने चले आयेंगे आपके पास. आपको चिंता करनी ही होगी. चिंता की चिता से आप दूर नहीं रह सकते.

यह भारतीय अर्थव्यवस्था की विडम्बना है कि यहाँ कुछ लोगों को जीवन व्यापन के लिए अपने पदक तक बेचना पड़ जाते हैं. कर्ज चुकाने में असमर्थ किसान जहर पीने को विवश हो जाता है. अपने समय में लाखों-करोड़ों कमाने वाले अभिनेता और कलाकार गुमनाम चाल में दम तोड़ देते हैं. अच्छा खाने, अच्छा पहनने और अच्छे घर की चाह में आम भारतीय को किसी अनुदान या इंसेंटिव की राह तकनी पड़ती है. बेहिसाब कमाई करने वाले कई धन्ना सेठ, राजनेता, फ़िल्मी सितारे आयकर हजम कर जाने के कारनामे खुले आम करते दिखाई दे जाते हैं किन्तु एक सामान्य नौकरीपेशा व्यक्ति मार्च माह में न्यूनतम वेतन मिलने या निवेश की कल्पना करके ही सिहर जाता है !

बजट के बाद हमेशा से दो पक्ष प्रतिक्रिया व्यक्त करते दिखाई देते रहे हैं. एक जो उसे शानदार बताता है, दूसरा उसे बिलकुल बकवास. लेकिन एक तीसरा पक्ष भी होता है, जिसके लिए वह न शानदार होता है न घटिया, उसके लिए वह मारक होता है. उसके सामने वह मार्च के रूप में   आ खडा होता है.  
बहरहाल, मार्च माह की सड़क पर ’मार्च’ तो करना ही होगा, भले ही पैर थोड़े लड़खड़ा जाएँ.

Saturday, March 12, 2016

आमदनी वाला धन्धा

आमदनी वाला धन्धा
ब्रजेश कानूनगो 
बहुत दिनों से साधुरामजी नजर नहीं आ रहे थे. उनका हालचाल जानने जब मैं उनके घर पहुंचा, तो देखा कमरे में ढेरों किताबें, पत्रिकाएँ खुली-अधखुली पड़ी थीं. ऐसा लगा जैसे वे किसी रिसर्च की तैयारी कर रहे हों. वे पत्र-पत्रिकाओं में जगह-जगह कई शब्दों पर पेंसिल से रेखाएं खींच रहे थे. मैंने पूछा- ‘ये क्या हाल बना रखा है साधुरामजी?’

उन्होंने नजरें उठाई, फिर बोले-‘इन दिनों फुरसत में था और यह काम निकल आया, सो जुटा हुआ हूँ. वैसे भी हाथ कुछ तंग चल रहा है, पांच-छह सौ भी मिल गए तो कुछ तो राहत मिलेगी.’
‘भला ऐसा क्या काम निकल आया है जो मित्रों को ही भूल गए?’ मैंने उत्सुकता से पूछा.
‘अखबार नहीं पढ़ते क्या?’ उन्होंने टीवी बहस के किसी प्रवक्ता की तरह उत्तर की बजाए प्रति प्रश्न सामने धर दिया तो मैंने थोड़ा झुंझलाते हुए कहा-‘मैं अखबार की एक-एक लाइन पढ़ता हूँ साधुरामजी. पांच राज्यों में चुनाव घोषित हो गए हैं, सरकार ने ईपीएफ पर प्रस्तावित टैक्स वापिस ले लिया है, कन्हैया की जुबान काटने वाले को ईनाम की घोषणा करने वाले को पुलिस ने मुस्तैदी से गिरफ्तार कर लिया है, माल्या के विरुद्ध सत्रह बैंकें सुप्रीम कोर्ट में चली गईं हैं, मैंने सब पढ़ा है.’
‘बवासीर के इलाज का विज्ञापन पढ़ा है ?’ वे छूटते ही बोले.
‘नहीं तो!’ मैंने आश्चर्य से कहा- ‘मैं विज्ञापनों वाला पृष्ठ नहीं पढ़ता.’
‘यही गलती करते हो! उसी पृष्ठ पर तो कभी-कभी ख़ास चीजें निकल आती हैं. पांच राज्यों में मई तक चुनाव हो जायेंगे इससे तुम्हे क्या?, ईपीएफ पर टैक्स की राहत से तुम्हे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं, पुलिस को अपना काम करना ही है कन्हैया हो या साधुराम हो, तुम क्या कर लोगे इसमें, माल्या हो या मांगीलाल कर्ज वसूली के लिए बैंकों को तो कार्यवाई करनी ही पड़ती  है, उनकी वसूली से तुम्हे क्या मिलना है?’ वे बोलते चले गए और मैं सुनता रहा. ‘अखबार पढ़ना और पढ़कर अपने मतलब की बात खोज लेना ही अखबार पढ़ना है, अब मुझे देखो, मैं अखबार पढ़ता हूँ तो उसमें से कुछ पा ही लेता हूँ.’
‘ज़रा स्पष्ट कीजिये, मेरी समझदानी का मुंह ज़रा सकरा है.’ मैंने अपनी नासमझी का ईमानदार परिचय दिया.
‘अखबार में विज्ञापन निकला है कि ‘प’ अक्षर से शुरू होने वाले नवजात बालक का नाम सुझाइए- पांच सौ रुपयों का नगद पुरूस्कार मिलेगा.’ उन्होंने जानकारी दी.
‘अच्छा! तभी आप इस तरह ‘प’ के पीछे पेन लेकर पड़े हैं. आजकल लोगों के पास इतना समय ही कहाँ है.उन्होंने अपना काम कर दिया है जितना समय वे बच्चे का नाम खोजने में जाया करते, उतने में उनका लाखों का नुक्सान हो जाता, अब पांच सौ रुपयों में यह सौदा भी बुरा नहीं है साधुरामजी!’ मैंने अपने क्रांतिकारी विचार रखे. इसी बीच चाय आ गयी. चुस्कियां लेते हुए साधुरामजी ‘समान्तर शब्द कोश’ में ‘प’ पृष्ठ पर पेंसिल घुमाने लगे.  
‘क्या आपको पूरी उम्मीद है कि आपका सुझाया नाम ही पसंद किया जाएगा?’ मैंने खामोशी भंग की.
‘यकीनन, हमें ऐसी प्रतियोगिताओं में सफल होने का खासा अनुभव है. यह टीवी देख रहे हैं आप, यह वनस्पति घी बनानेवाली कंपनी की प्रतियोगिता में जीता था, और यह जो पंखा लगा है छत पर, ये एक सिलाई मशीन के स्लोगन पर प्राप्त हुआ है. यह कुर्ता जो मैंने पहन रखा है वह एक  कपडा बनाने वाली कंपनी के सौजन्य से सिलवाया गया है. तुम जितना साल भर लेख आदि लिख कर नहीं कमा सकते, उतना मैं प्रतियोगिताओं में भाग ले कर हासिल कर लेता हूँ.’ उन्होंने स्पष्ट किया.
‘वैसे, इसमें आपको मेहनत तो खूब करनी पड़ती होगी?’ मैंने पूछा.
‘हाँ, करनी तो पड़ती ही है. तुम्हे याद है पिछले दिनों एक महिला ने अपना कुत्ता गम हो जाने का विज्ञापन छपवाया था और इनाम के हजार रूपये रखे था.’ वे बोले.
‘हाँ-हाँ, क्या मिल गया कुत्ता?’ उत्सुकता से मैंने पूछा.
‘मिलता कैसे नहीं! मैं जो लगा था उसके पीछे , वह धर्मराज का कुत्ता तो था नहीं जो हिमालय पहुँच जाता, यहीं महू के पास जानापाव की पहाडी पर ही मिल गया, पर मेहनत बहुत हो गयी भाई!’ उन्होंने बताया.
‘वास्तव में आपका कुत्ता खोजी अभियान काफी रोमांचक रहा होगा.’ मैंने उनकी हौसला अफजाई करते हुए कहा. वे मुस्कुरा दिए.
तभी मेरी नजर सामने पड़े अखबार की खबर के शीर्षक पर गई लिखा था-‘खुले में शौच करने वालों के फोटो भेजो और 300 रुपये इनाम पाओ.’ मैंने अखबार साधुरामजी की ओर बढ़ा दिया.

ब्रजेश कानूनगो