Monday, December 7, 2015

प्रवक्ता और सवाल

व्यंग्य
प्रवक्ता और सवाल
ब्रजेश कानूनगो   


किसी भी राजनीतिक पार्टी में परम्परागत रूप से दो तरह के लोगों का समावेश रहता आया है. कुछ नेता होते हैं और अधिकाँश को कार्यकर्ता माना जाता है. यह अलग बात है जब नेताजी को पार्टी हाईकमान उनके दायित्वों से किसी कारणवश मुक्त कर देता है तो वे पार्टी के स्वघोषित सिपाहीके रूप में पार्टी का हिस्सा बने रहते हैं. किन्तु यह केवल अपने आपको सांत्वना देना भर ही होता है. वस्तुतः पार्टी मार्केट में उनका सूचकांक उच्च शिखर से गिरता हुआ जमीन से आ मिलता है.

पार्टी का नेता जब कोई रास्ता दिखाता है तो सारे कार्यकर्ता उसका अनुगमन करने लगते हैं. यही उनका धर्म होता है. नेता जब कोई शंखनाद या उद्घोष करता है तो सभी कार्यकर्ता नगाड़े बजा ताल देकर उसे चहुँओर विस्तारित करने की कोशिश करते हैं.  नेता के मुख्य स्वर में कार्यकर्ताओं की संगत से पार्टी का राग मोहक बन उठता है. सदा से यही होता रहा है.

लेकिन जब से देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया का नव साम्राज्य स्थापित हुआ है, पुराने मानक बदलने लगे हैं. संघर्ष और आन्दोलन पहले की तरह जमीन पर नहीं दिखाई देते. अब टेलीविजन के स्क्रीन पर युद्ध होते हैं. जब प्रतिद्वंदी की किसी भी छवि या अर्जित सम्मान के शिखरों को ध्वस्त किया जाना आवश्यक हो जाता है तब इतिहास की गर्त में दबे सुप्त प्रसंगों के बमों को यहाँ  चिंगारी दिखाई जाती है. आग उगलते बयानों की धधकती मिसाइलें विरोधियों पर दागी जाती हैं. और तो और न्यायालयों में जाने से पहले ही विवादों को टीवी चैनलों की खौफनाक जिरह का सामना करना पड़ता है. सर्वज्ञानी एंकरों के चीखते सवालों का जवाब देना न तो किसी कार्यकर्ता के बस में होता है और न ही किसी ईमानदार नेता की प्रतिष्ठा के अनुकूल. ऐसे में इस नई परिस्थिति के मुकाबले के लिए एक नया चरित्र उभरकर सामने आया है, वह है- पार्टी प्रवक्ता.असली सिपाही तो यही होता है जो पार्टी नेतृत्व और विचारधारा की रक्षा के लिए विपक्ष की धुंवाधार गोलीबारी के बीच भी अपनी बन्दूक चलाता लगातार डटा रहता है.

प्रवक्ताकी भूमिका मीडिया आधारित राजनीति में इन दिनों बहुत अहम हो गयी है. इसका कहा ही आम लोगों तक पार्टी के कहे की तरह पहुंचता है. बहुत कुशल और प्रतिभावान के चयन के बावजूद इस प्राणी की स्थिति टीवी पर अक्सर बहुत ही नाजुक बनी रहती है. तर्क-कुतर्क के कई दांव पेंच आजमाते हुए यह लगातार अपने प्रतिद्वंदी को परास्त करने के उपक्रम में जुटा रहता है. बल्कि यों कहें इस जुझारू योद्धा को  चौतरफा आक्रमणों का मुकाबला अकेले ही करना होता है. टीवी बहस में उपस्थित विचारकों के प्रस्तुत तथ्यों, विरोधी प्रवक्ता द्वारा कब्र खोदती टिप्पणियों, सहयोगी दल की नासमझ अपेक्षाओं और महा ज्ञानी एंकर की स्पीड ब्रेकर चीखों के बीच संतुलित जवाब देना कितना कठिन हो जाता है यह आसानी से समझा जा सकता है.

प्रवक्ताओं का संघर्ष सचमुच प्रणम्य है. ये अभिमन्यु नहीं होते, समयसीमा में बंधे चक्रव्यूह से बाहर निकल ही आते हैं. कुछ न कुछ उपाय खोज ही लेते हैं. कुछ प्रवक्ता  आद्ध्यात्मिक हो जाते हैं और मोटिवेशनल सूक्तियों की फुहार से बहस की ज्वाला को शांत करने की कोशिश करते हैं तो कुछ किसी लोकप्रिय शेर या कविता का अंश सुनाते हुए मुस्कुराने लगते हैं. लेकिन सबसे अचूक हथियार इनका यह होता है कि प्रतिपक्षी या एंकर के सवाल के उत्तर में ही प्रवक्ता अपना नया सवाल दाग देता है. याने प्रश्न के जवाब में एक नया प्रश्न. टीवी की बहसों में यही सब देख कर विख्यात गीतकार शैलेन्द्र के गीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं- एक सवाल तुम करो, एक सवाल मैं करूँ. हर सवाल का जवाब हो एक सवाल.

सवालों से लबालब टीवी बहस के प्याले में उत्तरों की एक बूँद भी क्यों नहीं मिलती ? एक मात्र यही सवाल इस वक्त मन में घंटी बजा रहा है.

ब्रजेश कानूनगो                                                     
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

Thursday, December 3, 2015

बीती काहे बिसार दें?

बीती काहे बिसार दें?  
ब्रजेश कानूनगो

समझदार लोग कहते आए हैं कि याद रखना उतना जरूरी नही जितना कि भूल जाना।इन्हीं के सामने कुछ समझदार लोग भी सामने आते रहे हैं, जो स्वयं को ‘भूलने के विरुद्ध’बताते हुए याद रखने की कला की तारीफ़ करते हैं. फिर भी आम समझ तो यही है कि सफर की तमाम मुश्किलों और पथ की दुर्गमता के बावजूद जिन्दगी की गाडी सहज चलती रहे तो जरूरी होगा कि पीछे रह गई बातों को हम भुलाते जाएँ. ‘बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुधि ले’ यह मुहावरा भी इसी समझ से उपजा है.  हर कोई चाहता है की वह स्वस्थ बना रहे. तन और मन पर कोई भी पुरानी या गुजरी हुई बात विपरीत प्रभाव न डाल सके इसलिए नई घटनाओं और स्थितियों की रोशनी से विटामीन और ऊर्जा प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करते रहना चाहिए. सरकार भी यही चाहती है कि शान्ति के झूले में बैठकर संबंधों के चरखे से खुशहाली का सूत हमेशा काता जाता रहे. बावजूद इसके कमबख्त कुछ विघ्न संतोषी हैं जो बार-बार भूली-बिसरी बातों को याद दिलाकर सारा मजा किरकिरा कर देते हैं. 

सरकारें तो पूरा प्रयास करती हैं कि पुरानी बातों को भूलकर हम विकास जैसे मुद्दे पर अपना ध्यान लगाएं, लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है. हर कोई अर्जुन की तरह एकाग्र नहीं हो सकता, इसलिए ध्यान बंट ही जाता है.  अब देखिए पिछली सरकार के समय भी एक घोटाले के बाद दूसरा नया घोटाला इसलिए किया जाता रहा ताकि पिछले वाले को पब्लिक भुला सके.  कब तक आदर्श, कब तक 2जी, कब तक कोयला, छोडिए भी अब पुराना, नए में मन रमाइए अपना। पर बात बनी नहीं. पुराने निशान आसानी से नहीं मिटा करते.  

भूलने-बिसराने का एक सदाबहार उदाहरण हमारे यहाँ बड़ा प्रेरणास्पद रहा है. प्रणय प्रसंग के बाद सम्राट दुष्यंत अपनी प्रेयसी शकुंतला को बिसरा ही दिया था लेकिन भला हो उस मुद्रिका का जिसे देखते ही सम्राट को वन कन्या के साथ बिताए वे मधुर पल दोबारा याद आ जाते हैं.  इतिहास गवाह है कि कालान्तर में इन्ही प्रेमी युगल की होनहार संतान ‘भरत’ के नाम पर इस गौरवशाली महादेश का नाम ‘भारत’ रखा गया.

भारत वर्ष में वह मुद्रिका परम्परा आज भी कायम है. याद दिलाने के लिए ऐसी कई मुद्रिकाओ के दर्शन अक्सर हमें करवाए जाते रहे हैं। देश- विभाजन, भारत-पाक और भारत-चीन के पुराने युद्ध या बोफोर्स सौदा आदि भी ऐसी ही हरदिल अजीज मुद्रिकाएं हैं जो भुला दिए गए अतीत के प्रसंगों की वक्त-बेवक्त याद ताजा करती रहीं है.

बेचारी जनता तो कब की भुला चुकी होती इन मुद्रिकाओं को लेकिन कुछ लोग हैं कि बार-बार नई-नई मुद्रिकाएं सामने लिए चले आते हैं. याद दिलाते रहते हैं कि भाई इस देश में इमर्जेंसी भी लगी थी और मज्जिद भी ध्वस्त की गई थी. गोधरा में कुछ लोग जिन्दा जला दिए गए थे और भोपाल के जहर ने कइयों की जानें और आँखों की रोशनी छीन ली थी। विद्वानों ने तो कई बार दुहराया है कि बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय।’  लेकिन उनका दिल है कि मानता नही। ज़रा गौर से देखिए तो पता चलता है कि मुद्रिका परम्परा के निर्वाह में कई संस्थान पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं इन दिनों,जिन्हें वक्त के मरहम पर ऐतबार नहीं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18