बीती काहे
बिसार दें?
ब्रजेश कानूनगो
समझदार लोग कहते आए हैं कि याद
रखना उतना जरूरी नही जितना कि भूल जाना।इन्हीं के सामने कुछ समझदार लोग भी सामने
आते रहे हैं, जो स्वयं को ‘भूलने के विरुद्ध’बताते हुए याद रखने की कला की तारीफ़
करते हैं. फिर भी आम समझ तो यही है कि सफर की तमाम मुश्किलों और पथ की दुर्गमता के
बावजूद जिन्दगी की गाडी सहज चलती रहे तो जरूरी होगा कि पीछे रह गई बातों को हम भुलाते
जाएँ. ‘बीती ताहि बिसार दे,आगे की सुधि ले’ यह मुहावरा भी इसी समझ से उपजा है. हर कोई चाहता है की वह स्वस्थ बना रहे. तन और मन
पर कोई भी पुरानी या गुजरी हुई बात विपरीत प्रभाव न डाल सके इसलिए नई घटनाओं और स्थितियों
की रोशनी से विटामीन और ऊर्जा प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करते रहना चाहिए. सरकार
भी यही चाहती है कि शान्ति के झूले में बैठकर संबंधों के चरखे से खुशहाली का सूत
हमेशा काता जाता रहे. बावजूद इसके कमबख्त कुछ विघ्न संतोषी हैं जो बार-बार
भूली-बिसरी बातों को याद दिलाकर सारा मजा किरकिरा कर देते हैं.
सरकारें तो पूरा प्रयास करती
हैं कि पुरानी बातों को भूलकर हम विकास जैसे मुद्दे पर अपना ध्यान लगाएं, लेकिन अक्सर
ऐसा होता नहीं है. हर कोई अर्जुन की तरह एकाग्र नहीं हो सकता, इसलिए ध्यान बंट ही
जाता है. अब देखिए पिछली सरकार के समय भी
एक घोटाले के बाद दूसरा नया घोटाला इसलिए किया जाता रहा ताकि पिछले वाले को पब्लिक
भुला सके. कब तक आदर्श, कब तक 2जी, कब तक कोयला, छोडिए भी अब पुराना, नए में मन रमाइए अपना। पर बात बनी नहीं. पुराने
निशान आसानी से नहीं मिटा करते.
भूलने-बिसराने का एक सदाबहार उदाहरण
हमारे यहाँ बड़ा प्रेरणास्पद रहा है. प्रणय प्रसंग के बाद सम्राट दुष्यंत अपनी
प्रेयसी शकुंतला को बिसरा ही दिया था लेकिन भला हो उस मुद्रिका का जिसे देखते ही
सम्राट को वन कन्या के साथ बिताए वे मधुर पल दोबारा याद आ जाते हैं. इतिहास गवाह है कि कालान्तर में इन्ही प्रेमी
युगल की होनहार संतान ‘भरत’ के नाम पर इस गौरवशाली महादेश का नाम ‘भारत’ रखा गया.
भारत वर्ष में वह मुद्रिका
परम्परा आज भी कायम है. याद दिलाने के लिए ऐसी कई मुद्रिकाओ के दर्शन अक्सर हमें
करवाए जाते रहे हैं। देश- विभाजन, भारत-पाक और भारत-चीन के पुराने युद्ध या बोफोर्स
सौदा आदि भी ऐसी ही हरदिल अजीज मुद्रिकाएं हैं जो भुला दिए गए अतीत के प्रसंगों की वक्त-बेवक्त याद ताजा करती रहीं है.
बेचारी जनता तो कब की
भुला चुकी होती इन मुद्रिकाओं को लेकिन कुछ लोग हैं कि बार-बार नई-नई मुद्रिकाएं
सामने लिए चले आते हैं. याद दिलाते रहते हैं कि भाई इस देश में इमर्जेंसी भी लगी थी
और मज्जिद भी ध्वस्त की गई थी. गोधरा में कुछ लोग जिन्दा जला दिए गए थे और भोपाल
के जहर ने कइयों की जानें और आँखों की रोशनी छीन ली थी। विद्वानों ने तो कई बार
दुहराया है कि ‘बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि लेय।’
लेकिन उनका दिल है कि मानता नही। ज़रा गौर से देखिए तो पता
चलता है कि मुद्रिका परम्परा के निर्वाह में कई संस्थान पूरी मुस्तैदी से लगे हुए
हैं इन दिनों,जिन्हें वक्त के मरहम पर ऐतबार नहीं.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18
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