व्यंग्य
साहित्य समारोह के कुछ नए कायदे
ब्रजेश कानूनगो
सोशल मीडिया के इस दौर में साहित्य समारोह आदि में जाने के अपने
कुछ कायदे होते हैं। अगर आप कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि या अध्यक्षता का
दायित्व संभालने हेतु आमंत्रित किए गए हों तो यह और भी जरूरी हो जाता है कि आप
पूरी तैयारी के साथ जाएं। याने वह कुर्ता कदापि न पहनें जिसे पिछली गोष्ठी में
पहनकर गए थे। यदि सफारी या सूट पहन रहे हों तो फीते वाले जूतों का मोह न रखें, सेंडिल या पम्प शू को प्राथमिकता दें। इससे
सरस्वती प्रतिमा पर पुष्पाहार और दीप प्रज्वलन के वक्त बिना झुके पादुका मुक्त हो
सकेंगे। अपने मोबाइल को पहले से स्क्रीन लॉक से फ्री करदें ताकि जब आप मंचासीन होंगे
या संबोधित कर रहे होंगे तो आपका प्रशंसक
या मित्र आपके मोबाइल से सहजता से तस्वीर खींच सकेगा.
मुख्य अतिथी या अध्यक्षता की हैसियत रखते हुए भी यदि आपको श्रोता
के रूप में आमंत्रित किया गया हो तो भी कुछ बुनियादी बातों का ख़याल तो रखना ही
पड़ता है. मसलन यदि स्वल्पाहार कार्यक्रम के प्रारम्भ में है तो सबसे मेल मुलाक़ात
पहले ही कर लें और देर तक सबका हाल चाल पूछते रहें. हाँ, इस बात को सुनिश्चित कर
लें कि जब आप किसी वरिष्ठ साहित्यकार के साथ खड़े हों तब आपका मित्र मोबाइल से उस
क्षण को तस्वीर में कैद कर ले. यही प्रक्रिया आप आगे बढ़कर मित्र के लिए भी करें. कार्यक्रम शुरू होने लगे तब अपनी प्लेट लेकर सब
लोगों के सभागृह में चले जाने तक स्वल्पाहार करते रहें , इससे होगा यह कि मुख्य
कार्यक्रम के पहले की बोरिंग औपचारिकताओं से आप बच जायेंगें. यदि स्वल्पाहार
गोष्ठी के बाद में रखा गया हो तो आप इत्मीनान से भी घर से निकल सकते हैं.
ये तो आपको पता ही होगा कि प्रारम्भ में श्रोताओं की सबसे अगली
पंक्ति में मंच पर स्थान ग्रहण करने वाले बैठा दिए जाते हैं। ये स्थान लगभग किसी
चुने हुए सांसदों के स्थान की तरह होता है,जिनमें से कुछ को बाद में मंत्री मण्डल में शामिल
होकर कुर्सी की शोभा बढ़ानी होती है। आयोजक और उनके प्रतिनिधि उन्हें ससम्मान मंच
पर ले जाते हैं और तय स्थान पर रखी गई कुर्सी या सौफे में वे अपना स्थान ग्रहण कर
लेते हैं। इस बीच आप देर से पहुंचकर भी गोष्ठी कक्ष में आकर पहली पंक्ति में स्थान
पा सकते हैं. यहाँ से तस्वीरें भी आप ठीक से निकाल सकते हैं और उचित समय पर मुंडी
हिलाकर, ‘वाह-वाह’ कहकर, तालियाँ बजाकर अतिथियों के मन और दृष्टि में गंभीर श्रोता होने का सम्मान
अर्जित कर सकते हैं.
कार्यक्रम का सूत्रधार जैसे ही कहता है कि 'माननीय मंच पर अपना स्थान ग्रहण करें!' तभी से तय हो जाता है कि किसे किस क्रम की किस कुर्सी पर स्थापित हो जाना है। अमूमन मुख्य अतिथि की कुर्सी अध्यक्षता कर रही विभूति के बगल में तय होती है। यों कहें अध्यक्षजी के एक ओर आयोजक संस्था का प्रमुख और दूसरी ओर मुख्य अतिथि विराजते हैं। यही कायदा है। कभी कभी नासमझ आयोजक गलती भी कर बैठते हैं। फिर समझदार अध्यक्षीय विभूति को स्वयं इसे ठीक करवाना पड़ता हैं।
कार्यक्रम का सूत्रधार जैसे ही कहता है कि 'माननीय मंच पर अपना स्थान ग्रहण करें!' तभी से तय हो जाता है कि किसे किस क्रम की किस कुर्सी पर स्थापित हो जाना है। अमूमन मुख्य अतिथि की कुर्सी अध्यक्षता कर रही विभूति के बगल में तय होती है। यों कहें अध्यक्षजी के एक ओर आयोजक संस्था का प्रमुख और दूसरी ओर मुख्य अतिथि विराजते हैं। यही कायदा है। कभी कभी नासमझ आयोजक गलती भी कर बैठते हैं। फिर समझदार अध्यक्षीय विभूति को स्वयं इसे ठीक करवाना पड़ता हैं।
ऐसे ही एक समारोह में साधुरामजी को भी मुख्य आतिथ्य का गौरव मिल
गया था. वे लगातार पौने दो घण्टों से बोल रहे थे। मुख्य वक्ता को इतना तो बोलना ही
होता है। वैसे कम बोलने से अतिथि की 'मुख्यता' की चमक कम होने का खतरा भी होता है । इसलिए भी वे
लगातार बोलते रहे। इस लगातार के बीच दो तीन बार सामने दीवार पर लगी घड़ी पर भी उनकी
नजरें उठीं थीं और डेढ़ गिलास पानी भी उन्होंने गटक लिया था। क्या कुछ कहा उन्होंने
ये तो पता नहीं लेकिन जैसे ही प्रेस फोटोग्राफर का सभागृह में प्रवेश हुआ उन्होंने
अपने लंबे वक्तव्य का उपसंहार शुरू कर दिया। दो तीन बार कैमरे की फ्लेश गन जब चमक उठी तब अंतिम वाक्य उनके मुखारविंद
से फूटा -'इतना कहकर मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूँ।' सबने राहत की
सांस ली।
इस प्रसंग के बाद साधुरामजी ने सबक लिया. अपने हिसाब से संक्षिप्त
वक्तव्य देते हैं लेकिन प्रेस फोटोग्राफर के इंतज़ार के चक्कर में अब नहीं पड़ते.
मित्रों को साध लिया है, पूर्व में ही अपना मोबाइल थमा देते हैं, जैसे ही गोष्ठी,
समारोह में उनकी कोई भूमिका शुरू होती है दोस्त फटाक से उनकी तस्वीर उतार लेते
हैं.
कोई अखबार साहित्य समारोह का समाचार छापे या न छापे साधुरामजी
अब आत्म निर्भर हैं. फेसबुक और वाट्सएप समूहों में अपने चित्र मय समाचार लगाते हैं
और छाये रहते हैं. प्रसन्नता का ये उनका अपना मीडिया मेनेजमेंट है. चर्चित नहीं
होने से निराश और दुखी साहित्यकर्मी उनसे शिक्षा ले सकते हैं.
ब्रजेश कानूनगो