Monday, December 21, 2020

मुट्ठी चरित

मुट्ठी चरित

मेरे घर के ड्राइंगरूम की दीवार पर लगे टीवी स्क्रीन पर उस दिन गब्बरसिंह के साथी शोले बरसा रहे थे। काशीराम घर मे से आधी बोरी अनाज ले आया। ‘क्या लाये हो कासीराम?’ कालिया ने अपनी घनी मूंछों के पीछे से पीले दांत दिखाते हुए कहा। ‘हुजूर जुवार लाया हूँ।’ काशीराम ने चबूतरे पर बोरी रखते हुए कहा तो कालिया भड़क गया- ‘हमारे लिए बस आधी मुट्ठी जुवार... बाकी क्या बेटी के बारातियों को खिलाने के लिए रखी है..’ आधी बोरी अनाज कालिया के लिए केवल 'आधी मुट्ठी' के बराबर है। बोरी भर अनाज में काशीराम का सुख-चैन दांव पर लगा हुआ था।


मुट्ठी मुट्ठी में फर्क होता है। मित्र सुदामा की एक मुट्ठी में श्रीकृष्ण को एक लोक नजर आता है। जब तक मुट्ठी बंद रहती है तब तक रहस्य पर पर्दा पड़ा रहता है। जैसे ही मुट्ठी खुलती है चावल के दाने दोनों मित्रों के हृदय सागर को असंख्य प्रेममोतियों से मालामाल कर देते हैं।


मुझे तो इस पुरानी कहावत में भी संदेह रहता है कि ‘बंद मुट्ठी लाख की,खुल जाए तो ख़ाक की’। ये बिलकुल गलत बात है। यदि बंद मुट्ठी में से थोड़ी सी भस्म भी निकलती है तो उसका भी बड़ा मोल हो सकता है। वह भी बहुमूल्य हो सकती है। किसी पुराने वैद्यराज से पूछकर देखिये, कितनी महंगी होती है ‘स्वर्ण भस्म'। कल्लू पंसारी की मुट्ठी ही क्या उसकी चुटकी में दबी ‘केसर’ या गफूर गुल्लू की पुड़िया में बंद ‘पावडर’ का भाव कितना होता है यह खरीदने वाला ही जानता है।


यों देखा जाए तो इंसान की मुट्ठी हमेशा से सामूहिकता और एकजुटता का सटीक उदाहरण रही है। जब सारी उंगलियाँ एक साथ मिल जाती हैं तब मुट्ठी बनती है। एक नेताजी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थे, कहने लगे ‘मुट्ठी भर लोग’ यदि उनके खिलाफ वोट देते भी हैं तो क्या फर्क पड़ने वाला है। लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि ये ‘मुट्ठियाँ’ ही जब संकल्प,साहस और शक्ति से भर जाती हैं तो ‘मुक्का’ में बदल जाया करती हैं। जब जब मुट्ठियों नें संकल्पों की मशालें और विचारों के झंडे थामे हैं देश और दुनिया में महान क्रांतियाँ होती रही हैं। एकता में शक्ति होती है, यह बात यों ही नहीं कह दी गयी है। 


मतदान के बाद अनाज की बोरी 'काशीराम' चबूतरे पर रख आता है। 'सुदामाओं' की पोटली खुलने का इंतज़ार कई 'द्वारकाधीश' करने लगते हैं। बूट पॉलिश’ फिल्म का ख़ूबसूरत गीत हमारे यहाँ खूब लोकप्रिय है , ‘नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है !’ मुट्ठी में है तकदीर हमारी, हमने किस्मत को बस में किया है। 'ईवीएम' और 'मतपेटियां' भी प्रजातंत्र की ऐसी ही बंद मुट्ठियाँ होती हैं जो खुलने पर किसी को विजेता का ताज पहनाकर मालामाल करती हैं और किसी के सामने जीवन का सुखचैन छिन जाने का संकट ला खड़ा कर देती हैं।


इन प्रजातांत्रिक मुट्ठियां जब धीरे धीरे खुलने रखती हैं, अनेक दिल धड़कने लगते हैं, बहुतों  की ‘बल्ले बल्ले’ होने लगती है....कई के दिल बैठ भी जाते हैं. फूगे हुए गुब्बारों की तरह उछलते दिलों के अलावा कई पंक्चर दिल भी चुनाव परिणाम वाले दिन सहजता से  अपने आसपास दिखाई देने लगते हैं... 


ब्रजेश कानूनगो


Friday, October 16, 2020

'दिशा जंगल' की दशा और दिशा

दिशा जंगल' की दशा और दिशा

उस दिन साधुरामजी आए तो बड़े खिन्न लग रहे थे। वैसे यह कोई नई बात नहीं थी 'खिन्न' रहना उनके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा है।

दरअसल वे स्वच्छता अभियान के तहत गाँवों में बनाए गए शौचालयों के कुछ चित्र फेसबुक पर देखकर व्यथित थे। कहने लगे-'एक अच्छी योजना में थोड़ी बहुत गड़बड़ी को भी लोग मुद्दा बनाकर मखौल उड़ाने लगते हैं!'

'ऐसा क्या हो गया साधुरामजी?' मैंने पूछ लिया ताकि वे अपने भीतर का गुबार निकालकर थोड़ा हल्के हो जाएं।

'ये देखिये, इस शौचालय में किसी ने पान, बीड़ी की दुकान सजा ली है, और यह दूसरे में देखिए टॉयलेट की सीट के बीच से एक पपीते का पेड़ निकल आया है!'  साधुरामजी ने मोबाइल स्क्रीन मेरे आगे कर दिया।

'यह तो मैं पहले ही देख चुका हूँ साधुरामजी। पपीते का पेड़ तो शायद इस लिए उग आया होगा कि किसी ने खाते वक्त बीज निगल लिया होगा।'मैंने चुहुल की। मैं जानता था कि यह सब फोटोशॉप का करिश्मा भी हो सकता था। पर शौचालय में दुकान सजाने में कुछ सच्चाई जरूर नजर आई।

'तुम्हे मजाक सूझ रहा पर ऐसी बातों से हमारी अच्छी योजनाओं की बदनामी होती है।' साधुरामजी बोले।

'काहे कि बदनामी! जब भविष्य में आज की सभ्यता का मूल्यांकन होगा तब इन सब चीजों से इतिहासकारों को मदद मिलेगी। सत्य के करीब होगा इतिहास लेखन।'

'तुम खुराफाती हो, मजे लेने से बाज नहीं आओगे!' वे नाराज होकर मेरे घर से वॉक आउट कर गए किन्तु मुझे  'शौचालयों की  दशा और दिशा' पर चिंतन करने को विवश कर गए।

मुझे याद आया दादा कोंडके की एक फिल्म का वह दृश्य जिसमें एक विदेशी सैलानी ऊँट पर बैठकर भारत के गांव का भ्रमण करता है जब वह एक गाँव के सामने से गुजरता है तब जिज्ञासा से पूछता है - 'क्या या गांव का टॉयलेट है?' तब दादा उसे निर्विकार बताते हैं 'नहीं यह शौचालय नहीं है यह हमारे गांव का प्राथमिक स्कूल है।'  विदेशी सैलानी की आंखें आंखें फटी रह जाती हैं।

एक और कहानी याद आती है जिसमें उस समय की एक परंपरा का बहुत रोचक वर्णन करते हुए कथाकार ने एक गांव में आई बारात और उसके सत्कार का चित्रण किया था। उस काल में जितने दिन बाराती गांव में रहते लगता कोई उत्सव चल रहा हो। ढोल और बैंड बाजों के शोर से वातावरण कई दिनों तक लोक संगीत में डूबा रहता था। सुबह-सुबह बारातियों को शौच के लिए दिशा मैदान व स्नान आदि के लिए नदी किनारे ढोल नगाड़ों के साथ ले जाया जाता था। धरती की गोद में शीतल पवन के झौकों और विभिन्न वनस्पतियों की दिलकश सुगंध के बीच लोगों के नित्य कर्म निपटते थे। यह भी तत्कालीन टॉयलेट का एक प्राकृतिक स्वरूप होता था।

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो तत्कालीन सभ्यता के अवशेष मिले थे, उनमें स्नानागार की पुष्टि तो होती है किंतु मनुष्य के निवृत्त होने की क्या व्यवस्था रही होगी, इसके बारे में जानकारी अधिक स्पष्ट नही है।

हां, आधुनिक भारत में बड़े लोगों के बाथरूम में बड़ी बड़ी तिजोरियों में बड़े-बड़े नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डियाँ मिलने के सबूत खुफिया एजेंसियों की फाइलों में मिल जाते हैं। कहना सिर्फ इतना है  कि शौचालयों के बारे में प्राचीन काल से संदर्भ मिले न मिले, आधुनिक भारत के अधिकांश संदर्भ यहीं से मिलते हैं। वर्तमान में इनके बारे में प्रत्येक मनुष्य में जिज्ञासा सदा से बनी रही है। हम अधिक से अधिक जानना चाहते हैं टॉयलटों के बारे में। हमारे ही नहीं हम दूसरों के टॉयलेट का रहस्य जानने के लिए भी लालायित बने रहते हैं। उसका टॉयलेट मेरे टॉयलेट से बेहतर क्यों? 

खेतों की बागड़ और रेल पटरियों के किनारों  के अलावा भी टॉयलेट की बहुमूल्य, बहुरंगी व  खूबसूरत दुनिया होती है। चिंतकों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों आदि के जीवन में तो शौचालय का महत्व बहुत अधिक होता है। टॉयलेट वह स्थान है जहां हम अपने विचारों का शोधन करते हुए असीम शांति को महसूस कर सकते हैं। जहां बैठकर देश दुनिया के बारे में सार्थक चिंतन किया जा सकता है। इसलिए अपने घरों में टॉयलेट बनवाइए और कृपया उसमें दुकान मत सजाइये। उसमें पेड़ मत उगाइये।

ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, October 6, 2020

श्री' का यूनिट पॉवर

'श्री' का यूनिट पॉवर

साधुरामजी को मैंने छेडते हुए कहा-‘श्रीमान जी, जब कोई व्यक्ति अपराध करता है तो क्यों न उसके सम्मान सूचक विशेषण वापिस ले लिए जाना चाहिए?’ जैसे वह अपने नाम के आगे ‘डॉ’ लगाता हो या योगाचार्य, स्वामी, आचार्य जैसे किसी आदरणीय पदनाम को धारित करता हो, उसे तुरंत विलोपित कर दिया जाना चाहिए.’ 

‘यह भी कोई बात हुई भला! कल से मैंने कोई गलती कर दी तो तुम कहोगे मैं अपने नाम के आगे इकलौता  ‘श्री’ भी न लगाऊँ !’

‘हाँ, इसमें क्या बुराई है, जानते नहीं एक आतंकी को ‘श्री’ कह देने से देश में कितना बवाल हो गया था.’ मैंने कहा.

‘तो क्या हुआ, हम अपने संस्कार भूल जाँए? बुरे काम से घृणा करने की परम्परा रही है हमारे यहाँ, अपराधी भी एक मनुष्य होता है. सम्बोधन में उसके लिए भी ‘श्री’ का प्रयोग करना गलत नही कहा जा सकता।’

‘लेकिन जो व्यक्ति गलत काम करता है उसे ‘श्री’ कैसे कहा जा सकता है?’ मैने उनसे असहमत होते हुए पूछ लिया।

‘जो भी हो, अपराधी को उसके कर्म के लिए दंडित किया जा सकता है, एक हमनस्ल प्राणी के तौर पर हर मनुष्य को मर्यादित सम्बोधन ही किया जाना चाहिए। यही हमारी गौरवशाली परम्परा भी रही है. रावण और कंस सहित अनेक खलनायकों को सम्मान दिया जाता रहा है हमारे यहाँ.’

साधुरामजी अपने कथ्य पर अडिग थे, उनके तर्क में भी काफी दम दिखाई दे रहा था फिर भी मैने जिज्ञासा जाहिर करते हुए उनसे पूछा- ‘जब आप साधु और शैतान में कोई भेद नही करेंगे तो कैसे पता चलेगा कि कौन सज्जन और चरित्रवान है और कौन धूर्त और पाखंडी या चालबाज? सब के सब ‘श्री’, फिर तो सब एक ही तराजू में एक ही वजन में तुलते रहेंगे? यह तो बडी ना-इंसाफी है हुजूर. यह न करें तो क्या करें,अब आप ही बताइये कुछ.’

साधुरामजी ने किसी दार्शनिक की तरह आसमान की ओर निहारा और पंडित जवाहर लाल नेहरू की तरह दाहिने हाथ की तर्जनी ठोडी पर टिकाते कहने लगे-‘तुम्हे याद होगा बडे-बडे संत महात्माओं के आगे 108 श्री, 1008 श्री लगाने की परम्परा हमारे यहाँ रही है। यही हमारी सभ्यता है। पांच हजार साल पुरानी हमारी सभ्यता को कैसे भुलाया जा सकता है। इसी तरह आधार नंबर की तर्ज पर  प्रत्येक व्यक्ति के आँकडों और सर्वे के अनुसार जनगणना के वक्त ही उसका व्यक्तिगत ‘श्री’  युनिट पॉवर निधारित कर दिया जाए। बाद में उसके नाम के साथ उतने ही 'श्री' का प्रयोग करना शायद अधिक तर्क संगत रहेगा।’ मैं साधुरामजी का चेहरा तकता रह गया।

ब्रजेश कानूनगो

Thursday, September 10, 2020

माई री मैं कापे लिखूँ..!

 माई री मैं कापे लिखूँ..! 


उसने अपने घर की सारी खिड़कियां खोल रखी थीं। हवा का प्रवेश कमरे में भरपूर हो रहा था, फिर भी बेचैनी जैसे कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक द्वंद्व सा छिड़ा हुआ था मन के भीतर। घर की खिड़कियों के अलावा उसने अपने लैपटॉप में भी बहुत सारी 'विंडोज' ओपन कर रखी थीं। कुछ में अखबारों के 'ई संस्करण' एक में फेसबुक और एक में नया डॉक्यूमेंट खुला हुआ था, जिस पर वह कभी कुछ टाइप करता तो कभी  तुरंत डिलीट भी कर देता था। 


ऐसी स्थितियां अक्सर उसके सामने आती रहती थीं। विशेषकर तब जब एक साथ दो तीन ऐसे सामयिक विषय सामने होते थे जिन पर वह अपनी 'उलटबांसी' लिख देना चाहता है। अखबारों के संपादकीय पेज पर ऐसी 'तिरछी नजरों' और 'चुटकियों' की बड़ी मांग जो निकल आई है इन दिनों।  

परेशानी तब होती है जब व्यंग्यकार के सामने 'सरकारी तोता' और 'राजनीतिक कौआ'  एक साथ चले आते हैं।  जरूरी नहीं कि तोते या कौआ  के आने से कोई ज्यादा कष्ट है,  'हाथी' और 'हिरन'  भी आ सकते हैं। यह तो उदाहरण मात्र है। 

अब  'तोते' पर तीर चलाएं या 'हिरण' का शिकार करें। हाल यह हो जाता है कि थोड़ी ही देर में देशभर के व्यंग्यकार शिकारी 'तोते' की पसलियां और 'हिरण' का हृदय निकालकर संपादक के पास पहुंचा देते हैं। 

वह जमाना तो रहा नहीं कि पहले लिखेंगे फिर टाइप करवाएंगे फिर लिफाफा बनाकर डाकघर के हवाले करेंगे। अब यदि वे ऐसा करेंगे तो वही होगा जो रामाजी के साथ हुआ था। लोग कहेंगे ही 'रामाजी रईगिया ने रेल जाती री…!'  इसलिए वे सबसे पहले रेल में चढ़ना चाहते हैं। 


अभी हिरण और तोते से निपटने ही हैं कि 'अभिनेता' और 'जानेमन' आ खड़े होते हैं... कहते हैं, 'लो हम आ गए, अब हम पर लिखो!'  व्यंग्यकार बड़ा परेशान है... 'माई री मैं कापे लिखूँ...मेरे 'जिया' में सब कुछ बड़ा 'अशांत'।'  


बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है स्तंभकार के सामने। किस पर लिखे, बल्कि पहले किस पर लिखे। 'अभिनेता' पर भी बहुत मसाला तैयार और 'जानेमन' भी 'बयान'  देने को तत्पर। अब यदि अभिनेता पर लिखने बैठते हैं और इस बीच जयपुर का कोई जांबाज या इंदौर के कोई भियाजी  अपना ईमेल पहले सेंड कर देते हैं तो फिर उनके आलेख का क्या होगा। आप जरा समझिये व्यंग्यकार की इस परेशानी को।  


ऐसा कहानीकार या कवि के साथ कभी नहीं होता। कहानीकार किसी भक्तन और बाबाजी की प्रेमकथा तत्काल लिखने की हड़बड़ी में नहीं होता। बाबाजी की कारावास समाधि यात्रा पर जाने और भक्तन के बॉलीवुड में वापस लौट आने तक वह लिखने की प्रतीक्षा कर सकता है। कवि चाहे जब 'चिड़िया' या 'पत्थर की घट्टी'  पर कविता लिख सकता है। चिड़िया के दुनिया से विलुप्त होने के बाद और पत्थर की घट्टी के पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के बाद भी वह कभी भी उसकी याद में गीत गा सकता है। अखबारी व्यंग्यकार के पास यह अवसर नहीं है। यहां तो बड़ी हड़बड़ी का माहौल बना हुआ है। उसे तो अभी का अभी डिस्पैच करना है, वरना कोई और अपना माल खपा देगा। यह कितना अन्याय है इस बेचारे लेखक के साथ। इतनी मेहनत और लेखन के बावजूद उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो पा रहा। कुछ उदार हृदय संपादक उसके लिखे पर थोड़ा बहुत पत्रं पुष्पं दे भी देते हैं, मगर ज्यादातर तो रचना प्रकाशित करके वाया कतरन साझा उसका सम्मान फेसबुक दोस्तों में बढ़ाने का पुनीत कार्य करते हैं। यह भी क्या कम है। इस तरह साहित्य के लिए उनका जो योगदान बना हुआ है इसके लिए तो लेखक को कृतज्ञ होना चाहिए। 


बहरहाल, अखबारी व्यंग्य लेखक की अपनी परेशानियां होती हैं,  जिन का सामना उसे खुद ही करना होता है। और वह करता भी है।  देश भर के अखबारों के हृदय स्थल में जनरुचि के मुद्दों पर रोज प्रतिक्रिया देना कोई आसान काम भी नहीं है। इनका जुझारूपन प्रणम्य है। नमन करने योग्य है। इस जीव को हम प्रणाम करते हैं। 


ब्रजेश कानूनगो 

Tuesday, September 8, 2020

योगासन से जनासन तक

 योगासन से  जनासन तक 


साधुरामजी की नजर जब मेरे बढ़ते हुए पेट की ओर गई तो बरबस उनका सींकिया शरीर कांप गया। थोड़ा झल्लाकर बोले- 'यह क्या हो रहा है भाई! सारी बीमारियों की जड़ है यह मोटापा, कम करिए जरा अपनी तोंद को, इसे कम करने के लिए कोई लोकपाल नहीं आने वाला है।' 


मैं थोड़ा झेंप सा गया, बोला- 'अब मैं क्या करूं साधुरामजी बढ़ती उम्र में यह सब होता ही है और मेरे पिताजी की भी ऐसी ही तोंद निकली हुई थी, खानदानी पहचान है'। मैंने अपनी झेंप छिपाते हुए स्स्पष्टीकरण दिया तो मेरे पेट पर एक हल्की सी धौल जमाते हुए वे बोले- 'सुबह सुबह आ जाया करो मेरे घर, मैं नित्य योगासन करता हूं, तुम भी करना, सब मोटापा छट जाएगा।'  


साधुरामजी का आदेश मेरे लिए पार्टी हाईकमान के आदेश की तरह ही होता है। मैं दूसरे दिन तड़के उनकी घर की छत पर पहुंचा तो वे सूर्य नमस्कार की कुछ क्रियाएं करने में लगे हुए थे। 

उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा-'करो तुम भी करो।'  मैंने टाल दिया-'आज तबीयत ठीक नहीं है, कल से करूंगा।'  

मैं जानता था कल कभी नहीं आता और इस प्रकार योगासन से मैं सहज रूप से बच भी सकता हूं।  


विषय को दूसरी दिशा देने के उद्देश्य से मैंने साधुरामजी से पूछ लिया-'यह तो ठीक है साधुरामजी कि योगासन से हमारा शरीर स्वस्थ हो जाता है, बीमारियां दूर होती हैं, पर क्या ऐसा कोई आसन भी है जिससे हमारे समाज का स्वास्थ्य सुधर पाता हो, व्यवस्था की बीमारियां समाप्त हो जाती हों।'  

'क्यों मजाक करते हो, ऐसे भी कोई अटपटे आसन हो सकते हैं।' साधुरामजी योगासन लगाना छोड़ कर मेरे पास आसन पर आकर बैठ गए।

'हां हो सकते हैं ऐसे आसन भी। राजनीतिक लोग और सरकारें बहुत पहले से 'आश्वासन'  का प्रयोग करती रही हैं, मान्यता है कि हर समस्या 'आश्वासन' के जरिए हल हो जाती है।  सरकार की सेहत में इस आसन का बड़ा महत्व रहा है। जो नेता जितनी अच्छी तरह से यह आसन लगाने में सफल होता है उसका राजनीतिक स्वास्थ्य लंबे समय तक ठीक बना रहता है।'

साधुरामजी भी शायद अब मूड में आ गए थे तो मजे लेते हुए बोले- 'लेकिन जनता बेचारी को क्या फर्क पड़ता है, असल में उसकी समस्या तो जस की तस बनी रहती है।' 

'ऐसा नहीं है साधुरामजी, लोगों ने खुद अपना गलत आसन चुन रखा था।  वर्षों तक उन्होंने इसी आसन की मदद से अपनी सेहत बनाए रखने का भ्रम बनाए रखा। किसी भी प्रकार का अच्छा बुरा उन पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ता था। उनका मानना था कि यही मूकासन उनकी सहायता करता है। चिंता चिता समान होती है इस आसन का सूत्र है। साधक समझता रहा की चिंता से दूरी बनाए रखकर अपने स्वास्थ्य की क्षति को रोक पा रहा है।' मैंने कहा।

'लेकिन अब तो यह संभव नहीं रह गया है चुप रहकर समस्याएं हल नहीं हो सकती। व्यवस्था की बीमारी इतनी बढ़ चुकी है कि इस कठिन समय में आश्वासन और मूकासन जैसे आसन निष्फल दिखाई दे रहे हैं।' साधुरामजी ने चिंता व्यक्त की।


'बात तो ठीक है आपकी साधुरामजी लेकिन समय और परिस्थितियाँ ही इसका रास्ता भी दिखाते हैं। अब देखिए एक और भी आसान है 'धरनासन'। यह आसान भी बड़ा कमाल का है। असर करता है। इसका प्रयोग भी हर कोई अपनी बात मनवाने और मुद्दे पर ध्यानाकर्षण हेतु कर सकता है। पहले कभी सरकार के विरोध में विपक्ष और जनता धरनासन  लगाकर उसे जगाने का प्रयास किया करते थे लेकिन अब तो कई सरकारें खुद भी यह आसान लगाते दिखाई देने लगी हैं।और यह इतना है कारगर है कि आम और खास आदमी से लेकर बड़े-बड़े नेता समाजसेवी योग गुरु तक इस आसन के कायल हो रहे हैं।' मैंने कहा तो साधुरामजी ठहाका मारकर बोले- 'वाह! क्या बात है! अब तो समझो व्यवस्था के सारे विकारों के 'शवासन'  में चले जाने के प्रबल योग बन रहे हैं।


ब्रजेश कानूनगो

हवाईअड्डे की हड्डियाँ

 हवाईअड्डे की हड्डियाँ


बचपन के वे दिन अक्सर याद आते हैं जब हम स्कूल में छुट्टी की घंटी बजने के बाद अपनी कॉपियों से पन्ने निकालकर हवाईजहाज बना-बना कर छत से उन्हे उडाया करते थे। जब तक वह हवा में बना रहता हम रोमांच से भरे होते थे। जब कभी वह नीम के पेड़ पर अटक जाता हमारी सांसे भी जैसे अटक जाती थीं। नीचे मैदान में पानी के नल के पास जो कुछ फर्शियाँ जडीं थीं, वही हमारा एयरपोर्ट होता था। हर बच्चा इसी कोशिश में निशाना साधता था कि हवाई जहाज ठीक हवाईअड्डे पर ही उतरे,लेकिन अक्सर ऐसा होता नही था,कागज का प्लेन कहीं भी अपनी मर्जी से लेंड कर लिया करता था। बाद में आकाश में चीलगाडियों को देखते रहे।


हवाईजहाजों और विमानन को लेकर हमारे मन में जिज्ञासा और रोमांच का भाव बराबर बना रहा है। दादाजी भी अक्सर गर्मियों में छत पर तारों को निहारते हुए कहानियाँ सुनाते थे। उन्होने ही सबसे पहले बताया था कि जब श्रीराम लंका विजय करके अयोध्या लौटे तब वे आकाश मार्ग से यात्रा करते हुए आए थे। इस यात्रा के लिए उन्होने पुष्पक विमान का उपयोग किया था। जाहिर है उनका विमान लंका से उड़ा होगा और अयोध्या में उसने लेंड किया होगा। यह तो हर कोई जानता है कि विमान को उड़ने और लेंड करने के लिए एक हवाईअड्डा होना बहुत जरूरी है।


जहाँ तक मेरी जानकारी है अयोध्या के इतिहास में किसी प्राचीन एयरपोर्ट के अवशेष मिलने की कोई सूचना नही है लेकिन उधर श्रीलंका से खबर आई थी कि वहां की रामायण रिसर्च कमेटी ने शोध किया है कि उस जमाने में रावण के अपने हवाईअड्डे थे। एक नही बल्कि वह चार-चार हवाईअड्डों का मालिक था। सम्भव है श्रीराम के विमान ने रावण के उन्ही में से किसी एक हवाईअड्डे से उडान भरी होगी। अब यह भी एक प्रश्न है कि अयोध्या में वह उतरा कहाँ होगा ? जिज्ञासा वाजिब है। इसका पता अवश्य लगाना चाहिए हमारे इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को। श्रीलंका के शोधकर्ताओं से हम कोई कम तो हैं नही। जब हम राम के वनगमन मार्ग और उनके यात्रा के पडावों को खोज सकें हैं तो यह भी मुश्किल नही है कि हम उस स्थान का पता न लगा सकें जहाँ अयोध्यावासियों ने विमान की सीढियों से उतरते प्रसन्नचित राम,जानकी और लक्ष्मण की ओर हाथ हिला-हिलाकर उनका जोरदार स्वागत किया होगा। निश्चित ही दीवाली तो इसके बाद ही मनाई होगी सबने।


एक बात और जो कुलबुला रही है भीतर, वह यह है कि रावण तो राजा था वहाँ का और अगर हवाईअड्डे उसके खुद के थे तो निश्चित ही वे सरकारी हुए। सरकारी संस्थाओं की तत्कालीन स्थितियाँ क्या उस वक्त आज की तरह उतार पर रही होंगी जिसके कारण कालांतर में इस भूखंड से विमानन लुप्त हो गया। इसीतरह यदि हिन्दुस्तान के अयोध्या के बारे में विचार करें कि अगर यहाँ हवाईअड्डा रहा होगा तो बाद में वह किस गति को प्राप्त हो गया। यहाँ के विमानपत्तनम के पतन के पीछे क्या कारण रहे होंगे? क्या राजकीय एयरलाइंस का निजीकरण किया गया था या फिर बढते घाटे से परेशान होकर सम्राट ने अनुबन्धित सेवाओं के नाम पर उस जमाने के व्यापारियों ,सौदागरों को इसका संचालन सोंप दिया था। हो सकता है बाद में संचालकों द्वारा भस्मासुरी सेवाएँ जारी रखने के लिए कर्ज तथा अन्य सुविधाएँ मांगने पर सम्राट ने अपने हाथ खींच लिए हों। शायद इस तरह हमारी प्राचीन विमानन सेवाएँ तहस-नहस होकर इतिहास का हिस्सा बन गई होंगी। समय की गर्त में दबे इसी इतिहास की खोज होना चाहिए। 


अयोध्या में निश्चित ही त्रेता युग के विमानतल के अवशेष मिलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। 


ब्रजेश कानूनगो



Sunday, September 6, 2020

एक कुत्ते की मौत

एक कुत्ते की मौत


अक्सर वीकेंड पर साधुरामजी और मैं लांग ड्राइव के लिए निकल जाते हैं। इससे मेरी पुरानी कार भी हमारे साथ थोड़ी सी ताजगी प्राप्त कर लेती है।

घर से थोड़ी दूर ही पहुंचे होंगे कि एक पिल्ले ने मेरी कार के सामने आकर खुदकुशी करने का विचार बनाया। मैं कह नहीं सकता किस वजह से उसने मेरी ही कार को आत्महत्या का माध्यम बनाया होगा।

'कुत्ता कहीं का, इसे मेरी ही कार मिली मरने के लिए!'  घबराहट में मेरे मुंह से उस के लिए कुत्ते की ही गाली निकली। मुझे गुस्से के साथ साथ एतराज भी था कि वह इंसानों के लिए बनाई गई सड़क पर आया ही क्यों!' 

'तुम्हारा मतलब है कि जब कुत्ते के पिल्ले कोई सडक पार करें तब उन्हे इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह उनके बाप दादा की जागीर नही है कि यहाँ वहाँ ताकते हुए उस पर आराम से चहल कदमी करते फिरें। सडक सरकार की होती है, यह सरकार की मर्जी पर है कि उस पर भ्रमण करने की इजाजत वह किसे दे और किसे नही दे। कुत्ते और अन्य प्राणियों के पिल्ले कोई टैक्स नही चुकाते कि वे भी उसका उपयोग करें और फ्री-फोकट में हमारी गाडियों के सामने आकर हमारी जान को मुसीबत में डालें।' साधुरामजी चुहुल के मूड में आकर मजे लेने लगे।

'और नहीं तो क्या! न कुत्ते का बच्चा सडक का साझेदार बनने की कोशिश करता न वह हमारी गाडी के रास्ते में रुकावट बन पाता।  स्वयं की गलती का खामियाजा तो उसको भुगतना ही पडेगा साधुरामजी।'  अब थोड़ा मूड मेरा भी बनने लगा था।

'जब हम बडे आराम से कैलाश खैर के सूफियाना प्रेम गीतों के रस में सराबोर होते हुए सफर का मजा ले रहे थे कि साले इस कम्बख्त कुत्ते के पिल्ले ने सारा मजा किरकिरा करके रख दिया। यह तो अच्छा हुआ कि सामने कुत्ते का पिल्ला ही आया, खुदा ना खास्ता कोई आदमी का बच्चा आ गया होता तो.. हमारी तो सारी दबंगई निकल गई होती।' साधुरामजी पूरे फॉर्म में आ गए।

हम कहां पीछे रहने वाले थे थोड़े दार्शनिक अंदाज में कहने लगे-'यों देखा जाए तो यह बात केवल डामर और सीमेंट से बनाई गई सडकों तक ही सीमित नही है मित्र, जहाँ अनाधिकृत जीवों का आना-जाना बना रहता है...देश में कई प्रकार की अन्य सडकें भी हैं और उन पर कई प्रकार की गाडियां दौड लगा रहीं हैं।'
'जैसे? जरा स्पष्ट तो करो...' साधुरामजी ने मेरी तरफ ताकते हुए कहा।

'मसलन राजनीति को ही लें। यह भी एक सडक ही है। अनेक पार्टियाँ अपनी अपनी विचारधाराओं के रंगों और रणनीति की विभिन्न तकनीकों से लेस हो कर सत्ता प्राप्ति का महान लक्ष्य लिए प्रजातंत्र की सडक पर दौड लगा रही हैं। अब इस दौड में यदि कोई अवांछित आपके राजनीतिक हितों की राह में आकर बाधक बन जाए तो उसका तो कुत्ते के बच्चे की तरह कुचल जाना निश्चित ही है।' मैंने साधुरामजी की कमजोर नस को दबाया।

'तो भैया, इस बात को तो अब यहीं खत्म करो और जरा इन बेलगाम पिल्लों पर अंकुश लगाने का उपाय करो वरना ये इसी तरह हमारी खुशनुमा राह में आकर हमें मुश्किल में डालते रहेंगे।' कहते हुए साधुरामजी ने प्रसंग का लगभग पटाक्षेप ही कर दिया।

ब्रजेश कानूनगो











 

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम

समय के दर्द पर किस्सों का मरहम


सदियों से हमारे यहाँ कहानियाँ सुनाई जाती रहीं हैं और लोग सुनते भी रहे हैं। कहानी सुनने सुनाने की परम्परा नई नही है। गुजरात की कहानी सुनाने से पहले बच्चन साहब बच्चों को शेर की कहानी बडे रोमांचक अन्दाज में सुनाते थे। कहानी सुनने-सुनाने में इसी दिलचस्पी का लाभ उन कथावाचकों ने भरपूर उठाया है जो अपनी दवाओं और ताबीजों की बिक्री के लिए टीवी के चैनलों पर लगातार कथा किया करते हैं। लेकिन यहाँ मैं उन कहानियों की बात कर रहा हूँ जो हमारे दादा-दादी सुनाया करते थे। किस्सागोई की यह प्राचीन परंपरा लुप्तप्राय सी हो गई है।लेकिन इसका बने रहना बहुत जरूरी है।

फिल्म इतिहास के शोले काल में भी बच्चा जब रात को रोता था तब माँ उसे गब्बर सिंह की कहानी सुनाया करती थी। बच्चा परेशान कर रहा हो, जिद कर रहा हो, शोर किए जा रहा हो तब उस वक्त उसे शांत करने का सफल फार्मूला यह हुआ करता है कि जिद्दी बच्चे को कहानियाँ सुनाना शुरू कर दो। कहानियों में बडी क्षमता होती है। बच्चा अपनी जिद छोडकर कहानी में रम जाता है। जिस वस्तु के लिए वह माँग कर रहा होता है, उस वस्तु को ही भुला बैठता है। कहानी की इसी ताकत को जिसने पहचान लिया समझो बेबात के झंझट से उसने सहज मुक्ति पा ली।

एक कहानी है-  गरीब बालक को ठंड लग रही थी तो वह माँ से शिकायत करता है कि माँ  मुझे ठंड लग रही है। माँ लकडी जलाकर उसकी सर्दी दूर कर देती है। बालक ठंड को भूल जाता है लेकिन भूख लगने की बात करने लगता है। इस पर विवश माँ जलती लकडियों की तपन से उसे थोडी दूर ले जाती है। बच्चा भूख को भूलकर फिर ठंड की शिकायत करने लगता है। आखिर माँ को कहानी का ही सहारा लेना पडता है, वह बच्चे को तोहफे लुटाने वाली परियों की कहानी सुनाने लगती है। बच्चा धीरे धीरे स्वप्न लोक की सैर करने लगता है। माँ भी शांति से अपनी नींद पूरी कर लेती है। 

कभी-कभी जिद और आक्रोश की तीव्रता इतनी अधिक बढ जाती है कि कहानी सुनाना उतना असरकारी नही हो पाता। समस्या जस की तस बनी रहती है। तब कहानी का उन्नत स्वरूप आजमाया जा सकता है। नाटक और नौटंकी इसी कार्य को और बेहतर ढंग से कर पाते हैं। नौटंकियों, रामलीलाओं आदि के जरिए भी लोग अपने दुख, परेशानियों को भुलाने का प्रयास करते आए हैं। आज के समय में टीवी के अनेक धारावाहिकों और कार्यक्रमों ने भी यह काम बखूबी किया है। जब देशवासी परेशान हों, महंगाई ,बेरोजगारी जैसी समस्याओं से दुखी हों तब टीवी माध्यम का विवेकपूर्ण(?) उपयोग जनता को राहत प्रदान कर सकता है। सुन्दर और उल्लास से परिपूर्ण इवेंटों का प्रबन्धन या जहाँ कहीं कोई नौटंकी या नाटक चल रहा हो उनका सीधा प्रसारण जनता के हित में एक बुद्धिमतापूर्ण कदम होगा। अंतत: हमारा उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि लोग खुश रहें। कहानियाँ सुनों, नौटंकिया देखो, नाचो-गाओ-धूम मचाओ, छोडो भी ये फिजूल की चिंता कि इलाज और दवाइयाँ क्यों महंगी हो रहीं हैं। पेट्रोल,डीजल के दाम पर्वतारोहण क्यों कर रहे हैं।उच्च शिक्षित बेरोजगार युवा कुरियर  या पिज्जा डिलीवरी बॉय क्यों बना हुआ है।

किस्सागोई की प्राचीन व उपयोगी परंपरा अब लुप्तप्राय  हो गई है। इसका बने रहना बहुत जरूरी है। रोचक किस्से वर्तमान के घावों की तरफ ध्यान जाने से हमें रोकते है और दर्द के अहसास को कम करते हैं।
मजे लेकर खूब सुनें और सुनाइए एक दूसरे को दिलचस्प किस्से,कहानियां। परिवार,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कला को गंभीरता से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए...!

ब्रजेश कानूनगो


 

गुस्से का प्रकटीकरण

गुस्से का प्रकटीकरण

 

प्राचीन काल में राजा-महाराजा बडे दूरदर्शी हुआ करते थे। वे अपने प्रासादों और महलों में सारी भौतिक सुख सुविधाओं के साथ एक कोप भवन भी बनवाया करते थे। रानी के मन के आकाश में  जब नाराजी का सूरज चढने लगता और वे कोप गति को प्राप्त होनें लगतीं वे रनिवास की बजाए तुरंत कोप भवन की ओर प्रस्थान कर जाती थीं। महाराजा को जब अपने सेवकों से ज्ञात होता कि रानी साहिबा कोप भवन पधारीं हैं तो वे पूरी सावधानी और तैयारी के साथ कोप भवन की ओर कूच कर जाया करते थे। किसी को कानों कान खबर नहीं पड़ती थी कि राजमहल में कोई आतंरिक भूचाल आया है।  अब तो हालात यह हैं कि आपने जरा सा गुस्सा किया तो पूरी दुनिया को पता चल जाता है।

 

देह भाषा से भी पहले यह पता लगाना बडा मुश्किल हो जाता था कि हुजूर या बेगम  कुपित हैं। नाराजी का नारियल सबके समक्ष नही फोडा जाता था। बडी मुश्किल से गुप्तचरों  से खबर लगती थी कि फलाँ व्यक्ति ने रूठकर या गुस्से में खाना पीना छोड रखा है।

वर्त्तमान दौर में अब सहज प्रकटीकरण के साधनों की उपलब्धता के कारण गुस्से की सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ होने लगी हैं। अपने हितों को साधने के लिए कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। ऐसे कई सार्थक प्रसंग भी हमारी स्मृति की धरोहर बने हैं। भरी सभा में क्रोध प्रकट करते हुए शीर्ष नेता या प्रमुख को केमेरे के सामने जलील करते हुए बहिर्गमन करके अपना अलग गुट बनाया जा सकता है। जन सभा में कुर्ते की बाँहें चढाकर किसी कागज को चिन्दी-चिन्दी करके भी क्रोध की अभिव्यक्ति की जा सकती है। चलते टीवी साक्षात्कार में माइक छीनकर या संवाददाता के सवालों पर लम्बी चुप्पी से भी भीतर का गुस्सा सार्वजनिक हो जाता है। पार्टी या सरकार में महत्वपूर्ण पद की आकांक्षा को मूर्त रूप देने के सन्दर्भ में भी अपनी नाराजी के सार्वजनिक इजहार से अपनी स्थिति को मजबूत बनाया जा सकता है।

 

यद्यपि गुस्से को पी जाने का सटीक फार्मूला हमारे संत महात्मा बहुत पहले से बता गए हैं लेकिन अब ऐसा सम्भव नही रह गया है, क्योंकि पीने के लिए अब बहुत सी चीजें उपलब्ध हैं।  गुस्सा पीना पिछडा हुआ और अप्रासंगिक तरीका रह गया है। वैसे भी नाराजी और गुस्से को दबा कर चेहरे पर मुस्कुराहट बनाए रखने का अब पहले जैसा अभ्यास भी नही रह गया है, दूसरी ओर अब किसी के गुस्से को ताड़ लेने के साधन और नई कलाओं ने भी इन दिनों काफी प्रगति कर ली है। आपका जरा सा गुस्सा भी छुपता नही बल्कि तुरंत सार्वजनिक हो जाता है। सार्वजनिक रूप से बोले गए चन्द शब्दों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से प्रखर विशेषज्ञ तुरंत पता लगा लेते हैं कि बन्दे की नाराजी की तीव्रता और उसकी असली वजह क्या है।

आम मान्यता है कि गुस्सा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है लेकिन देश के स्वास्थ्य की खातिर जब मतदाता अपने गुस्से का प्रकटीकरण करते हैं तो सत्ता के समीकरण बदल दिया करते हैं। ईवीएम के बटन पर मतदाता की उंगली भले ही हल्के से पडती है लेकिन उसके गुस्से की गूँज  बरसों तक राजनीति की हवाओं में तैरती रहती हैं।


ब्रजेश कानूनगो


 

 

Saturday, September 5, 2020

गले न मिल पाने का दुःख

गले न मिल पाने का दुःख

साधुरामजी जब भी मिलते हैं पूरे जोश से मिलते हैं। उन्हें मिलते हुए देखकर सबको लगता है कि वे गले मिल रहे हैं। उनका गले मिलना किसी किसी को 'गले पड़ने' जैसा भी लग सकता है। लेकिन वे किसी मुसीबत की तरह गले नहीं पड़ते।  मुसीबत तो अब खुद साधुरामजी के सामने आ खड़ी हुई है जब कोरोना जैसा खतरनाक वायरस उन्हें सबसे गले मिलने से रोक रहा है।  दैहिक दूरी बनाए रखना जरूरी है। संकट की घड़ी है। किसी से गले मिलने से 'विषाणु'  के गले पड़ने की आशंका बन जाती है।

सब लोग साधुरामजी की तरह नहीं मिलते। मिलते तो हैं लेकिन नहीं भी मिलते। मिलकर भी कहीं और रहते हैं। देह यहाँ होती है मगर दिल कहीं और छोड़ आते हैं। जैसे शैतान का दिल दूर वीराने में स्थित किसी खंडहर में किसी पिंजरे में कैद होता था।
साधुरामजी शैतान नहीं हैं। अपना दिल साथ लेकर चलते हैं। इसलिए हमेशा गले मिलकर भी वे दिल से मिलते हैं।

इस समय सुरक्षित यह भी हो सकता है कि एक दूसरे का केवल चेहरा देखिए,नजरें मिलाइए और मुस्कुराहट उछालकर प्रेम प्रदर्शित करें। कहते हैं मुस्कुराहट संक्रामक होती है। जितना फॉरवर्ड करो वाट्सएप मेसेज की तरह फैलती जाती है किंतु दिक्कत यह है कि कोरोना इससे भी ज्यादा संक्रामक है। एक विषाणु आठ को संक्रमित करता है। इसलिए मुस्कुराहट का 'मीठाणु' वायरस कमजोर पड़ गया है। मुंह पर मास्क लगा है। 'बुलबुल' बेचारी कैद हो गई है सैयाद के पिंजरे में।

कहते हैं भगवान भी भाव के भूखे होते है। संकेतों में हमारी प्रार्थना से संतुष्ट हो जाते हैं। मनुष्य की भावनाओं को समझते हैं। सारी भौतिकता यहीं पृथ्वी लोक में रह जाती है, हमारी भावनाओं और निवेदनों की अदृश्य तरंगें सेटेलाइट सिग्नल की तरह तुरंत देवलोक पहुंचकर ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत हो जाती हैं।

इसी परंपरा से कोरोना काल में आभासी संकेतों ने हमारे लोक व्यवहार को सुगम कर दिया है।  मोबाइल फोन के बटनों को दबाते ही दुनिया आपके दरवाजे पर आ खड़ी होती है। पहले की तरह ही विपक्ष अपना विरोध प्रदर्शन कर सकता है। सरकार और सत्ता के समर्थन में जयकारे  लगाए जा सकते हैं। ऑन लाइन मुकदमें चल रहे हैं। छापे पड़ रहे हैं। फैसले लिए जा रहे हैं। सब कुछ हो रहा।

दैहिक दूरियां आभासी उपस्थितियों से पाट दी गईं हैं। हजारों किलोमीटर दूर की मुस्कुराहट डिजिटल संकेतों में बदलकर छह इंच दूर हमारे कम्प्यूटर या मोबाइल फोन स्क्रीन पर साकार हो रही है।

बस बेचारे साधुरामजी ही दुखी हैं। खुलकर सबसे गले नहीं मिल पाने से इन दिनों बहुत दुखी हैं किन्तु समय के सच को समझने को विवश हैं कि यह वक्त 'नमस्कार से चमत्कार' करने का है। यह क्या कम खुशी की बात है कि उनके दूर के नमस्कार में भी गले मिलने जैसी आत्मीय भावनाएं हमारे दिलों तक भली प्रकार पहुंच रहीं हैं।

ब्रजेश कानूनगो

Saturday, August 29, 2020

टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार

टीवी बहस में प्रवक्ता और उत्तेजना का कारोबार 

टीवी पर होने वाली बहसों के लाइव शो इन दिनों बडी समस्याएँ खडी कर रहे हैं।माइक और कैमेरा छोड़कर प्रवक्ताओं द्वारा एक दूसरे की कॉलर पकड़ते हुए तो कई बार साक्षात दर्शन हुए हैं परन्तु  कई बार इनमें जो गर्मागर्मी देखने को मिलती है उससे विचार आता है कि उत्तेजना में कहीं किसी प्रवक्ता की तबीयत ही खराब न हो जाए। 

नेताओं के बयानों को लेकर एक समाचार चैनल पर बडी जोरदार बहस चल रही थी। एक घंटे के उत्तेजक विमर्श के बाद एंकर का अंतिम जुमला बहुत दिलचस्प रहा। अपने ही कार्यक्रम की बहस और नेताओं के बयानों पर घटिया तर्कों से असंतुष्ट होते हुए उन्होने पेनल के एक गंजे विचारक को सम्बोधित करते हुए कहा...आप तो श्रीमान चाहते हुए भी अपने बाल नोच नही सकते लेकिन शो देख रहे दर्शक चाहें तो अपने बाल नोच सकते हैं।

ज्वलंत मुद्दों पर टीवी पर होनेवाली ज्यादातर बहसों में इन दिनों यही हो रहा है। चैनल के वफ़ादार एंकर जानते हैं कि होना-जाना कुछ नही है। चैनलों को तो अपना पेट भरना ही है। उन्हे तो ऐसी चुइंगमों की तलाश सदा बनी रहती है,जिसे वह चौबीसों घंटे चबाते रह सकें। संत हों, नेताजी हों, मंत्रीजी या पार्टी अध्यक्ष अथवा कोई राजनीतिक प्रवक्ता रहा हो, मीडिया की क्षुधा  को शांत करने की ये लोग भरपूर कोशिश करते रहते हैं।

जहाँ तक दर्शक या आम आदमी की बात है,वह तो हमेशा से भ्रमित बना रहा है। अपने-अपने पक्ष के समर्थन में जो तर्क या कुतर्क उसके सामने रखे जाते हैं वह लगभग सब से संतुष्ट होता दिखाई देता है। ‘न हम हारे ,न तुम जीते’ की तर्ज पर उसके मन में कोई मनवांछित धुन गूंजने लग जाती है।

किसी भी राजनीतिक पार्टी में परम्परागत रूप से दो तरह के लोगों का समावेश रहता आया है। कुछ नेता होते हैं और अधिकाँश को कार्यकर्ता माना जाता है। यह अलग बात है जब नेताजी को पार्टी हाईकमान उनके दायित्वों से किसी कारणवश मुक्त कर देता है तो वे पार्टी के स्वघोषित ‘सिपाही’ के रूप में पार्टी का हिस्सा बने रहते हैं। किन्तु यह केवल अपने आपको सांत्वना देना भर ही होता है। वस्तुतः पार्टी मार्केट में उनका सूचकांक उच्च शिखर से गिरता हुआ जमीन से आ मिलता है।

पार्टी का नेता जब कोई रास्ता दिखाता है तो सारे कार्यकर्ता उसका अनुगमन करने लगते हैं। यही उनका धर्म होता है। नेता जब कोई शंखनाद या उद्घोष करता है तो सभी कार्यकर्ता नगाड़े बजा ताल देकर उसे चहुँओर विस्तारित करने की कोशिश करते हैं।  नेता के मुख्य स्वर में कार्यकर्ताओं की संगत से पार्टी का राग मोहक बन उठता है। सदा से यही होता रहा है।

लेकिन जब से देश में इलेक्ट्रोनिक मीडिया का नव साम्राज्य स्थापित हुआ है, पुराने मानक बदलने लगे हैं। संघर्ष और आन्दोलन पहले की तरह जमीन पर नहीं दिखाई देते। अब टेलीविजन के स्क्रीन पर युद्ध होते हैं। जब प्रतिद्वंदी की किसी भी छवि या अर्जित सम्मान के शिखरों को ध्वस्त किया जाना आवश्यक हो जाता है तब इतिहास की गर्त में दबे सुप्त प्रसंगों के बमों को यहाँ  चिंगारी दिखाई जाती है. आग उगलते बयानों की धधकती मिसाइलें विरोधियों पर दागी जाती हैं। और तो और न्यायालयों में जाने से पहले ही विवादों को टीवी चैनलों की खौफनाक जिरह का सामना करना पड़ता है। सर्वज्ञानी एंकरों के चीखते सवालों का जवाब देना न तो किसी कार्यकर्ता के बस में होता है और न ही किसी ईमानदार नेता की प्रतिष्ठा के अनुकूल। ऐसे में इस नई परिस्थिति के मुकाबले के लिए एक नया चरित्र उभरकर सामने आया है, वह है- ‘पार्टी प्रवक्ता।’ असली सिपाही तो यही होता है जो पार्टी नेतृत्व और विचारधारा की रक्षा के लिए विपक्ष की धुंवाधार गोलीबारी के बीच भी अपनी बन्दूक चलाता लगातार डटा रहता है।

‘प्रवक्ता’ की भूमिका मीडिया आधारित राजनीति में इन दिनों बहुत अहम हो गयी है. इसका कहा ही आम लोगों तक पार्टी के कहे की तरह पहुंचता है. बहुत कुशल और प्रतिभावान के चयन के बावजूद इस प्राणी की स्थिति टीवी पर अक्सर बहुत ही नाजुक बनी रहती है। तर्क-कुतर्क के कई दांव पेंच आजमाते हुए यह लगातार अपने प्रतिद्वंदी को परास्त करने के उपक्रम में जुटा रहता है. बल्कि यों कहें इस जुझारू योद्धा को  चौतरफा आक्रमणों का मुकाबला अकेले ही करना होता है। टीवी बहस में उपस्थित विचारकों के प्रस्तुत तथ्यों, विरोधी प्रवक्ता द्वारा कब्र खोदती टिप्पणियों, सहयोगी दल की नासमझ अपेक्षाओं और महा ज्ञानी एंकर की स्पीड ब्रेकर चीखों के बीच संतुलित जवाब देना कितना कठिन हो जाता है यह आसानी से समझा जा सकता है।

प्रवक्ताओं का संघर्ष सचमुच प्रणम्य है। ये अभिमन्यु नहीं होते, समयसीमा में बंधे चक्रव्यूह से बाहर निकल ही आते हैं। कुछ न कुछ उपाय खोज ही लेते हैं. कुछ प्रवक्ता  आद्ध्यात्मिक हो जाते हैं और मोटिवेशनल सूक्तियों की फुहार से बहस की ज्वाला को शांत करने की कोशिश करते हैं तो कुछ किसी लोकप्रिय शेर या कविता का अंश सुनाते हुए मुस्कुराने लगते हैं। लेकिन सबसे अचूक हथियार इनका यह होता है कि प्रतिपक्षी या एंकर के सवाल के उत्तर में ही प्रवक्ता अपना नया सवाल दाग देता है। याने प्रश्न के जवाब में एक नया प्रश्न। टीवी की बहसों में यही सब देख कर विख्यात गीतकार शैलेन्द्र के गीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं- ‘एक सवाल तुम करो, एक सवाल मैं करूँ। हर सवाल का जवाब हो एक सवाल।’

सवालों से लबालब टीवी बहस के प्याले में उत्तरों की एक बूँद भी क्यों नहीं मिलती ? एक मात्र यही सवाल हर वक्त मन में घंटी बजाता रहता है।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, August 28, 2020

सूत्रों के हवाले से

सूत्रों के हवाले से

 उस जमाने में आज की तरह जोशवर्धक रसायनों और ताकत बढाने वाली कैप्सूलों का इतना ज्यादा प्रचार-प्रसार नही हुआ था। अखबारों में ऐसे विज्ञापनों से ज्यादा कविताएँ छपा करती थीं। लोह भस्म का सेवन किए बगैर ही कवि सबसे लोहा लेता रहता था। उसकी शक्ति के आगे बडे-बडे तुर्रम और सम्राट नत मस्तक हो जाते थे। उसकी वाणी में इतना दम होता था कि वह लोगों के भीतर चिंगारी सुलगाने का सामर्थ्य रखती थी। उनके विचारों से ऐसी आग धधक उठती थी जिससे लोग क्रांति की मशाल प्रज्ज्वलित कर सत्ता का तख्त आदि तक पलट दिया करते थे। कवि की इसी ताकत और पहुंच की व्यापकता के कारण कहावत बन गई –‘जहाँ न पहुंचे रवि,वहाँ पहुंचे कवि।’ जिन दुर्गम स्थलों और कोनों तक पहुंचने में सूरज की भी साँस फूल जाया करती थी वहाँ से कवि अपने विचारों की रोशनी में अपने बल पर सच्ची खबर ले आता था।

अब कवि के बस में यह सब नही रहा। बहुत गिनती के ऐसे कवि रह गए हैं जो जोखिम में पडकर परहित के दुर्गम रास्तों और अन्धेरों में भटकने का दुस्साहस दिखा पाते हों। आ बैल मुझे मार वाला अब यह काम ‘सूत्र’ करता है। चूंकि वह बैल से मार नही खाना चाहता इसलिए अपनी पहचान छुपा कर यह काम करता है। दरअसल यह ‘सूत्रों’ का ही समय है। ऐसा लगता है कि इन दिनों हमारा कोई असली शुभचिंतक है तो वह सिर्फ मीडिया समाज की वह ‘सूत्र बिरादरी’ ही है जो छुपी हुई वास्तविकताओं और उनके कारणों को सच्चाई के साथ उजागर करके पुण्य कमा रही है।

सूत्र ही वह प्राणी है जो अब पूर्व के कवि का काम करता है। ‘सूत्र’ रवि और कवि दोनों से अधिक प्रभावी और प्रतिभाशाली होते हैं। सच्चाई तक पहुंचने के लिए रवि और कवि दोनों को स्वयं भी प्रकाशित होना पडता रहा है, इसलिए उनको काम करते हुए हर कोई देख सकता है। यह बहुत खतरनाक होता है।  सूत्रों के साथ ऐसा नही होता। वे अदृश्य रहकर अपना काम करते रहते हैं। इन्हे कोई नही जान पाता। न ही उनके तौर-तरीके पर कोई सवाल करना सम्भव होता है। 

सूत्र मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य रहकर बडी निडरता से काम करता है लेकिन उसके काम करने की प्रक्रिया में डर की बडी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जहाँ वह जाता है अंजान भय से लोग घबराने लगते हैं कि कहीं कोई गुप्त कैमेरा, छुपा हुआ रेकार्डर तो अपना काम नही कर रहा।  लक्ष्य प्राप्ति के लिए सूत्र हर नीति कुटनीति को अपनाने में हिचक नही रखता। वह हमेशा परिणाम में विश्वास रखता है। जब सूत्र नतीजे पर पहुंच जाते हैं तब सूत्रधार उनके नतीजों का खुलासा करता है और खबरों की दुनिया में आग लगा देता है। यह आग तब तक बनी रहती है जब तक की कोई अन्य सूत्र किसी और नतीजे पर नही पहुँच कर नया धमाका नही करता।

सूत्र बस सूत्र होते हैं। उनका कोई नाम नही होता। टीवी चैनलों पर हमे केवल इतना भर पता चलता है कि उन्हे यह खबर सूत्रों के हवाले से मिली है। सूत्रों को गुमान होता है कि वे हमारे जीवन को बेहतर बनाने के कार्य में पूरी मुस्तैदी से लगे हुए हैं। शोले के जेलर के जासूसों की तरह चैनल के सूत्र देश के कोने कोने में फैले हुए रहते हैं । इनका नेटवर्क बडा व्यवस्थित होता है। मंत्रालयों की मक्खियों से लेकर कैटरिना के बाथरूम के साबुन तक उनकी नजरें लगी रहती हैं।

चैनलों के इन बेनाम सूत्रों पर भरोसा करना हमारी स्वाभाविक प्रकृति है। बहुत सी बातों पर हम विश्वास करते हैं, समोसे को हरी चटनी से खाने से कृपा होने और सपने के संकेत से खजाना मिलने की उम्मीद पर हम विश्वास करते हैं। विश्वास करना हमारे संस्कारों का हिस्सा है । पहले कभी बेताबी से डाकिया बाबू का इंतजार किया करते थे अब रोज अपलक टीवी निहारा करते हैं देखें आज क्या खबर आनेवाली है सूत्रों के हवाले से। इन सूत्रों से ही जीवन का सूत्र कायम है। ये सूत्र ही हमारे जीवन को रसमय बना रहे हैं, यह क्या छोटी मोटी बात है। 

ब्रजेश कानूनगो  

 

Wednesday, August 5, 2020

वाट्सएप पर महाकवि

वाट्सएप पर महाकवि


किसी ने कहा है जीवन एक कविता है। कई पद हैं इसमें। चौपाइयां हैं, दोहे, सोरठा,कुंडलियां, क्या नहीं है इस कविता में। लय है, तुक है, तो कभी बेतुकी भी हो जाती है जीवन की कविता।  हुनर चाहिए जीवन कविता को मनोहारी बनाने के लिए।

मैं कुछ इस तरह लिखते हुए अपने लेख की शुरुआत कर ही रहा था कि मित्र साधुरामजी आ धमके। बोले- 'यह क्या दिन भर टेबल पर झुके रहते हो! और कुछ काम धाम भी है या नहीं। जब देखो साहित्य, साहित्य करते रहते हो...'

उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई। कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में।’

‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की।

'क्या मिल जाएगा ऐसे यथार्थवादी लेखन से तुम्हे?' वे बोले।
'लिखने से मुझे आत्म संतोष मिलता है,साधुरामजी।' मैने कहा।
'अब ज्यादा बातें मत बनाओ! कोई पद्मश्री नहीं मिल जाएगा तुम्हे इससे!' वे बोले।
'मैं किसी सम्मान,पुरस्कार की आकांक्षा से नहीं लिखता, मेरा लेखन स्वान्तः सुखाय है साधुरामजी।' मैने कहा तो वे चिढ़ गए-'अरे छोड़ो भी अब, इतना समय घर के कामकाज में देते, भाभीजी को सहयोग करते तो उनकी दुआएं लगतीं।'
'उनकी दुआएं तो सदैव मेरे साथ ही हैं। उनका सहयोग नहीं होता तो मैंने जो थोड़ा बहुत लिखा पढा है वह भी नहीं कर पाता।' मैंने तनिक खिसियाते हुए कहा।
'और सुनो बन्धु ! ये जो तुम लिखते हो क्या सब तुम्हारा अपना  है? ये देखो तुम्हारी वह ग़ज़ल जो तुमने पिछले हफ्ते गोष्ठी में सुनाई थी, वह तो गुलजार साहब की है। यह देखो!' साधुरामजी ने उनका मोबाइल में मेरी ओर बढ़ा दिया।

वहां एक वाट्सएप समूह में मेरी वही कविता शेयर की गई थी, किन्तु नीचे शायर का नाम 'गुलजार' लिखा हुआ था। अब यह मेरे लिए सम्मान की बात थी या गुलजार साहब के लिए सिर पीट लेने वाली, कह नहीं सकता।

'अरे भाई आप तो 'गुलजार साहब' हो गए हैं अब! सफेद कुर्ता पहनों और पहुंच जाओ मुम्बई। खूब काम मिलेगा और अवार्ड भी।' साधुरामजी मजे लेने के मूड में आ गए थे।

'और बंधु जरा कभी अपना रोल बदल कर भी देखो...मसलन कभी पत्नी के काम अपने हाथ में ले लो...बडा मजा है... महरी नही आने पर बरतन मांजने में भी बडा मजा है...अपनी इस कला को भी सार्थकता देकर  चमकाया जा सकता है... कपडे धोना-सुखाना किसी तार पर...छत पर...अपने हाथों से आटा मथ कर गर्मा-गर्म रोटियाँ अपनों को खिलाना...वाह! अद्भुत आनन्द... एक नई कहानी...नई कविता लिखने के संतोष से भरा-भरा सा ... जैसे विविध-भारती पर नीरज या साहिर का गीत सुन रहे हों...!'
अब साधुरामजी जैसे पूरे साहित्य जगत को ही संबोधित कर रहे थे मानो वहां सारे रचनाकार अपनी घर गृहस्थी से विरक्त होकर सिर्फ सृजन में ही संलग्न हो गए हों।

तभी मेरे मोबाइल में चिड़िया चहकी। एक वाट्सएप मेसेज आया था। खोलकर पढा तो चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। मैंने मोबाइल साधुरामजी के आगे कर दिया। वहां साधुरामजी की एक नज्म हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से शेयर हुई थी।

ब्रजेश कानूनगो

Friday, July 3, 2020

बस में बजती बीन

बस में बजती बीन
 सामान्यतः जब अच्छी सड़कों पर पूरी तरह नई नवेली बसों का पूरी तरह दोहन हो जाता है  तब ग्रामीण रास्तों पर धक्के खाने के लिए उन्हें उतार दिया जाता है। धक्के लगाकर उनके दिल की धड़कन को स्टार्ट करना पड़ता हैटायरों की देह पर सैकड़ों टांके लगे होते हैंबरसात में छत टपकती है तो यात्री छाते खोल कर भीगने से बचने का प्रयास करते हैं। 

देहात में पदस्थ बाहरी कर्मचारियों को ऐसी बसों के ड्राइवर माँ अन्नपूर्णा के दूत बनकर आते दिखाई देते हैं। ड्राइवर का कैबिन लोगों के 'टिफिनोसे भरा होता है। रास्ते के हर गाँव में सैनिकों की तरह कर्तव्य पर तैनात संतानों को परिजनों द्वारा भेजे एक दो टिफिन डिलीवर करके ड्राइवर साहब सहज ही पुण्य कमा लेते हैं।

जिसने भी इन देहात जाने वाली बसों में कभी यात्रा की है वह जीवनपर्यंत इन्हें याद करके अपने और दूसरों के मन को प्रफुल्लित कर सकता है  जिस बस से मैं अपने ग्रामीण दफ्तर के लिए आना जाना किया करता था, उसके कंडक्टर और ड्राइवर प्रसिद्द कॉमेडी फिल्म 'बॉम्बे टू गोआके महमूद और उनके भाई अनवर अली की तरह लगते थे।

बस यात्रा के दौरान कुछ यात्रियों को उल्टी आने व चक्कर की शिकायत रहती है। ऐसी सवारियां जब कंडक्टर से खिड़की वाली सीट का आग्रह करतीं तो वह उन्हें माचिस की डिबिया से एक तीली निकालकर दे देता। कहता- 'लो इसे मुंह में इसतरह रख लो कि फास्फोरस वाला हिस्सा  मुंह में रहे ।' यात्री ऐसा करते तो समस्या भी सुलझ जाती। उल्टी, कै आदि होना रुक जाता। किसी ग्रामीण का पेट खराब होता वह तुरंत एक अखबार का टुकड़ा देता और सीट पर उसे बिछाकर उस पर बैठ जाने को कहता।  थोड़ी ही देर में पीड़ित को इससे आराम मिल जाता। आगे किसी चाय की गुमटी पर आधी गर्म चाय में आधा ठंडा पानी मिलाकर उसे पिलवा देता। पेट में मरोड़ उठने से मुक्ति मिल जाती।

बरसात के दौरान एक दिन बस फिसलकर सड़क किनारे की काली मिट्टी में धंस गई। यात्रियों ने खूब जोर लगाया। बात न बनी तो कंडक्टर ने कुछ गामीणों को भी बुला लिया। कुछ सड़क चलते बंजारे भी धक्का लगाने में शामिल हो गए।

बहुत मशक्कत के बाद गहरा काला धुंआ उड़ाते हुए बस आखिर कीचड़ से निकल पाई। कंडक्टर ने उदारतावश उन पदयात्री बंजारों को भी अपनी बस में जगह दे दी। कंडक्टर उदार अवश्य था किन्तु अपनी कम्पनी का वफादार भी कुछ कम नहीं था।  बंजारों से उसने किराया मांग ही लिया 'आप लोग चार जने हो दो के ही पैसे दे दो' मगर बंजारे भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। बोले 'उतार दो हमें बस सेपैसे तो नहीं हैं हमारे पास।'
'क्या धंधा करते हो तुम लोग?' कंडक्टर ने फिर पूछा।
'भैया सपेरे हैं हम। बीन बजाकर अपना और अपने सांपों का पेट पालते हैं!'
उनके ऐसा बोलते ही सभी यात्रियों के कान,आंख चौकन्ने हो गए। सचमुच उन लोगों के पास पिटारे थे। शायद  सांप भी होंगे। अदृश्य सांप पिटारों से निकल कर यात्रियों को सूंघने लगे। 
कंडक्टर को तो रोज का ही अनुभव रहा होगा बेफिक्री से मुस्कुराते हुए बोला- 'चलो किराया न सहीबीन ही सुनवा दो साहब लोगों को।'
और सचमुच उन सपेरों ने हमारा गंतव्य आने तक खूब बीन बजाई। हम लोग सहमे सहमे सुनते रहे। मजबूरी थी। उस वक्त तो जो भय हमारे भीतर समा गया था वह इन दिनों में   किसी व्यक्ति को छींकते देखकर होने वाले भय से कम नहीं था.

सच तो यह था कि उस दिन के बीन वादन से 'नागिनफ़िल्म के प्रसिद्द गीत 'तन डोले..मेरा मन डोले'  जैसा ही कुछ घटता रहा था.

ब्रजेश कानूनगो
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Sunday, June 28, 2020

साहित्य की तनी हुई मूँछ

साहित्य की तनी हुई मूँछ

कहने को साधुरामजी हमारे लंगोटिया यार हैं लेकिन अपनी हरकतों से हमारी लंगोट खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं

उस दिन हमारी एक व्यंग्य रचना अखबार में छपी थी। तारीफ़ में बहुत से बधाई फोन भी सुबह से आ रहे थे। लेकिन इससे उलट मित्र साधुरामजी स्वयं अखबार पकडे साक्षात पधार गए। आते ही शुरू हो गए-
'आज चड्डी-बनियान गिरोह पर आपने जो लेख लिखा है उसमें चोरों के  प्रति आप का रवैया सहानुभूतिपूर्ण लग रहा है। आप अपराधी के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं।साधुरामजी ने आपत्ति जताई।
'वह व्यंग्य लेख है मित्रउन फटेहाल चोरों के पक्ष में नहीं है जो रात में छोटी मोटी चोरियां करते हैं। बल्कि पूरी टीम वर्क के साथ दिन के उजाले में देश को लूटने वाले सफेदपोश बड़े अपराधियों पर व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियों में प्रहार करने की कोशिश की गई है उस रचना में।हमने सफाई देते हुए कहा।

'
किंतु ऐसा स्पष्टतः समझ में आता नहीं लेख पढ़कर।साधुरामजी बोले।
'
वह तो समझना पड़ता है मित्र। साहित्य में बहुत से अव्यक्त को पढ़ना आना चाहिए।व्यंग्यकार ने कहा।
'
फिर भी, आपको स्पष्ट लिखना चाहिए कि आप सफेदपोश लुटेरों पर प्रहार कर रहे हैं।साधुरामजी अपनी बात पर अड़े रहे।
'
साहित्यिक विधा में ऐसा नहीं होता मित्रपत्थर फेंकने और लाठी चलाने से अलग होता है रचनात्मक प्रहार। और अभिधा में लिखी रचना तो फिर एक रिपोर्टिंग में बदल जाती है। व्यंजनालक्षणा शक्तियां व्यंग्य के खास औजार होते हैं।हमने तनिक ज्ञान बांटा।

'
नहींयह तो ठीक नहीं है बिल्कुल। स्वीकार्य नहीं हमें। ये शक्तियां तो  बहुत अराजक और आतंकी लगती हैं अपने आचरण से। इन्हें तुरंत निष्काषित करिये साहित्य से। अन्यथा हमें कोई कानून लाना पड़ेगा।कहते हुए  साधुरामजी नें अभिधा शक्ति में  देशभक्ति से परिपूर्ण एक जोशीले नारे का उद्घोष किया और  निकल लिए। 

यद्यपि साधुरामजी का सार्वजनिक जीवन मोहल्ले की राजनीति से शुरू हुआ था और मोहल्ले की पार्षदी पर जाकर अटक कर रह गया। और अब तक पुराने घंटाघर की घड़ी की सुइयों की तरह अटका पडा है। इस बीच उनमें किताबें पढ़ने का शौक भी जाग्रत हो गया। पहले कर्नल रणजीत, इब्नेसफी और गुलशन नंदा का अमर साहित्य उन्होंने तत्कालीन पान भण्डार सह पुस्तकालय से प्रतिदिन चवन्नी के किराए पर लाकर खूब पढ़ा, बाद में यही शौक उन्हें छाया वाद से लेकर समकालीन साहित्य की कविताओं और कहानियों की और ले गया। बल्कि इस मामले में उनकी रूचि इस कदर बढ़ी कि घर में ही उन्होंने अपनी एक निजी लाइब्रेरी तक बना डाली।
दिलचस्प प्रसंग यह रहा कि एक दिन अचानक साधुरामजी ने अपनी लायब्रेरी में रखी कविता संग्रहों की सारी पुस्तकें कबाड़ी को बेच दीं तो मैंने आश्चर्य से पूछा- ‘आपने गद्य की पुस्तकें क्यों नहीं बेची कबाड़ी को ?
उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- गद्य की किताब की बजाय, कविता की किताब का पन्ना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक रहता है।
'
क्या मतलब?' में भौचक्क रह गया।
'
कबाड़ी से किताबों की रद्दी मंगू चाटवाला खरीदता हैसमोसे पर कविता के कम शब्दों की स्याही चिपकती हैजिससे  बीमारी की संभावना का प्रतिशत भी घट जाता है।'
आमजनता के हितों के प्रति साधुरामजी की चिंता और जागरूकता का मैं तभी से मुरीद हो गया था। और अब तक बना हुआ हूँ।  

पढ़ते पढ़ते धीरे धीरे वे थोड़ा लिखने भी लगे। दोस्तों में कोई लिखता छपता है तो यह संक्रमण दूसरों को भी गिरफ्त में ले ही लेता है। यह रोग हमें भी ऐसे ही लगा था और इसी तरह साधुरामजी में भी यह कीड़ा प्रवेश कर गया। जब भी कीड़ा काट लेता वे कुछ लिख लेते और हमारे पास चले आते। मित्र के नाते मैं उनके लिखे में भाषा और वर्तनी को ठीक करने के लिए कुछ संशोधन कर दिया करता था।

उनकी एक आदत यह थी कि वे 'हेतुशब्द का खूब प्रयोग किया करते थे लेकिन गलत यह था कि 'हेतुको 'हेतूलिख देते थे। मैं उसकी वर्तनी ठीक करके उसे 'हेतुकर देता मगर वे उसे पुनः 'हेतूकर देते थे। जैसा कि यह ज़माना कॉपी पेस्ट का अधिक हो गया है सो जब रचना अखबार में प्रकाशित होकर आती वहाँ भी गलत ‘हेतू’ छपा होता  आखिर में परेशान होकर मैने उन्हें शब्दकोश आदि दिखाकर थोड़ा आक्रोश में कहा कि 'साधुरामजी, आप हेतु गलत लिखते हैंमैं ठीक कर देता हूँ तब भी आप पुनः उसे 'हेतूकर देते हैं ऐसा क्यों?'वे मुस्कुराते हुए बोले मित्रमैं जानता हूँ सही क्या है। ‘हेतु’ ठीक है लेकिन न जाने क्यों मुझे 'हेतूही बचपन से अच्छा लगता रहा है, हेतू से मुझे उसी तरह प्यार हो गया है जैसे कोई वीरपुरुष अपनी 'तनी हुई मूंछोंसे प्यार करता है। 'हेतूमेरी भाषा और रुचि में शामिल हो गया है, इसे मैं त्याग ही नहीं सकता।'
इसके बाद मैंने उनकी भाषा की मूछों को कभी नीचे झुकाने का प्रयास नहीं किया। आज भी उनकी हस्तलिपि में हेतु की मूंछें गर्व से तनी ही रहती हैं।

इसी तरह अपनी मूँछों पर ताव देते हुए उन्होंने खूब कवितायेँ लिख डाली कवितायेँ लिख डालीं तो किताब भी छपवानी जरूरी हो गई बिना किताब के लेखक को साहित्यिक मान्यता नहीं मिलती। साहित्य संसार का आधारकार्ड अपना संग्रह या किताब ही होती है यह वे अच्छी तरह जानते थे
कविताओं का नया संग्रह आया तो बधाई देते हुए हम बोले- ' बढ़िया है किताब आपकी।'
'
धन्यवादकुछ सामग्री पर भी कहिए! खुश होकर साधुरामजी बोले।
'
सामग्री भी बढ़िया हैकागज की क्वालिटी बेहतर है।हमने कहा।
'
मेरा मतलब हैकविताओं पर अपना अभिमत व्यक्त कीजिये।साधुरामजी थोड़ा चिढते हुए बोले।
'
मेरे कुछ कहने से क्या होगाफ्लैप पर जो वरिष्ठ कवि ने व्यक्त कर दिया है उससे बेहतर भला मैं और आगे क्या कुछ कह पाऊंगा, साधुरामजी!’ मैंने कहा।
'
अरे ,नहीं मित्र! आप  मेरी कविताओं पर अपने विचार रखेंगे तो वह मौलिक होंगे।'
'
ऐसा क्योंक्या फ्लैप पर वरिष्ठ कवि का लिखा ब्लर्ब मौलिक नहीं है?'
'
जीवह मैंने स्वयं ही लिख लिया था,उनके नाम से।'
'
अरे भाई तो जो पिछले दिनों अखबार में समीक्षा आई है, उसमें भी तो वरिष्ठ आलोचक ने बड़ी प्रशंसा की हैआपकी कविताओं की।'
'
अब जाने दीजिए!उन्होंने निराश होकर कहा 'आपसे नहीं होगामैं ही लिख लेता हूँ आपका अभिमत।'
इतना कह कर साधुरामजी ऐसे एकांतवासी हुए कि मुझे उनकी चिंता सताने लगी है। मित्र की नाराजगी न जाने क्या कहर ढाएगी अब....!

ब्रजेश कानूनगो