Friday, October 16, 2020

'दिशा जंगल' की दशा और दिशा

दिशा जंगल' की दशा और दिशा

उस दिन साधुरामजी आए तो बड़े खिन्न लग रहे थे। वैसे यह कोई नई बात नहीं थी 'खिन्न' रहना उनके स्वभाव का अभिन्न हिस्सा है।

दरअसल वे स्वच्छता अभियान के तहत गाँवों में बनाए गए शौचालयों के कुछ चित्र फेसबुक पर देखकर व्यथित थे। कहने लगे-'एक अच्छी योजना में थोड़ी बहुत गड़बड़ी को भी लोग मुद्दा बनाकर मखौल उड़ाने लगते हैं!'

'ऐसा क्या हो गया साधुरामजी?' मैंने पूछ लिया ताकि वे अपने भीतर का गुबार निकालकर थोड़ा हल्के हो जाएं।

'ये देखिये, इस शौचालय में किसी ने पान, बीड़ी की दुकान सजा ली है, और यह दूसरे में देखिए टॉयलेट की सीट के बीच से एक पपीते का पेड़ निकल आया है!'  साधुरामजी ने मोबाइल स्क्रीन मेरे आगे कर दिया।

'यह तो मैं पहले ही देख चुका हूँ साधुरामजी। पपीते का पेड़ तो शायद इस लिए उग आया होगा कि किसी ने खाते वक्त बीज निगल लिया होगा।'मैंने चुहुल की। मैं जानता था कि यह सब फोटोशॉप का करिश्मा भी हो सकता था। पर शौचालय में दुकान सजाने में कुछ सच्चाई जरूर नजर आई।

'तुम्हे मजाक सूझ रहा पर ऐसी बातों से हमारी अच्छी योजनाओं की बदनामी होती है।' साधुरामजी बोले।

'काहे कि बदनामी! जब भविष्य में आज की सभ्यता का मूल्यांकन होगा तब इन सब चीजों से इतिहासकारों को मदद मिलेगी। सत्य के करीब होगा इतिहास लेखन।'

'तुम खुराफाती हो, मजे लेने से बाज नहीं आओगे!' वे नाराज होकर मेरे घर से वॉक आउट कर गए किन्तु मुझे  'शौचालयों की  दशा और दिशा' पर चिंतन करने को विवश कर गए।

मुझे याद आया दादा कोंडके की एक फिल्म का वह दृश्य जिसमें एक विदेशी सैलानी ऊँट पर बैठकर भारत के गांव का भ्रमण करता है जब वह एक गाँव के सामने से गुजरता है तब जिज्ञासा से पूछता है - 'क्या या गांव का टॉयलेट है?' तब दादा उसे निर्विकार बताते हैं 'नहीं यह शौचालय नहीं है यह हमारे गांव का प्राथमिक स्कूल है।'  विदेशी सैलानी की आंखें आंखें फटी रह जाती हैं।

एक और कहानी याद आती है जिसमें उस समय की एक परंपरा का बहुत रोचक वर्णन करते हुए कथाकार ने एक गांव में आई बारात और उसके सत्कार का चित्रण किया था। उस काल में जितने दिन बाराती गांव में रहते लगता कोई उत्सव चल रहा हो। ढोल और बैंड बाजों के शोर से वातावरण कई दिनों तक लोक संगीत में डूबा रहता था। सुबह-सुबह बारातियों को शौच के लिए दिशा मैदान व स्नान आदि के लिए नदी किनारे ढोल नगाड़ों के साथ ले जाया जाता था। धरती की गोद में शीतल पवन के झौकों और विभिन्न वनस्पतियों की दिलकश सुगंध के बीच लोगों के नित्य कर्म निपटते थे। यह भी तत्कालीन टॉयलेट का एक प्राकृतिक स्वरूप होता था।

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो तत्कालीन सभ्यता के अवशेष मिले थे, उनमें स्नानागार की पुष्टि तो होती है किंतु मनुष्य के निवृत्त होने की क्या व्यवस्था रही होगी, इसके बारे में जानकारी अधिक स्पष्ट नही है।

हां, आधुनिक भारत में बड़े लोगों के बाथरूम में बड़ी बड़ी तिजोरियों में बड़े-बड़े नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डियाँ मिलने के सबूत खुफिया एजेंसियों की फाइलों में मिल जाते हैं। कहना सिर्फ इतना है  कि शौचालयों के बारे में प्राचीन काल से संदर्भ मिले न मिले, आधुनिक भारत के अधिकांश संदर्भ यहीं से मिलते हैं। वर्तमान में इनके बारे में प्रत्येक मनुष्य में जिज्ञासा सदा से बनी रही है। हम अधिक से अधिक जानना चाहते हैं टॉयलटों के बारे में। हमारे ही नहीं हम दूसरों के टॉयलेट का रहस्य जानने के लिए भी लालायित बने रहते हैं। उसका टॉयलेट मेरे टॉयलेट से बेहतर क्यों? 

खेतों की बागड़ और रेल पटरियों के किनारों  के अलावा भी टॉयलेट की बहुमूल्य, बहुरंगी व  खूबसूरत दुनिया होती है। चिंतकों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों आदि के जीवन में तो शौचालय का महत्व बहुत अधिक होता है। टॉयलेट वह स्थान है जहां हम अपने विचारों का शोधन करते हुए असीम शांति को महसूस कर सकते हैं। जहां बैठकर देश दुनिया के बारे में सार्थक चिंतन किया जा सकता है। इसलिए अपने घरों में टॉयलेट बनवाइए और कृपया उसमें दुकान मत सजाइये। उसमें पेड़ मत उगाइये।

ब्रजेश कानूनगो

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