Thursday, December 29, 2016

महानता का लक्ष्य और पूर्व तैयारी

व्यंग्य
महानता का लक्ष्य और पूर्व तैयारी
ब्रजेश कानूनगो

मानव इस जुगाड़ में लगा रहता है कि कभी न कभी वह ‘महा मानव’ कहला सके।  रथ पर सवार सैनिक  ‘महारथी’ का गौरव अर्जित करने के लिए तमाम जद्दोजहत में संलग्न रहता है।  महानता की यह लालसा हर काल खंड में हरेक क्षेत्र में देखने को मिलती है.

महान लोग सदैव अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। निशानेबाज को केवल टारगेट दिखाई देता है। कुछ प्राकृतिक रूप से टारगेट होते हैं, कुछ को टारगेट किया जाता है. जैसे अर्जुन ने चिड़िया की आँख को टारगेट किया था।  लोकतंत्र में नेता विजेता बनने के लिए वोटर को टारगेट करता है।  अर्जुन अपने फन में उस्ताद था। अर्जुन का लक्ष्य निशाना साधते वक्त चिड़िया की आँख होती थी। कुशल निशानेबाज था, इसलिए महान भी था। मगर इन दिनों महानता के मर्म को जाने बिना हर कोई महान कहलाने को लालायित दिखाई देता है। 

जब तक आप लक्ष्य नहीं भेद देते, तब तक महान नहीं बन सकते। महान बनने के लिए योद्धा भी बनना पड़ता है। ठीक ठाक निशानेबाज होना भी जरूरी है। वरना गोली चलती तो है मगर घायल कोई और हो जाता है। महानता की चाह में योंही कुछ लोग लक्ष्य की दिशा में चाक़ू सन्नाते रहते हैं।

अज्ञान और जल्दबाजी में कभी-कभी महानता की आकांक्षा का मरण हो जाता है। एक तो कभी वार खाली चला जाता है तो कभी सिर पर रखे तरबूज की बजाय आदमी की गरदन उतर जाती है। इसे ही बिना तैयारी के नदी में कूदना कहते हैं। नदी पार करने का लक्ष्य अधूरा रह जाता है तैराक का। समुद्र लांघ जाने का बड़ा लक्ष्य धरा का धरा रह जाता है। उथले जल में डूब जाने से एक महान तैराक के महान हो जाने की संभावना असमय काल कलवित हो जाती है।

इसलिए संत भी कह गए हैं, ‘हे राजन! पूरी तैयारी के साथ महायज्ञ में  ज्वाला को प्रज्वलित करें! हवन सामग्री की शुद्धता का भी ख़याल रखें। अशुद्ध सामग्री से धूम्र उत्पन्न होता है। यह धुंआ प्रासाद के गुम्बद में उपस्थित मधुमक्खियों को कदापि प्रिय नहीं होता। वे महानता के महोत्सव के आनन्द और उल्लास में बाधक होने को तत्पर हो उठती है। 

सामान्य जन तक आवश्यक तैयारी रखते हैं। बिजली गुल होगी तो अन्धेरा घिर आयेगा इसलिए रात को दियासलाई और मोमबत्ती साथ में रखकर सोते हैं। बारिश आने के पहले किसान अपने खेत जोत लेता है. बेशक उन्हें भी महानता की उतनी ही चाह होती है जितनी किसी सम्राट और योद्धा को। महान तो वे भी हैं जिन्होंने हमारे लिए कुएँ खोदे, तालाब बनाए।  वरना हम और हमारे खेत प्यासे रह जाते, बस्ती में आग लगती तो हम शायद तुरंत उसे बुझा भी नहीं पाते। 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

   


ठण्ड का जोशीला मौसम

व्यंग्य
ठण्ड का जोशीला मौसम
ब्रजेश कानूनगो 

आजकल प्रतिदिन तड़के उठकर मैथी दाने के लड्डुओं का सेवन कर रहा हूँ। पिताजी भी यही करते थे। कुछ लोग उड़द, मूंग आदि के लड्डू भी खाते हैं. अपनी अपनी मर्जी, अपना अपना जायका. . ठण्ड के दिनों में  पौष्टिक लड्डुओं का नियमित सेवन अच्छा माना गया है। बुजुर्ग कह गए हैं, शीतकाल का खाया पिया काम आता है। सेहत तो बनती ही है, तन-मन भी जोश और उत्साह से भर जाता है।

जीवन में सदैव उत्साह बना रहे, इससे बड़ी तमन्ना और क्या हो सकती है। बहुत सारी इच्छाएं और आस लेकर आदमी 'ठुमक चलत रामचंद्र' से लेकर 'जाने वाले हो सके तो लौट के आना' तक 'जिंदगी एक सफर है सुहाना' गुनगुनाते हुए 'उडलाई,उडलाई' करता रहता है।

उमंग और उत्साह की चाहत हर किसी में होती है। विशेषरूप से जब ठण्ड का मौसम आता है तब शरीर भले ही कंबल में दुबके रहने को विवश करता है मगर  कामनाएँ बलवती होने लगती हैं।

जब कोई चाहत ज्यादा ही सिर उठाने लगती है, बाजार उसे देख लेता है। देख लेता है तो उसे भुना भी लेता है। व्यापारी संत नहीं होता कि वह इच्छाओं को वश में रखने के लिए उपदेश देता फिरे। जो मनुष्य परम ज्ञानी संत का अनुयायी होता है, उसी वक्त वह किसी ब्राण्ड व्यवसायी का उपभोक्ता भी होता है.  दूसरों की नादान इच्छाओं से  चतुर व्यवसायी की आकांक्षाएं हमेशा से पूरी होती रहीं  है। इससे धंधे में उभार  आता है। उत्पाद की मांग में उछाल पैदा होता है।

यही वजह होती है कि आदमी में उत्साह बने रहने की अदम्य तमन्ना, बाजार की रौनक बन जाती है। आंवलों के देशव्यापी उत्पादन से कहीं अधिक जोशवर्धक आंवला निर्मित  'च्यवनप्राश' की बोतलें दुकानों में जगमगाने लगती हैं। अखबारों में बलवर्धक रसायनों और उमंग भरी कैप्सूलों के विज्ञापन निधन, उठावनों जैसी निजी सूचनाओं के स्पेस पर अपना कब्जा जमा लेते हैं।

कुछ परम्परा प्रेमी लोग बाजार पर भरोसा नहीं करते। ये बाजार विरोधी लोग जोश वर्धन के लिए अपने उपाय खुद करते हैं। उन्हें अपने उत्पाद पर विश्वास होता है। वे घर पर ही शक्तिवर्धक लड्डू बनाते हैं। आत्मनिर्भरता की मृग मरीचिका के बीच  मैथी दाना से लेकर उडद की दाल, खोपरा गोला से लेकर धावड़े के गोंद, बाबाजी के देसी घी से लेकर बादाम की गिरी तक के बाजार भाव पर ये निर्भर होते हैं।
इनके लड्डू तन को पुष्ट करें न करें मगर मन को जरूर उमंग उत्साह से भर देते हैं। दिमाग को भी तेज बना देते हैं। खाने वाला यदि लेखक हुआ तो लड्डू प्रताप से खूब दिमाग लड़ाता है और पाठक का दिमाग खराब करने लगता है। 

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018

Monday, December 12, 2016

कहावतों का लोकतांत्रिक दर्शन

व्यंग्य
कहावतों का लोकतांत्रिक दर्शन
ब्रजेश कानूनगो   

दादीमाँ मालवी में कभी कभी एक मुहावरा अक्सर बोला करती थी- 'बोलने वाला को मुंडों थोड़ी बंद करी सकां।'  आशय यही रहता था कि हमें तो सदैव अपने मन की करते रहना चाहिए। जरूरी नहीं कि हम वही करें जो सामने वाले के मन की बात हो। इसलिए किसी के कुछ कहने बोलने की चिंता किये वे जो करना चाहती थीं, घर परिवार में, जाति-बिरादरी में, गाँव-मुहल्ले में और यहां तक कि शादी-ब्याह और जलसों तक में जो दिल करता बेझिझक कर डालती थीं।

पीएम की ‘मन की बात’ से बरसों पहले दादी रेडियो पर भी मन की बात किया करती थी। वह समय ही ऐसा था जब आकाशवाणी पर हर कोई अपनी बात करता रहता था। खेती-गृहस्थी और महिला सभा में वे बतियाती भी थीं और मालवी के लोक गीत भी सुनाया करती थीं। आज की तरह केवल स्टूडियों में ही गूंजकर नहीं रह जाती थी आवाज,  बल्कि पीएम की 'मन की बात' की तरह पूरा इलाका उसे सुनता था जहां तक तरंगें पहुँचती थीं। 

दादी यह भी कहती थीं कि ‘जो बोलता है उसका कचरा भी बिक जाता है, जो नहीं बोलता उसका सोना भी नहीं बिकता. वह अपनी गद्दी पर बैठा बस मक्खियाँ ही गिनते रह जाता है.’ दादी की मक्खियाँ गिनने में कोई ख़ास रूचि नहीं थी और वे खूब बोलती थीं. उनके बोलने पर  कोई कुछ विपरीत प्रतिक्रिया देता तो वे दूसरी कहावत 'हाथी जाए बाजार, कुत्ता भूँके हजार'  को एकलव्य के बाण की तरह चलाकर कहने वाले का मुंह बंद कर देती थीं। दूसरों को मुंह बंद न किये जाने की विवशता की कहावत सुनाने वाली दादी स्वयं दूसरों की बोलती बंद करने में माहिर थीं।

कभी-कभी दादीमाँ  की ‘कथनी और करनी में अंतर’ आ जाता था. यह कोई अटपटी बात भी नहीं है। आइये, इसे ज़रा समकालीन सन्दर्भों में समझते हैं. कहावत में 'कथनी' को यदि आप संसद में बोले जाने वाले मंत्री के वक्तव्य की तरह लें तो पब्लिक मीटिंग के उनके 'आह्वान' और ‘जुमलों’ को 'करनी' माना जा सकता है। 'कथन' में कार्य का संकल्प और करने की बाध्यता होती है,  वहीं करनी में  ‘उद्घोष’ और ‘आह्वान’ की शानदार प्रस्तुतिके जरिये लोगों का दिल जीतने की महज आकांक्षा निहित होती है। संसद में यथार्थ की नदी बहती है जबकि बाहर आश्वासनों की नावें तैराई जा सकतीं हैं. सदन के बाहर ‘मार्केटिंग’ का जलवा है और सदन के भीतर ‘मेन्युफेक्चरिंग’ का संयंत्र लगा रहता है. यही बड़ा अंतर है. जब तक दोनों का तालमेल नहीं बनता तब तक अवरोध निश्चित है. परिणाम यह होता है कि पक्ष-विपक्ष एक दूसरे को बोलने में बाधक बनते हैं। बड़ी कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं. जटिल हो जाता है बहस का रास्ता। संसद ठप्प हो जाती है.

लेकिन यह भी सच है कि जो आसानी से मिल जाए, उसकी गुणवत्ता संदिग्ध हो सकती है. दादी माँ का मुहावरा यहाँ फिर हमारा संबल बढाता है. वह यह कि ‘स्थायी लाभ और लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमेशा संघर्षों का कठिन रास्ता चुनना चाहिए.’ हम इसका पालन करने को प्रतिबद्ध हैं, पहले राह को दुर्गम बनाते हैं फिर संघर्षो से लक्ष्य हांसिल करने के लिए कंटक पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इंदौर-452018


मैथी की भाजी और भोजन का लोकतंत्र

मैथी की भाजी और गणतंत्र 
ब्रजेश कानूनगो

कड़वा मुझे बहुत पसंद है। करेला भी पसन्द है, लेकिन उसमें रस नहीं होता. होता भी हो तो मुझे पता नहीं. कड़वा गले से उतरता है तब सृजन थोड़ा सहज हो जाता है. ऐसा लोग कहते हैं. जिन्होंने बहुत सारे खंड काव्य लिखे, उनका तजुर्बा है. इधर रसधार गले से नीचे उतरी, उधर कविता का सोता ह्रदय में फूटकर कंठ से बाहर प्रवाहित होने लगता है.

इस मामले में मैं थोड़ा बिग ‘एच’ हूँ. ‘एच’ बोले तो ‘हरिवंश राय जी’ मधुशाला वाले. अरे वही अपने बच्चन जी, दो बूँद वालों के पिताजी. जिन्होंने बिना रसरंजन किये करोड़ों को मदहोश कर दिया था.. खैर जाने दीजिये..कहाँ मधुशाला और कहाँ....
  
बहरहाल, रसरंजन में मैं  मैथी की कड़वाहट से काम चलाता हूँ. ज्यादातर लोग मैथी की सूखी सब्जी बनाते है मगर मुझे पानीदार पसंद है। चेहरा हो, मन हो, गाँव हो, मोहल्ला हो, इज्जत हो  बिन पानी सब सून।

रसेदार के कई फायदे हैं। एक तो भाजी की कम मात्रा में ही काम चल जाता है। दूसरे ‘ड्रिंक्स’ के लिए अलग से मेहनत और खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। स्नेक्स के लिए मूली के टुकड़े  उपलब्ध हो ही जाते हैं. सबसे महत्वपूर्ण यह कि गिरते हुए दांतों को ज्यादा पसीना नहीं बहाना पड़ता। पेट को मशक्कत कम करना पड़ती है। पाचन तंत्र दुरुस्त रहता है। पंचारिष्ठ का खर्चा बच जाता है। यह धर्म संकट भी नहीं पैदा होता कि वह ‘झंडू’ जी का लूं या ‘बाबा’ जी का.   

मैथी की रसेदार सब्जी जब भी पत्नी बनाती है, उसके हाथ चूमने का दिल करता है। जैसा मैंने पहले कहा करेला भी अच्छा लगता है, लेकिन मैथी की बात कुछ और है।मैथी देशज लगती है।उसकी जड़ें जमीन से जुडी होती हैं।स्वदेशी जैसा फीलिंग आता है मैथी खाते हुए। करेले में 'मेक इन इंडिया' जैसा लुत्फ़ है। करेले की टेक्नोलॉजी पड़ोस से आयातित हुई है घर में। वहां हाथ-वाथ चूमना खतरनाक हो सकता है. पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते बनाये रखने की नीति के चलते मैथी अक्सर  प्राथमिकता में रहती है।

थोड़ी समस्या यह होती है मैथी की भाजी के साथ कि पत्तियां सोशल मीडिया के फॉलोवरों की तरह घनिष्टता से डाली के साथ जुड़ी रहती हैं। जिस डाली में अधिक फालोवर होते हैं वह उतनी बेहतर मानी जाती है।  हमारे लिए फॉलोवरों की संख्या हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। चाहे वह मैथी की भाजी हो या राजनीतिक पार्टी. फालोवर ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए. खैर. 

आमतौर पर मैथी की मुलायम डालियाँ कालान्तर में डंठल में बदल जाती है. सब्जी हो या सरकार, डंठलों की उपस्थिति जायका प्रभावित करती है. डंठलों से मुक्ति तरलता बनाए रखने के लिए जरूरी है.

डंठल के साथ  मैथी की जड़ें भीं खेत की मिट्टी सहित किचन तक चली आती है। यह मिट्टी मैथी के साथ फ्री नहीं मिलती, भाजी के भाव तुलकर आती है. ये माँ के लिए मूल्यवान है.  इस से माँ अपने बाल धो लेती है. जिससे शैम्पू का एक पाउच अगले माह के लिए सरप्लस हो जाता है. पिताजी के लिए यह बहुमूल्य, महान और पवित्र रज है. गाँव के सारे खेत बेचकर जब से शहर आये हैं तब से मैथी के साथ आने वाले मातृभूमि के इन रजत कणों को ही मस्तक पर लगाकर प्रातः सूर्य नमस्कार करते हैं. टाउनशिप की धरा ने तो अब सीमेंट का ख़ूबसूरत गाउन धारण कर लिया है.    

यदि मैं यकायक घोषित कर दूं कि आज घर में मैथी की सब्जी बनायी जाए तो वह निर्णय नोटबंदी की तरह सहज स्वीकार नहीं होता। इसके लिए रिजर्व बैंक की तरह तत्काल कदम नहीं उठाये जा सकते। निर्णय के बाद मैथी से कचरा साफ़ करना पड़ता है। पत्तियों को चुनना बहुत धैर्य का काम होता है। पत्ती पत्ती चुनना पड़ती हैं।
लहसुन की कलियां अनावृत करना पड़ती हैं। लोहे की कढ़ाई की सफाई करनी होती है।बहुत काम होते हैं. ऐसा थोड़ी कर सकते कि नए नोट तो छाप लिए मगर एटीएम तैयार ही नहीं हैं। पूर्व तैयारी करना बहुत आवश्यक है मैथी की भाजी बनाने के पहले।

मैथी आलोचना और विरोध की तरह कड़वी होती है। लोग कडुआ ज्यादा पसंद नहीं करते। कहते हैं संसार में इतनी कडुआहट पहले से है तो कड़वा और क्यों खाना। मीठा, चटपटा, खट्टा यहां तक की बे-स्वाद भी खा लेंगे मगर कड़वे का सोंचकर ही उबकाई लेने लगते हैं।

यह ठीक बात नहीं है। अटल जी भी ऐसा ही कहते थे. बहुत सी बातें अटल जी कहा करते थे. लेकिन यह कहने की परम्परा जारी है.  बीमारी के इलाज के लिए कड़वी दवाई पीना पड़ती है। गुणकारी तो कड़वा ही होता है। जो कड़वा है वह हितकारी है। कड़वा कड़वे को काटता है। भीतर का जहर मैथी से खत्म होता है। सब्जी का झोल और संत का बोल, दोनों एक सा असर करते हैं। कड़वे बोल मन-आत्मा को निर्मल करते हैं, मैथी की रसेदार सब्जी  तन और रक्त को  शुद्ध बनाती है।

कृपया कड़वी मैथी को सत्ता के विपक्ष की तरह मत देखिये,  इसका होना भोजन में लोकतंत्र बनाये रखने की जरूरत है। मैथी है तो लोकतंत्र भी है.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर-452018 



Monday, December 5, 2016

आर्थिक शुभेच्छा !

व्यंग्य
आर्थिक शुभेच्छा !    
ब्रजेश कानूनगो

आमतौर पर हम लोगों में विनम्रता और सद्भाव जैसे गुण कूट कूट कर वैसे ही भरे होते हैं जैसे गजक में गुड़ समाया होता है। तिल्ली के साथ गुड़ की कुटाई से गजक जैसी लोकप्रिय और गुणकारी मिठाई बनती है। बचपन में मन और देह के साथ सद्गुणों की कुटाई करके गुरूजी हमारा गुणी व्यक्तित्व बनाने के प्रयास किया करते थे। हालांकि उस पिटाई से मन पर कम और देह पर चोट ज्यादा लगती थी, फिर भी उसका खासा असर सिर की तेल मालिश की तरह भीतर तक हो जाता था।
 
इस प्रक्रिया में विनम्रता और सद्भाव जैसे गुणों की चाशनी स्वभाव में उसी तरह सहज बनती चली जाती थी, जैसे मुंह में लार बनती है। यह तो सभी भली प्रकार जानते हैं कि हमारी लार शरीर की कई बीमारियों को हर लेने की असीमित क्षमता रखती है. आयुर्वेदाचार्य सुबह उठते ही बासी मुंह दो गिलास पानी लार सहित पी जाने का परामर्श देते हैं। इसी तरह विनम्रता और सद्भाव की चाशनी भी लार की तरह काम करती है, जीवन में अनेक समस्याओं और कठिनाइयों से निपटने में इस दवाई का भी बड़ा योगदान होता है।

जीवन को सुगम बनाने की खातिर लोग एक दूसरे के प्रति भरपूर सद्भावनाएँ व्यक्त करते हैं। हर प्रसंग जैसे शुभेच्छाओं की बाढ़ लेकर आता है। सुख का प्रसंग हो या दुःख की घड़ी हो।खुशियों में शुभेच्छाओं के फटाके फूटते हैं और शोक में संवेदनाओं का मरहम घावों को सुखाने में तुरंत बहुतायत से जुट  जाता है।
यह मात्र औपचारिक रस्म नहीं होती है। ये हार्दिक होती हैं और सदैव हृदय से निकलकर आती हैं। किसी किसी के लिए तो यह अंतरतम की गहराइयों से बोरिंग के पानी की तरह फूटकर बहुत वेग से बाहर आती हैं।
कोई दिल से तो कोई मन से,  और कोई तो कई कई बार हृदय से शुभेच्छा व्यक्त करता है। उसका एक हार्दिक से काम नहीं चलता,  व्याकरण और भाषाई अनुशासन का दिल पे क्या लगाम।  'हार्दिक' गुणित में निकलकर दो-दो बार ह्रदय को निचोड़ देता है। संवेदनाएं भी हृदय से निकलकर अश्रुपूरित होकर भीग जाती हैं। यह होता है विनम्रता, सद्भाव ,संवेदनाओं और शुभेच्छाओं की अभिव्यक्ति का शानदार जलवा।
न जाने क्यों इन दिनों ऐसा लगता है कि भीतर कोई केमिकल लोचा हो गया है। जब भी कोई कहता है-'हार्दिक शुभेच्छाकान कुछ और रिपोर्ट करते हैं, दिमाग का रिसीवर सुनता है -'आर्थिक शुभेच्छा!'  
अब क्या कहा जाए सिवाय इसके कि हमारी ओर से भी आपको  'अश्रुपूरित आर्थिक संवेदनाएं'

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर - 452018 


आलाप विलाप पर प्रलाप

व्यंग्य
आलाप विलाप पर प्रलाप 
ब्रजेश कानूनगो 

जिस दौर में खबरिया चैनलों पर समाचार वाचक 'कर्मचारी' को 'करमचारी' उच्चारित करते हों। 'संभावना' और 'आशंका' जैसे शब्द  समानार्थी समझे जाते हों, तब मेरे किसी भाषाई 'आलाप'  के कोई ख़ास मायने नहीं हैं। मेरी बात  को  किसी बेसुरे राग में घोषित हो जाने की पूरी आशंका है। इसे  बेवजह और असमय के  ‘प्रलाप’ का  आरोप भी झेलना पड़ सकता है। फिर भी  दुस्साहस की प्रबल इच्छा से मैं बेहाल हूँ।

बात यह है कि उस रात जब बड़ी मुश्किल से काल्पनिक भेड़ों की गिनती करते हुए बस आँख लगी ही थी कि मोहल्ले के कुत्तों ने सामूहिक स्वर में कोई 'श्वान गीत' छेड़ दिया। जब नींद उचट ही गयी और वाट्सएप के सारे जीव-जंतु स्वप्नदर्शी हो चुके तो मेरे लिए इसके अलावा कोई चारा नहीं रह गया कि मैं उस अद्भुत और सुरीले 'डॉग्स गान' के आनंद में डूब जाऊं।

क्या वह कोई 'विलाप' था कुत्तों का?  विलाप था तो उन कुत्तों को आखिर क्या दुःख रहा होगा जो इस तरह समूह गान की शक्ल में यकायक वह फूट पड़ा था। यह दुःख कुत्तों को  सामान्यतः रात में ही क्यों सताता है? क्या दिन के उजाले में कुत्तों के अपने कोई  दुःख नहीं होते? अगर होते हैं तो वे उसे दिन में अभिव्यक्त क्यों नहीं करते। दिन में आखिर कुत्तों को किसका और कौनसा डर सताता है जो वे दुपहरी में अपना मुंह खोलकर विलाप नहीं करते 

कुछ लोग दिन के कुम्भकर्ण होते हैं। दोपहर की नींद निठल्लों की नींद होती है। इन नींद प्रेमियों को देश प्रेमी बनाने के लिए जगाना जरूरी है। यह कैसी हिमाकत है दुष्ट कुत्तों की जो वे थककर सोए कर्तव्यनिष्ठ और देश भक्त लोगों की नींद हराम कर देते हैं, रात के दो बजे।

थोड़ा सकारात्मक सोंचें तो यह भी संभव है कि ये कुत्ते अपनी विलुप्त हो रही किसी गायन परंपरा को जिन्दा रखने के महान उद्देश्य से रात को समवेत स्वर में 'आलाप' लेने का अभ्यास करते हों।  जो भी हो इनकी  निष्ठा असंदिग्ध है । पूरे मन से एक साथ, एक स्वर में इनकी तेजस्वी  प्रस्तुति न सिर्फ प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय कही जा सकती है। अन्य प्राणी समाज में पुरानी परंपराओं को बचाने की यह प्रवत्ति देखना अब दुर्लभ है। मनुष्य समाज में तो अब हरेक का अपना अलग राग है, अपना अलग रोना है। हमें यह सामूहिकता कुत्तों से सीखनी चाहिए।

मुझे लगता है पाठक मेरे इस 'प्रलाप' को पढ़कर 'आलाप' और  'विलाप' का अंतर अच्छे से समझ गए होंगे। न भी समझे हों तो कौनसी मुझे इसके लिए पगार मिल रही है। जिन्हें पगार मिलती है, उन्होंने कौन से झंडे गाड़ दिए हैं हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण में। 

ब्रजेश कानूनगो 
503,
गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर-452018