Saturday, October 21, 2023

बिकाऊ हो गए सच और झूठ

बिकाऊ हो गए सच और झूठ

वे सुबह सुबह मेरे घर आए। थोड़ा परेशान लग रहे थे। क्या बात है साधुरामजी? क्या आज फिर माइग्रेन का दौरा पड़ा है?

कोई दौरा वोरा नहीं पड़ा है। समय का ऐसा दौर आएगा हमारे जीते जी, कभी सोचा नहीं था। वे बोले। आखिर हुआ क्या है? हमने पूछा तो उबल पड़े, कहने लगे, माना कि इस कलियुग में सब कुछ बिकता है लेकिन इतना पतन हो जाएगा। यह तो अति ही हो गई है कि रावण भी बिक रहे हैं बाजार में। सस्ते-महंगे हर भाव मे मिल रहे हैं। ग्यारह सौ से लेकर सवा लाख रुपयों तक के रावण उपलब्ध हैं।

तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है साधुरामजी। आदमी बिकते हैं इस समाज में तो पुतलों के बिकने में कैसी परेशानी। आप भी खरीद लाइये और जला दीजिये अपने आंगन में दशहरे पर। रावण के पुतले का दहन करके हम समाज में घुस आई बुराइयों को जला डालते हैं और आने वाले समय के लिए अपना शुद्धिकरण कर लेते हैं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की।

तुम्हारी ये आदर्श बातें अपने तक ही सीमित रखो। यदि ऐसा हो रहा होता तो हम अब तक सतयुग में लौट गए होते। घर,मोहल्ले के कूड़ा करकट को बोरी में भरकर बचपन में हम भी रावण बनाते थे और मोहल्ले के मैदान में दहन करते थे। दशहरा समितियां भी अपने बड़े बड़े रावण के पुतले बनवाया करती थीं। पर अब ये घरों घर रावण का पुतला जलाना? बाजार में पुतलों का बाजार सजना? रावण कोई ऐसी शख्सियत थी जिसको इतना भाव दिया जाए? इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। साधुरामजी अपनी रौ में बोलते जा रहे थे।

साधुरामजी, यह आपके जमाने वाला कलियुग नहीं है। यह बाजारयुग है। इस युग में अच्छा बुरा सब माथे लगाने योग्य है। जहां से जैसे भी मुद्राओं का आगमन सम्भव हो वह काम करना समय की रीत है। सच भी बिकता है और झूठ भी। आदमी भी बिकता है और पुतला भी। इसमें कोई नैतिक अनैतिक वाला प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आप अधिक बेचैन न होइए, बीपी बढ़ जाएगा आपका! मैंने कहा।

लेकिन यह भी तो देखिए एक पुतला ग्यारह सौ का है,एक पांच हजार का और कुछ तो सवा लाख रुपयों तक की कीमतों के हैं। पुतला जब प्रतीकात्मक है तो वे एक जैसे भी हो सकते हैं। एक साइज और एक जैसी सामान्य कीमतों के। हर व्यक्ति खरीद सके। साधुरामजी ने अपने को थोड़ा सहज बनाने का प्रयास किया।


साधुरामजी मैं आपको समझाता हूँ ठीक से। देखिए आपने भी माना है कि रावण का पुतला तो बुराई का प्रतीक मात्र है,जिसे जलाकर हम अपनी बुराइयों पर विजय का संकल्प लेते हैं हर साल। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने भीतर के भ्रष्टाचार रूपी रावण को नष्ट करने का संकल्प लेना चाहता है तो वह पुतला खरीद कर अपने आंगन में उसका दहन करेगा ही न! मैंने कहा।

लेकिन इसके लिए सवा लाख कीमत के पुतले की क्या आवश्यकता है? साधुरामजी बोले।

वह इसलिए साधुरामजी कि जो व्यक्ति हजार रुपयों तक का भ्रष्टाचार करता होगा वह क्यों कर महंगा रावण खरीदेगा। अपनी अपनी बुराइयों की साइज के हिसाब से ही तो रावण दहन करेगा न ! जितना बड़ा दोष, उतना बड़ा रावण खरीदेगा। बड़ी कॉलोनी में ज्यादा लोग रहते हैं तो बड़ा और महंगा रावण जलाना पड़ेगा। मैंने समझाया।

इस विश्लेषण को सुनते ही साधुरामजी पूरी तरह सामान्य हो गए। चिर परिचित अंदाज में ठहाका लगाकर बोले, क्या खूब कही आपने, अब समझ आया कि राजधानियों में इतने बड़े बड़े रावण क्यों जलाए जाते हैं।


ब्रजेश कानूनगो