Wednesday, December 27, 2023

प्रतिरोध में लौटाना

प्रतिरोध में लौटाना

 
समझ में नहीं आ रहा मैं क्या लौटाऊं। लौटाने के लिए अपने पास कुछ होना भी तो चाहिए। जिसे पहले कुछ मिला हो वही तो लौटाने के बारे में सोच सकता है।
हां, बचपन में जब एक बार किसी कक्षा में पहले नंबर पर आया था तब दादा जी ने जरूर खुश होकर अपना पैन इनाम में दे डाला था। अन्याय के खिलाफ वही पेन लौटाकर में अपना विरोध जता सकता हूं लेकिन स्टील का वह बॉलपेन अभी भी मेरे पास दादाजी की स्मृतियों के रूप में धरोहर की तरह रखा हुआ है जिसे लौटाकर में अपने अच्छे दिनों की याद को धुंधलाना नहीं चाहता।  मैं अन्ना हजारे जैसा कोई महान आंदोलनकारी भी नहीं रहा कि अपना पद्मश्री सम्मान लौटा कर प्रतिरोध से सरकार की नाक में दम कर डालूं। बहुतों के पास तो और भी मौके होते हैं। सम्मानों का ढेर लगा होता है। पद्मश्री ही क्या पद्म भूषण लौटने का भी चांस बन जाता है। सम्मानों की संदूक भरी होती है कुछ के पास, एक-एक करके लौटते जाएं क्या फर्क पड़ता है। 
मुश्किल तो हम जैसे कंगलों की है। गुस्सा तो मुझे भी बहुत आता रहता है। आहत होकर मैं भी विरोध भी दर्ज कराना चाहता हूं लेकिन तरीका ही नहीं सूझ रहा।
मैं कोई ऐसा खिलाड़ी भी नहीं हूं जिसे कोई पदक वगैरा मिला हो अन्यथा पदक लौटाकर ही अपना गुस्सा व्यक्त कर देता। थोड़ा बहुत कहानी कविता जरूर लिख लेता हूं पत्र पत्रिकाओं  में। बेहतर सामग्री के अभाव में मेरी रचनाओं का उपयोग भी कर लिया जाता है लेकिन केवल इतने से ही ज्ञानपीठ या अन्य साहित्य सम्मान और पुरस्कार तो नहीं दे देता कोई, तो वह भी मेरे पास नहीं है लौटाने के लिए। 
ऐसा नहीं है कि पुरस्कार या सम्मान पाने की कोई इच्छा मेरे भीतर कभी रही नहीं। बहुत हाथ पैर मारे हैं। देशभर के हिंदी प्रदेशों और कई गैर हिंदी भाषी राज्यों की संस्थाओं के प्रस्ताव आए थे कि भाई ले लो एक अदद पुरस्कार ले लो, लेकिन मेरी ही मती मारी गई थी जो वांछित सहयोग राशि का इंतजाम नहीं कर सका। अब पछता रहा हूं। तब विवेक से काम लेता और पत्नी का सोना बेचकर ही कोई सम्मान खरीद लेता तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। आज वही सम्मान तेरा तुझको अर्पण के भाव से लौटाकर विरोध भी हो जाता और इज्जत भी रह जाती। 
लिहाजा मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं जिसे लौटा सकूं। एक डिग्री जरूर है, जब मिली थी तब सोचा था उसको ध्वज की तरह लहराते हुए सफलता का रास्ता तय कर लूंगा, लेकिन अब उसे लौटना भी क्या लौटाना हुआ!  कहा गया है कि इज्जत उसकी जाती है जिसकी होती है। ठीक उसी तरह मेरी मूल्यहीन डिग्री को लौटाने पर भी प्रतिरोध का क्या कोई मूल्य रहेगा। 
बड़े बड़े सम्मानित व्यक्तियों का मजाक बनता रहा है। अतः मुझे माफ कीजिएगा मैं उन महान लोगों में शामिल नहीं हो सकता जो कुछ पाकर नहीं कुछ लौटाकर अपना आक्रोश व्यक्त कर सकूं।  इतना जरूर है कहीं न कहीं अपनी मुस्कान और खुशी का कुछ हिस्सा जरूर मेरे पास से लौट गया है। इसके लौटने में जो थोड़ा बहुत प्रतिरोध का अंश है,सामान्यतः वह किसी को नजर नहीं आ रहा। 

ब्रजेश कानूनगो  

Saturday, October 21, 2023

बिकाऊ हो गए सच और झूठ

बिकाऊ हो गए सच और झूठ

वे सुबह सुबह मेरे घर आए। थोड़ा परेशान लग रहे थे। क्या बात है साधुरामजी? क्या आज फिर माइग्रेन का दौरा पड़ा है?

कोई दौरा वोरा नहीं पड़ा है। समय का ऐसा दौर आएगा हमारे जीते जी, कभी सोचा नहीं था। वे बोले। आखिर हुआ क्या है? हमने पूछा तो उबल पड़े, कहने लगे, माना कि इस कलियुग में सब कुछ बिकता है लेकिन इतना पतन हो जाएगा। यह तो अति ही हो गई है कि रावण भी बिक रहे हैं बाजार में। सस्ते-महंगे हर भाव मे मिल रहे हैं। ग्यारह सौ से लेकर सवा लाख रुपयों तक के रावण उपलब्ध हैं।

तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है साधुरामजी। आदमी बिकते हैं इस समाज में तो पुतलों के बिकने में कैसी परेशानी। आप भी खरीद लाइये और जला दीजिये अपने आंगन में दशहरे पर। रावण के पुतले का दहन करके हम समाज में घुस आई बुराइयों को जला डालते हैं और आने वाले समय के लिए अपना शुद्धिकरण कर लेते हैं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की।

तुम्हारी ये आदर्श बातें अपने तक ही सीमित रखो। यदि ऐसा हो रहा होता तो हम अब तक सतयुग में लौट गए होते। घर,मोहल्ले के कूड़ा करकट को बोरी में भरकर बचपन में हम भी रावण बनाते थे और मोहल्ले के मैदान में दहन करते थे। दशहरा समितियां भी अपने बड़े बड़े रावण के पुतले बनवाया करती थीं। पर अब ये घरों घर रावण का पुतला जलाना? बाजार में पुतलों का बाजार सजना? रावण कोई ऐसी शख्सियत थी जिसको इतना भाव दिया जाए? इसे नैतिक नहीं कहा जा सकता। साधुरामजी अपनी रौ में बोलते जा रहे थे।

साधुरामजी, यह आपके जमाने वाला कलियुग नहीं है। यह बाजारयुग है। इस युग में अच्छा बुरा सब माथे लगाने योग्य है। जहां से जैसे भी मुद्राओं का आगमन सम्भव हो वह काम करना समय की रीत है। सच भी बिकता है और झूठ भी। आदमी भी बिकता है और पुतला भी। इसमें कोई नैतिक अनैतिक वाला प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आप अधिक बेचैन न होइए, बीपी बढ़ जाएगा आपका! मैंने कहा।

लेकिन यह भी तो देखिए एक पुतला ग्यारह सौ का है,एक पांच हजार का और कुछ तो सवा लाख रुपयों तक की कीमतों के हैं। पुतला जब प्रतीकात्मक है तो वे एक जैसे भी हो सकते हैं। एक साइज और एक जैसी सामान्य कीमतों के। हर व्यक्ति खरीद सके। साधुरामजी ने अपने को थोड़ा सहज बनाने का प्रयास किया।


साधुरामजी मैं आपको समझाता हूँ ठीक से। देखिए आपने भी माना है कि रावण का पुतला तो बुराई का प्रतीक मात्र है,जिसे जलाकर हम अपनी बुराइयों पर विजय का संकल्प लेते हैं हर साल। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने भीतर के भ्रष्टाचार रूपी रावण को नष्ट करने का संकल्प लेना चाहता है तो वह पुतला खरीद कर अपने आंगन में उसका दहन करेगा ही न! मैंने कहा।

लेकिन इसके लिए सवा लाख कीमत के पुतले की क्या आवश्यकता है? साधुरामजी बोले।

वह इसलिए साधुरामजी कि जो व्यक्ति हजार रुपयों तक का भ्रष्टाचार करता होगा वह क्यों कर महंगा रावण खरीदेगा। अपनी अपनी बुराइयों की साइज के हिसाब से ही तो रावण दहन करेगा न ! जितना बड़ा दोष, उतना बड़ा रावण खरीदेगा। बड़ी कॉलोनी में ज्यादा लोग रहते हैं तो बड़ा और महंगा रावण जलाना पड़ेगा। मैंने समझाया।

इस विश्लेषण को सुनते ही साधुरामजी पूरी तरह सामान्य हो गए। चिर परिचित अंदाज में ठहाका लगाकर बोले, क्या खूब कही आपने, अब समझ आया कि राजधानियों में इतने बड़े बड़े रावण क्यों जलाए जाते हैं।


ब्रजेश कानूनगो

Monday, July 24, 2023

मौसी आई है इस बार

मौसी आई है इस बार

सुना है यूपी की किसी मंत्री महोदया ने टमाटरों के महंगे हो जाने पर सुझाव दिया है कि जो महंगा हो उसे खाना छोड़ दें या फिर अपने घर के गमलों में टमाटर उगाएं !  यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। कई देशप्रेमी लोग तो राष्ट्रीय गौरव में महंगाई को कोई बुरी बात भी नहीं मानते। यह एक मौसमी दुर्घटना है जिसे सहजता से स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। दरअसल महंगाई बेचारी तो राजनीतिक क्षेत्रों में हर बार यूंही विषय या मुद्दा बन जाती है। जो लोग इसे डायन कहकर अपमानित करते हैं वे आम लोगों की जीवनशैली को समझते ही नहीं। आना जाना जीवन चक्र है। प्रकृति हो या इंसान का जीवन यह चक्र चलता रहता है। वाट्स एप पर आया भारतीय दर्शन भी यही कहता है।

आमतौर पर  लगता तो यही है कि महंगाई फिर लौट आई है। अच्छा लौटता है। बुरा लौटता है।अच्छा बुरा सब लौटकर आ ही जाता है। मौसम और ऋतुएं लौटती हैं। गर्मी जाती है तो बारिश लौट आती है। बाढ़, सुनामी,भूकम्प सब लौट लौट आते हैं। पतझड़ जाता है तो बसंत लौट आता है। दुख के बाद सुख लौटता है। रुदन के बाद मुस्कुराहट लौटती है। तालिबान लौटता है, हिटलर लौट आते हैं। रूपांतरित होकर साम्राज्यवाद लौटता है, समाजवाद के खंडहरों में हरियाली की बिदाई के बाद पूंजीवाद की जैकेट पहनकर प्रजातंत्र लौट आता है।  आतंकवाद लौटता है। दूर का,पास का,अच्छा आतंकवाद, बुरा आतंकवाद सब लौटते हैं। इमरजेंसी लौटती है। नाम बदलकर लौटते हैं तो कभी उसी तरह लौट आते हैं जैसे पहले आए थे। लौट लौट आना इस सृष्टि की रीत है।

अवतारी पुरुष लौट आते हैं। सोने की चिड़िया लौट आती है। स्वस्थ होने पर तन लौटता है, मन स्वस्थ होने पर सनातन लौट आता है। ऐसे में पहले की 'महंगाई ' लौट आती है तो किसी को कोई दिक्कत कैसे हो सकती है!  महंगाई डायन पहले भी आई थी। आती रहती है। इसका आना प्रकृति सम्मत है। वैसे भी वह बर्फ में दबे जीव की तरह हमेशा जिंदा रहती है। थोड़ी गर्मी पड़ी कि बर्फ पिघलने लगती है और यह डायन पुनः धरातल पर दृष्टिगोचर हो जाती है। 

हम शोर मचाने लगते हैं कि 'महंगाई डायन' लौट आई है। दरअसल वह गई ही कहाँ थी? यहीं बर्फ के नीचे दबी अपने को संस्कारित कर रही थी। अबकी लौटी यह डायन पहले जैसी बुरी आत्मा नहीं है। संस्कारित होकर 'अच्छी डायन' बनकर आई है। इसलिए इसके आने से किसी को कोई परेशानी नहीं है। उल्टे इसकी प्रशंसा है कि इसने अपने को संस्कारित कर लिया है। इसके संस्कारित होने से लोगों की क्रय क्षमता में उछाल आए या न आए किन्तु जीडीपी में वृध्दि अवश्य होगी।

स्वागत है 'अच्छी डायन', माफ करें ,स्वागत है महंगाई मौसी,मौसीजी । पहले तुम साठ, सत्तर रुपयों में एक लीटर पेट्रोल से आग लगा देती थी, अस्सी रुपयों के सरसों तेल में बने भोजन से भी परिवार भूख से बिलखने लगते थे। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं था। तुम्हारे पास संस्कार नहीं थे, तुम्हारा चरित्र ही भ्रष्ट था। अब ऐसा नहीं है। अब तुम अच्छी हो गई हो प्रिय महंगाई।

अब सौ से ऊपर के पेट्रोल और डेढ़ सौ रुपयों के खाद्य तेल में भी हमारा जीवन खुशहाल है। हमें कोई आपत्ति नहीं है मौसीजी। तुम आराम से रहो। हममें से अधिकांश को जीने की आवश्यक सामग्री हमारी संवेदनशील सरकारें निशुल्क उपलब्ध करा ही रही हैं। जो थोड़े उच्च वर्ग के लोग हैं उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, वे वितरक हैं,उत्पादक हैं। मध्यमवर्गीय लोग झंडा उठाए हैं।  तो प्यारी महंगाई मौसीजी तुम बिल्कुल हमारी चिंता मत करो और जब तक चाहो,यहाँ रहो। तुम अब चरित्रवान हो गई हो, भली और ममतामयी हो गई हो, यही क्या कम बड़ी बात है। तुम्हे अब डायन कोई नहीं कहेगा, आराम से रहो। 

मंत्रीजी ने ठीक ही कहा है, टमाटर ही क्या, जो भी महंगा होगा उसे हम घर में उगा लेंगे। इस्तेमाल करना छोड़ देंगे। महंगाई से राहत का यह बड़ा अच्छा उपाय सुझाया है माननीय ने। क्यों न हम लोग महंगी शक्कर खरीदने से बचने के लिए आज ही आंगन में गन्ने की बुवाई शुरू करने की पहल करें। पेट्रोल के इंतजाम के लिए बेकयार्ड में तेल के कुएं खोदने में जुट जाएं। आत्म निर्भर बनना हमारे लिए ही नहीं देश के लिए भी सचमुच गौरव की बात होगी।

ब्रजेश कानूनगो



कच्चे कान वालों की व्यथा

कच्चे कान वालों की व्यथा


जंगल का राजा जब शिकार की तलाश में निकलता है तो जरा सी हलचल या आहट उसके कान खड़े कर देती है। आम बस्तियों में भी चूहों के इंतजार में बिल्लियां सदैव अपने कान खड़े किए इधर उधर सूंघती फिरती हैं। शिकारियों के मजबूत इरादे उनके कान से होकर गुजरते हैं। शिकार को कानों कान ख़बर नहीं होने देते कि कभी भी उन्हें दबोचा जा सकता है।  कानों को लेकर यह प्रवृत्ति इंसानों  में भी प्रायः देखी जा सकती है।

कुछ लोग कान के बड़े कच्चे होते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों के कान बहुत नाजुक होते हैं और हल्की सी बात का भार वे अधिक देर तक उठा नहीं पाते होंगे। बात ठीक इससे उलट है।दरअसल किसी व्यक्ति का कान का कच्चा होना इस बात का प्रमाण होता है कि उस व्यक्ति का कान नहीं बल्कि मन बड़ा कोमल होता है। ऐसे लोगों को सच्चा,झूठा कुछ भी कह दो वे विश्वास कर लिया करते हैं।  चतुर और अपना हित साधने वाले पक्के लोग सदैव कच्चे कानों की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही उनके कानों पर कब्जा कर लेते हैं।

कान के कच्चे होने को गुण या दुर्गुण जो भी कह लें किंतु  धारण करने वाले सुपात्रों के कानों में स्वार्थ सिद्धि का मंत्र फूंक कर मंतव्य साधा जा सकता है। उन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। इन दिनों यह अभियान हर क्षेत्र में जोर शोर से जारी है। चाहे आपको अपना उत्पाद बेचना हो या विचार। धरती, समुद्र और आकाश की बोलियां लगानी हो। लोकतंत्र के बाजार में वोटर खरीदना हो या विधायक, कच्चे कान वाले भोले लोगों का शिकार जारी है। हमारे इस प्रलाप से कहीं आपके कान ही न पकने लगे हों लेकिन यह हकीकत है। सोशल मीडिया,अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए हम सबके कानों में ऐसे ही मंत्र फूंके जा रहे हैं।

आंखों देखी और कानों सुनी का मुहावरा अब  अर्धसत्य है। किसी की आंखों देखी,कानों तक पहुंचते पहुंचते सच्चाई खो देती है। हमारी आंखों देखी हमारे ही कानों में झूठ की झंकार बनकर लौट आती है। सच की पड़ताल की फाइलों को झूठ की तिजोरियों में बंद कर दिया जाता है। दीवारों के कान तो होते ही नहीं, दीवारों की जुबानें भी नहीं होती।

आपने सुना होगा,ऊंचाई पर पहुंचने पर हमारे कान बंद हो जाते हैं। लोग पहाड़ चढें या हवाई जहाज में उड़ें, सत्ता का सिंहासन हो या समृद्धि का शिखर, कानों पर एक सा असर डालते हैं। ऊपर वाले को कुछ सुनाई नहीं देता। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। नीचे खड़ा आदमी गलत कहता है कि ऊपर वाले ने कानों में तेल डाला हुआ है। दरअसल वह सुनने की स्थिति में होता ही नहीं। यह उसकी चढ़ाई का अंतिम पड़ाव होता है। प्रारंभ में उसे एक कान से सुनाई भी देता है लेकिन दूसरे कान से निकल जाता है। कान से वह अनुलोम विलोम भी नहीं कर पाता है। कान बंद हो जाते हैं। उसके कानों पर किसी भी पुकार से जूं तक नहीं रेंगती। घंटे,घड़ियाल और नगाड़ों के भारी शोर से भी इस समस्या का उपचार नहीं हो पाता।  हम आप जैसे कान के कच्चे लोग इन पक्के लोगों की इस परेशानी को समझ ही नहीं सकते!

ब्रजेश कानूनगो





 

Thursday, July 20, 2023

वीडियो जनित संवेदना

वीडियो जनित संवेदना

साधुरामजी क्षुब्ध थे। आते ही बोले, मणिपुर की शर्मनाक घटना का वीडियो आज ही आना था क्या? यह सब षड्यंत्र है। देश विरोधी ताकतें ऐसे मौकों का इंतजार करती रहती हैं,जब हमारी संसद या विधान सभा का सत्र शुरू होता है तब ही ये लोग ऐसी हरकतें करते हैं। हमारे देश और प्रजातंत्र को बदनाम करने का शर्मनाक तरीका है यह।

लेकिन साधुरामजी मणिपुर तो कई महीनों से जल रहा है। इंटरनेट भी बंद हैं। खुद वहां के मुख्यमंत्री ने कहा है कि ऐसी अनेक घटनाएं हुईं हैं, जिन पर जल्दी ही सख्त कदम उठाए जाएंगे। अपराधियों को छोड़ा नहीं जाएगा। मैने कहा।

राज्य ने केंद्र को खबर देने में लगता है विलंब कर दिया। वो तो अच्छा हुआ कहीं से यह वीडियो देश के लोगों तक पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेकर सरकारों से अपनी ओर से जवाब तलब किया। तब जाकर...। मैं अपनी बात पूरी करता उसके पहले ही साधुरामजी बोल पड़े...

सच कहा आपने। पीएम भी इस अप्रत्याशित घटना और आकस्मिक सूचना से कितने दुखी हो उठे हैं। घटना घटते ही खबर मिल जाती तो अब तक तो अपराधी फांसी पर झूल रहे होते।

लेकिन गृह विभाग की अपनी भी प्रणाली होती है, गुप्तचर होते हैं,एजेंसियां होती हैं जो गृहमंत्रालय को सचेत कर सकती थीं। मैने बात आगे बढ़ाई।

वो सब तो ठीक है,पर वीडियो कहां आया था अब तक। वीडियो आना जरूरी है। संवेदना और चेतना तभी जागृत हो पाती है जब वीडियो आता है। 

यह ग्लोबल विश्व का डिजिटल भारत है, बिना वीडियो साक्ष्य के कार्यवाही आगे नहीं बढ़ती। महिला पहलवान भी वीडियो नहीं दे पाए थे तो न्याय में विलंब होता गया। कोई वीडियो आता है तभी माहौल बनता है, चेतना जागृत होती है,क्षोभ या गौरव का भाव स्खलित होने की स्थितियां निर्मित हो पाती हैं। किसी वायरल वीडियो से ही पता चलता है कि हम तरक्की कर रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं,विश्व में हमारा डंका बज रहा है। वीडियो आता है तभी पता चलता है कि बाहर के मुल्कों में किस तरह कुछ लोग हमें बदनाम कर रहे हैं। साधुरामजी ने स्पष्ट किया।

ये बात तो ठीक कही आपने। कुछ समय पहले एक मुख्यमंत्री ने भी भ्रष्टाचार रोकने के उपाय करते हुए अपने नागरिकों से कहा था, आप लोग रिश्वत मांगने वाले व्यक्ति को रिश्वत दे दें लेकिन उसका वीडियो बनाकर मुझे भेज दें। हम कारवाही करेंगें। मैने ज्ञान बघारा।

तो क्या वह प्रदेश अब भ्रष्टाचार मुक्त हो गया है? साधुरामजी ने जिज्ञासा व्यक्त की। 

पता नहीं! फिलहाल तो वहां के मंत्रीगण ही भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद हैं और किसी वीडियो के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि आरोप से मुक्त हो सकें। 

लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि कोई वीडियो सच्चा ही होगा। आजकल तो तकनीक इतनी आगे बढ़ गई है कि साधुरामजी के चेहरे पर किंग चार्ल्स की मुंडी चिपकाई जा सकती है। किसी की आवाज में अमिताभ बच्चन की खनक पैदा की जा सकती है। सुपर स्टार राजेश खन्ना की कही बात ही ठीक लगती है, दिल सच्चा और चेहरा झूठा!  मैने चुहुल की।

झूठ के बहुत सारे गवाह और सच के साक्ष्य भले ही कम ही क्यों न हों लेकिन न्यायमूर्ति की अदालत में सच्चाई आज भी प्रायः सामने आ ही जाती है, वीडियो उपलब्ध हो या न हो।  वे बोले।

पर यह तो तय है कि नींद उड़ाने के लिए वीडियो बहुत जरूरी होता है। मैने कहा। लेकिन ऐन संसद सत्र के शुरू होते ही वीडियो का आना तो निश्चित ही कोई षडयंत्र होगा। साधुरामजी बात पर अब भी दृढ़ थे।

जो भी हो मैं तो बिग बी साहब की बात पर विश्वास करता हूं जो उन्होंने त्रिशूल फिल्म में कहे थे, कोई चीज सही वक्त और सही मौके पर की जाए तो उसकी बात ही कुछ और होती है। उसका असर होता है। किसी को इसी मौके और वक्त का इंतजार रहा होगा साधुरामजी! मैने कहा तो वे खिन्न हो गए।

ब्रजेश कानूनगो  



Monday, July 17, 2023

डूबे हुए लोग

डूबे हुए लोग 


दुनिया में कुछ भी होता रहे,यदि अपने मतलब का नहीं है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह वह समय है जब हर व्यक्ति अपने में ही डूबा रहता है। पहले आदमी कुएं,बावड़ी,तालाब या नदी में डूबता था। समुद्र में डूबने के लिए थोड़ी तैयारी और प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। अब अपने ही भीतर के महासागर में कभी भी डूबा जा सकता है। तैरना नहीं आने पर डूबने वाला आदमी ज्यादातर हमेशा के लिए डूब जाता था, लेकिन अपने में डूबे आदमी को बाहर निकलने की सुविधा रहती है। वह जब चाहे डूब सकता है और जब चाहे बाहर निकलकर औरों को डूबने के लिए प्रेरित कर सकता है। 

बहरहाल महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी के कुछ भी हो जाने को कोई अब रोक नहीं सकता। न ही किसी को कोई फर्क पड़ता है कि वह क्यों कर ऐसा हो गया। वो जमाना लद गया जब बाप गुस्से में आग बबूला होते हुए माँ पर आँखें तरेरता हुआ चीख उठता था- 'सुनती हो भागवान! तुम्हारा लाडला 'आवारा' हो गया है।'

समय समय की बात है। अब बाप अपने में ही ऐसा डूबा रहता है कि बेटा हत्यारा हो जाए तो भी बाप के माथे पर शिकन तक नहीं आती। ‘न्यू इंडिया’ का नया बाप जानता है कि बेटा अब 'भारत' नहीं रहा। भारत के भीतर के ‘प्रेम’ और आदर्शों को वक्त नें 'प्रेम चोपड़ा’ ने बदल कर रख दिया है। 

‘मदन’ का चाकू 'पुरी' हो या 'भटिंडा' कहीं भी खुले आम अपने जलवे दिखा सकता है। अब कोई ‘बलराज’ अपने बेटे को ‘परीक्षित’ का तमगा लगवाना नहीं चाहता। नए जमाने मे सब बेटे बिना मेहनत किये 'अजेय' बने रहना चाहते हैं। कोई बाप उन्हें बदलने का दुस्साहस चाहकर भी कर नहीं सकता। यह मजबूरी है माँ बाप की। दौलत और जायदाद के लालच में बाप की जान को बेटे की लायसेंसी बन्दूक से खतरा है। 

खतरा तो बाप से बेटी को भी हो गया है। अब ‘ओमप्रकाश’ या ‘नाजिर हुसैन’ से भावुक बाप भी कहाँ देखने को मिलते हैं। ‘जीवन’ दादा और ‘के एन सिंह’ के क्लोन मुहल्ले मुहल्ले बेटा बेटियों पर अत्याचार में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

बात केवल घर परिवार की ही नहीं है। बदलाव की यह प्रवत्ति इससे आगे बढ़कर नागरिक समाज की रगो में प्रवेश कर चुकी है। लोग क्या हो जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छा भला आदमी न जाने कब रूप बदलकर भेड़ में बदल जाए और किसी गड़रिये के पीछे पीछे  भेड़ों का कोई झुंड लहलहाती खुशहाल फसल को बर्बाद कर दे। गड़रिये को चतुर लोमड़ ‘कन्हैयालाल’ या खूंखार लॉयन ‘अजीत’ हो जाने से कोई रोक नहीं सकता।

अब कोई कभी भी शेर हो सकता है, गधा, बन्दर, चूहा भी हो सकता है। भैंस भी हो सकता है। कोई भरोसा नहीं रहा कि कौन कब क्या हो जाए। भरोसे की भैंस पाड़ा जने या फिर कीचड़ में उतर कर मजे करे, किसी को क्या फर्क पड़ने वाला। नेता अभिनेता हो जाए, अभिनेता अर्थशास्त्री, योगाचार्य व्यवसायी,पड़ोसी थानेदार, टीवी एंकर जज में बदल जाए... कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी चैनल का एंकर पत्रकार नहीं किसी राजनीतिक दल का वकील होता गया है...अब न्यायाधीश के पद पर है तब ऑन लाइन कार्यक्रम में उत्तेजित प्रवक्ता विरोधी प्रवक्ता का कॉलर पकड़ लेता है। यारां! की फरक पैंदा जी !!

किसी पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता कि नए लेखक की पुस्तक का ब्लर्व किसी गुणी विद्वान के नाम से खुद प्रकाशक ने ही लिख दिया है। अखबार में साहित्य पृष्ठ पर पुस्तक की छपी समीक्षा खुद लेखक ने ही तैयार करके संपादक को प्रेषित कर दी है। 
जब लेखक खुद ही अपने आपको 'प्रेमचंद ' या  ‘परसाई’ समझने लगे तो पाठकों को क्या फर्क पड़ने वाला है। वाट्सएप यनिवर्सिटी से कितने ही नए ‘गुलजार’,’नीरज’, ‘बच्चन’ और ‘अटल बिहारी’ निकलकर आ रहे हैं। अब कोई प्रदीप के गीत को बीन की तरह सुन रहा हो तो जरूरी नहीं कि वह रसिक श्रोता ही होगा। वह इच्छाधारी भैंस भी हो सकती है। क्या फर्क पड़ता है इससे किसी को। आप तो बस डूबे रहिए और दूसरों को भी डूबे रहने को प्रेरित करते रहिए। यह डूबे हुए नए समाज का नया दौर है !  

ब्रजेश कानूनगो 

पारदर्शिता : एक समदर्शी चिंतन

पारदर्शिता : एक समदर्शी चिंतन


आज जरा दर्शन की बात करते हैं। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं और नहीं दर्शन का कोई अध्येता। हां,एक दर्शक जरूर हूं किंतु दृष्टा नहीं। बस चुपचाप दर्शन में लगा रहता हूं। दर्शन बोले तो देखना,निहारना, टापते रहना वाला दर्शन। गांधी या मार्क्स वाला मत समझ लीजियेगा इसे। 

जब कहीं कोई अवांछित बाल देखता हूं उसकी खाल उधेड़ने में मुझे बड़ा मजा आता है। इसलिए मैं जो इन दिनों देख रहा हूं उसमें मुझे कुछ बाल नजर आए तो मन किया कि थोड़ा प्रलाप किया जाए।  यों जब भी भोजन करते वक्त मेरी दाल या सब्जी में कोई बाल निकल आता है, मैं चुपचाप उसे हटा देता हूं कुछ बोलता नहीं। लेकिन कहीं और नजर आ जाए तो हाजमा खराब हो जाता है। किसी सुंदरी की फटी जींस में से घुटना दिखने पर भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह मेरा सौंदर्य बोध है। लेकिन  प्रायः भाषाई दर्शन में कुछ आपत्तिजनक दिख जाता है तो मैं बौखला जाता हूं। आज ऐसा ही कुछ हो रहा है मेरे साथ। 

एक होता है समदर्शी और एक होता है पारदर्शी। बड़े कमाल के होते हैं ये दोनों शब्द। समदर्शी तो एक मायने में ठीक ही लगता है, सबको एक निगाह से देखना और एक लाठी से हांक देना जैसी फिजूल बातों को यदि छोड़ दें तो समान नागरिकता कानून की तरह यह एक बेहतरीन राष्ट्रवादी विचार है। आज मुझे पारदर्शी शब्द में कुछ काला काला नजर आ रहा है। उसी पर विमर्श को केंद्रित रखते हैं।

जब भी कोई घोटाला उजागर होता है अपने बचाव में आरोपी पक्ष कहता है –'हमने तो सम्पूर्ण पारदर्शिता बरती थी. 'लेकिन घोटाला हो गया है।' घोटाले के दैत्य पर पारदर्शिता के सुकोमल शब्द-पंख  चिपका कर पूरे प्रकरण को अक्सर मनोहारी रूप देकर उड़ा देने  के प्रयास होने लगते हैं।

पारदर्शिता का यह नया मुहावरा इन दिनों बहुतायत से चलन में है।व्यक्ति हो, प्रशासन हो या नीति या प्रक्रिया अपनाने की बात हो, हर कहीं  'पारदर्शिता' की फिटकरी घुमाकर गन्दगी का तलछट हटाने की कोशिश की जाने लगती है। आदमी भले ही बेईमान हो लेकिन उसका व्यक्तित्व पारदर्शी कहा जाता है, ऐसी प्रक्रिया भले ही अपनाई गई हो जिससे देश के राजस्व को चूना लगा हो लेकिन उसे सौ प्रतिशत पारदर्शी सिद्ध करने की कोशिश की जाने लगती है।

आखिर यह पारदर्शी क्या है? शाब्दिक रूप से समझा जाए तो ऐसी चीज जिसके आर-पार देखा जा सके, जैसे कांच  होता है, ठहरा हुआ जल होता है, चश्मे का लेंस होता है। पारदर्शी व्यक्तित्व के अन्दर और उसकी पीठ के पीछे जो कुछ छुपा हुआ हो स्पष्ट नजर आ सकता है,वह छुपा नही रह सकता,बल्कि देखा जा सकता है।

प्रश्न यह उठता है कि अगर किसी व्यक्ति विशेष का व्यक्तित्व पारदर्शी है तो क्या वह इतना पारदर्शी हो सकता है कि अपने अन्दर होने वाली या उसकी आड लेकर की जानेवाली सारी   बेइमानियों को स्पष्ट नजर आने देगा ? 

क्या उसमे इतनी पारदर्शिता बनी रह सकेगी या वह स्वार्थ  की धुन्ध से  अपनी असली  पहचान को ही ओझल बना कर लोगों को   भ्रमित करने की  चेष्टा करेगा ?  यह भी हो सकता है कि उसकी पारदर्शिता किसी लेंस की तरह हो जो वास्तविकताओं को छोटा या  बडा अथवा विकृत बना कर प्रस्तुत कर दे।

कई राज्यों  के दावे रहते हैं कि उनकी सरकार और उनका प्रशासन जनता को  पारदर्शिता उपलब्ध कराने को प्राथमिकता दे रहा है। यह सुखद लगता है कि प्रशासन पारदर्शी हो। प्रशासन की मशीन मे होने वाले भ्रष्टाचार और उसमे व्याप्त गन्दगियां नागरिकों को स्पष्ट नजर आ  सकें। आम आदमी देख सके कि अपना काम करवाने के लिए कहाँ और कितनी भेंट चढानी है, कहाँ और किसकी एप्रोच से काम बन जाएगा।  पारदर्शिता के कारण डीलिंग  के सूत्र और  गलियारे खोजने मे आसानी  हो सकती है। पारदर्शी प्रशासन मे सब कुछ साफ साफ  नजर आ सकेगा कि किस लीडर को साधने से उत्पादक क्षेत्र मे स्थानांतर करवाया जा सकता है। प्रशासन के किस पेंच मे तेल डालकर प्रशासनिक घर्षण को कम किया जा सकता है। प्रशासन का पारदर्शी होना अधनंगे सुखिया से लेकर करोडपति  सेठ सुखनन्दन तक के लिए हितकारी है।    

बहरहाल, उम्मीद की जाना चाहिए कि हमारे देश को खोद डालने के उपक्रम में लगे आकाओं का ध्यान कोयला ढोहती लछमा की पारदर्शी आँखों और उसके पारदर्शी पेट पर भी जाएगा जहाँ आँसुओं और भूख के अलावा कुछ और नजर नहीं आता।

ब्रजेश कानूनगो

Sunday, June 25, 2023

उक्तियों पर सवार युक्तियाँ

क्तियों पर सवार युक्तियाँ

तूफान आता है तो जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाता है। बाढ़ आती है तो सब कुछ बहा ले जाती है। सूखा पड़ता है तो लोग भूखों मरने लगते हैं। इन्हे कोई रोक नहीं सकता। ये आपदाएं वे कुल्हाड़ियां हैं जो खुद हमने अपने पैरों पर मारी हैं। अब हम इनमें अवसर तलाशते हैं। आपदा में अवसर, यह कहने में कोई लज्जा नहीं आती हमें। अपने अपराध पर परदा डालने की युक्तियां खोज कर नई उक्तियां हमने बना ली हैं।

पुरानी कहावत है कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। वह कोई और वक्त रहा होगा, अब ऐसा नहीं होता। राधा नाचने के लिए नौ मन तेल का इंतजार नहीं करती। उसका मन हो तो वह बगैर तेल के इंतजाम के भी डिस्को कर सकती है। पुरानी उक्तियां और कहावतें नए संसार में कोई खास मायने नहीं रखती। कीमत मिले तो इंसान खुद अपना घर बार छोड़कर फकीर हो जाए। गंगू सेठ अपनी गद्दी त्याग कर महाबली भोजराज के साथ साथ पार्टी का झंडा पकडे उन्ही का सिंहासन हथिया लें। यह दौर उक्तियों का नहीं युक्तियों का है।

कभी कभी ऐसा वक्त भी आता है जब परम्परागत उक्तियाँ फेल हो जाती हैं। यह ऐसा ही वक्त है। नई युक्तियाँ पुरानी उक्तियों पर भारी पड़ने लगती हैं। कहा जाता रहा है कि आग लगने से पहले कुआँ खोद लिया जाना चाहिए। लेकिन यह वह दौर है जब बस्ती में आग लग जाए तब भी तुरन्त जमीन खोद कर पानी निकाला जा सकता है। यह वही महान देश है जहां शय्यासीन भीष्म पितामह की प्यास शांत करने के लिए अर्जुन का एक तीर काफी होता है। बुजुर्ग दादाजी अपने पोते को पाजामें में हवा भरकर बावड़ी में धकेल दिया करते थे। पोता खुद हाथ पैर मारते हुए तैरना सीख ही लेता था।

कभी दो नावों में सवारी करना ठीक नहीं माना जाता था। इससे दुर्घटना होने की शत प्रतिशत संभावना बनी रहती है। मगर अब शायद ऐसा नहीं है। एक पाँव एक नाव में और दूसरा दूसरी नाव में रखकर नदी पार करना अब कौशल का काम है। एडवेंचर का रोमांच होता है इसमें। इस काम के लिए आदमी में जोखिम उठाने की क्षमता और इच्छा शक्ति भी होना जरूरी है।

साधुरामजी बड़े साहसी व्यक्ति हैं और जोखिम लेते रहते हैं। कविता और व्यंग्य लेखन जैसी दो विधाओं पर सवार होकर साहित्य की नदी को पार करने की अभिलाषा में एडवेंचर स्पोर्ट्स करते  रहते हैं। इस अभियान में होता यह है कि कविता की कमजोरियां यह कहकर नजर अंदाज हो जाती हैं कि भाई एक व्यंग्यकार और क्या लिखेगा, ठीक ठाक लिखा है। दूसरी तरफ कमतर व्यंग्य भी धक जाता है कि कवि महोदय बेचारे सह्रदय व्यक्ति हैं, कितना कुछ कटाक्ष कर पाएंगे। अपवाद स्वरूप कभी कभार नुकसान भी हो जाता है। खुदा न खास्ता कभी कुछ बेहतर रच दिया तो कवि बिरादरी उनकी श्रेष्ठ  कविता को भी नजर अंदाज कर देती है। दूसरी तरफ उनका लिखा शानदार मारक व्यंग्य लेख भी ‘जमात-ए-व्यंग्य’ द्वारा नोटिस में ही नहीं लिया जाता। चूंकि इतने वृहद साहित्य समाज में ऐसी छोटी मोटी बातें तो होती ही रहती हैं इसलिए उनकी सवारी सदैव जारी रहती है। 

सरकारी फैसलों को लेकर भी कुछ लोग दो नावों की सवारी करते दिखाई देते हैं। निर्णय के साथ भी दिखाई देते हैं और लागू करने के तरीके के विरोध में मंत्रीजी का पुतला भी जला देते हैं। अजीब स्थिति बनती रहती है। भ्रम की ऐसी धुंध में एक दिशा में सोचते दो समूहों के साथ जुड़े होने पर मतिभ्रम भी हो जाता है। लगता है दोनों पक्ष विरोधी हैं। दोनों समझते हैं कि हम दूसरे वाले के गुट में हैं। इसीलिये एक साथ होते हुए भी दुर्घटनाएं होती रहती है। इसके बावजूद सबकी ख्वाहिश यही होती है कि किसी तरह नाव और यात्री सुरक्षित किनारे लग जाएं।

सच तो यह है कि यह बदलाव का महत्वपूर्ण समय है। देश समाज से लेकर नीतियों और व्यवस्थाओं तक में आमूल चूल परिवर्तन हर घड़ी हो रहे हैं। यों कहें सूरज की हर किरण बदलाव की नई रोशनी लेकर आ रही है। ऐसे में आग लगने पर कुआँ खोदना और दो नावों की सवारी करने जैसी उक्तियाँ अप्रासंगिक हो गईं हैं। युक्तियाँ अब उक्तियों की पीठ पर सवार हैं।

ब्रजेश कानूनगो

Wednesday, June 14, 2023

नींद हराम होने से निकला ज्ञान

 नींद हराम होने से निकला ज्ञान 


जिस दौर में खबरिया चैनलों पर समाचार वाचक 'कर्मचारी' को 'करमचारी' उच्चारित करते हों। 'संभावना' और 'आशंका' जैसे शब्द  समानार्थी समझे जाते हों, तब मेरे किसी भाषाई 'आलाप'  के कोई ख़ास मायने नहीं हैं। मेरी बात  को  किसी बेसुरे राग में घोषित हो जाने की पूरी आशंका है। इसे  बेवजह और असमय के  ‘प्रलाप’ का  आरोप भी झेलना पड़ सकता है। फिर भी  दुस्साहस की प्रबल इच्छा से मैं बेहाल हूँ।

दरअसल बात कुछ ऐसी है कि गत रात मेरी नींद हराम हो गई। हालांकि मैं शेयर बाजार का कोई ध्यानमग्न खिलाड़ी भी नहीं हूं कि उठते गिरते सेंसेक्स से मेरी धड़कने बड़ गई हों। न मैं किसी सरकार में किसी मंत्रालय का कोई गुमनाम मंत्री हूं जिसे आने वाले समय में पदच्युत होने का कोई खतरा हो। एक सामान्य सा पेंशनर व्यक्ति जो दिन भर लोकरंजन और राष्ट्रप्रेम से भरे संदेशों को पूरी निष्ठा से जनजागरण हेतु समूची मानव जाति के बीच विस्तारित करने का पवित्र काम करने में लगा रहता है, उसे ऐसी क्या चिंता हो सकती है जिससे उसकी नींद गड़बड़ा जाए।

बहरहाल कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़े रहते हैं लेकिन नींद नहीं आती। घड़ी की हर टिक पर हमें आशा रहती है कि शायद अगली टिक हम नहीं सुन पाएँ और नींद के रेशमी जाल में जकड़ लिए जाएं। लेकिन वह नहीं आती तो नहीं आती। 

नींद नहीं आने के अनेक कारण हो सकते हैं। मच्छर आपके शरीर पर आतंकवाद फैला रहे हों, गर्मी पड़ रही हो, हवा चलना बन्द हो। ये नींद नहीं आने के सामान्य कारण हैं। नींद हराम होना इससे थोड़ा अलग है। परोक्ष भावनात्मक कारणों से इंसान की नींद हराम होती रही है। मन में कोई डर बैठा हो कोई दुखद घटना से  कोई दुख साल रहा हो या किसी सुखद समाचार से मन अधिक प्रफुल्लित हो , मनचाही बात अकस्मात फलीफूत हो गई हो अथवा अनचाही पीड़ा ने तन मन को झकझोर दिया हो तब भी  प्यारी निंदिया रानी बाहें नहीं फैलाती।

किसी छोटे दुकानदार से पूछिए जिसका दिवाला निकल रहा हो,किसी युवा से पूछिए जिसने वर्षों मेहनत करने के बाद किसी परीक्षा में सफलता पाई हो लेकिन नौकरी नहीं मिल सकी हो, किसी आम निवेशक से पूछें जिसके शेयरों के भाव अचानक गिर गए हों ... रात भर करवटें बदलने के बहुत से कारण होते हैं। सभी पीड़ितों का जवाब एक ही होगा कि कोशिश करते हैं लेकिन रात को नींद नहीं आती। नींद की चोरी हो जाती है। यह भी सच है कि चोर उनके अंदर ही मौजूद होता है। 

मेरी व्यथा इन सबसे बिल्कुल अलग थी। जब बड़ी मुश्किल से  किसी तरह काल्पनिक भेड़ों की गिनती करते हुए आँख लगी ही थी कि मोहल्ले के कुत्तों ने सामूहिक स्वर में कोई 'श्वान गीत' छेड़ दिया। जब नींद उचट ही गयी और वाट्सएप के सारे जीव-जंतु स्वप्नदर्शी हो चुके तो मेरे लिए इसके अलावा कोई चारा नहीं रह गया कि मैं उस अद्भुत और सुरीले 'डॉग्स गान' के आनंद में डूब जाऊं।

क्या वह कोई विलाप था कुत्तों का?  विलाप था तो उन कुत्तों को आखिर क्या दुःख रहा होगा जो इस तरह समूह गान की शक्ल में यकायक वह फूट पड़ा था। यह दुःख कुत्तों को  सामान्यतः रात में ही क्यों सताता है? क्या दिन के उजाले में कुत्तों के अपने कोई  दुःख नहीं होते? अगर होते हैं तो वे उसे दिन में अभिव्यक्त क्यों नहीं करते। दिन में आखिर कुत्तों को किसका और कौनसा डर सताता है जो वे दुपहरी में अपना मुंह खोलकर विलाप नहीं करते?  

कुछ लोग दिन के कुम्भकर्ण होते हैं। दोपहर की नींद निठल्लों की नींद होती है। इन नींद प्रेमियों को देश प्रेमी बनाने के लिए जगाना जरूरी है, किन्तु यह कैसी हिमाकत है दुष्ट कुत्तों की जो वे थककर सोए मेरे जैसे कर्तव्यनिष्ठ और देश भक्त लोगों की नींद हराम कर देते हैं, रात के दो बजे।

थोड़ा सकारात्मक सोंचें तो यह भी संभव है कि ये कुत्ते अपनी विलुप्त हो रही किसी गायन परंपरा को जिन्दा रखने के महान उद्देश्य से रात को समवेत स्वर में 'आलाप' लेने का अभ्यास करते हों।  जो भी हो इनकी  निष्ठा असंदिग्ध है । पूरे मन से एक साथ, एक स्वर में इनकी तेजस्वी  प्रस्तुति न सिर्फ प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय कही जा सकती है। अन्य प्राणी जगत में पुरानी परंपराओं को बचाने की यह प्रवत्ति दिखाई देना अब दुर्लभ है। मनुष्य समाज में तो अब हरेक का अपना अलग राग है, अपना अलग रोना है। हमें यह सामूहिकता कुत्तों से सीखनी चाहिए। क्या ख्याल है आपका !! 

ब्रजेश कानूनगो 

Monday, May 8, 2023

राजनीति और आलू मार्का नेता

राजनीति और आलू मार्का नेता 

राजनीतिक व्यक्ति हो या कंद मूल, उसके जमीन से जुड़े होने का अपना अलग महत्व होता है। खासतौर से यदि जमींकंद की बात करें तो ऐसा कंद जो पूरी तरह धरती से जुड़ा होता है। बीजारोपण से लेकर उसका सारा विकास सतह के भीतर मिट्टी के सानिध्य में होता है। वह चाहे गाजर,मूली हो,रतालू हो,गराडू हो,मूंगफली हो या आलू,सब जमीन के भीतर माटी से एकाकार होकर विकसित होते हैं। 

चुनाओं के समय खासतौर पर जब विशेषज्ञ त्रिशंकु सरकार का अनुमान लगाने लगते हैं ‘आलू मार्का’ नेताओं और दलों की पूछ परख बहुत बढ़ जाती है। हालांकि ऐसे लोगों को कटाक्ष के लिए ‘आयाराम गयाराम’,’दल बदलू’ या ‘पलटू राम’ जैसे संबोधनों से अलंकृत किया जाता है लेकिन इन पर इन बातों का कोई ख़ास असर नहीं होता। जैसे भारतीय भोजन में आलू की लोकप्रियता निर्विवाद है उसी प्रकार भारतीय राजनीति में ‘आलू मार्का’ लोगों का महत्त्व बना हुआ है। 

जो नेताजी एक दल से दूसरे में कूद जाते हैं दरअसल वे समय रहते अपनी राजनीतिक रोटियां एक तवे से दूसरे तवे पर शिफ्ट कर देते हैं। उनकी दृष्टि इसी पर रहती है कि किस चूल्हे की आंच कम हो रही है और किस चूल्हे को बेहतर ईंधन से उसे ज्यादा आंचदार बनाया जा रहा है। रोटियां भी वही रहतीं हैं और उनमें भरा हुआ आलू भी। बस सिकाई का तवा और बटर या घी का ब्रांड बदल जाता है। 

चलिए आज अब थोड़ी आलू की ही बात करते हैं। एक तरह से इसे राष्ट्रीय कन्द के खिताब से नवाजा जा सकता है। कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों से लेकर लीडरकिंग लालू प्रसाद के गुण-गौरव तक में ‘आलू’ की उपस्थिति चर्चित रही है। हमारे भोजन में आलू ठीक उसी प्रकार उपस्थित रहता है, जैसे शरीर के साथ आत्मा, आतंकवाद के साथ खात्मा, नेता के साथ भाषण, यूनियन के साथ ज्ञापन, मास्टर के साथ ट्यूशन,वोटर के साथ कन्फ्यूजन, टेलर के साथ टेप, भूगोल के साथ मैप, पुलिस के साथ डंडा और इलाहाबाद के साथ पंडा, अर्थात भोजन है तो आलू है। आलू है तो समझो भोजन की तैयारी है। 

राजनीति की तरह आलू समाज में जायके के लिए ध्रुवीकरण के प्रयास नहीं होते। अर्थ का अनर्थ और साम्प्रदायिकता का तड़का नहीं दिखाई देता। आलू पूरी तरह धर्म निरपेक्ष होता है। हर सब्जी का धर्म उसका अपना धर्म है। हर सब्जी के रंग में डूबकर वह उसके साथ एकाकार हो जाता है। बैगन,पालक,गोभी,टमाटर,बटला,दही,खिचडी,पुलाव, आलू सभी में अपने को जोड़े रखता है। आपसी मेल-मिलाप हमारी परम्परा रही है, यही संस्कार हमारे आलू में भी देखे जा सकते हैं। विनम्रता और और दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार अपने को ढाल लेना हमारे चरित्र की विशेषताएं होती हैं.उबलने के बाद आलू भी हमारी तरह नरम और लोचदार होकर अपने आपको समर्पित कर देता है। चाहो तो आटे में गूंथकर पराठा सेंक लो या मैदे में लपेटकर समोसा तल लो अथवा किसनी पर किस कर चिप्स का आनंद उठा लो। 

आलू की नियति से हमारी नियति बहुत मिलती है. राजनीतिक नेता और पार्टियां जिस तरह हमारी भावनाओं को उबालकर उनके पराठें सेंकते हैं, समोसा तलते हैं या चिप्स बनाकर वोटों के रूप में उदरस्थ करते हैं, उसी तरह आलू हमारे पेट में जाता है। 

हमारे परम मित्र साधुरामजी ने बताया कि जहां हम आलू के दीवाने हैं,वहीं रूसियों को मूली, गाजर और गोभी बहुत पसंद है। इसी तरह अमेरिकियों को शकरकन्द खाने का बहुत शौक होता है। पिछले रविवार जब हमने साधुरामजी के यहाँ भोजन ग्रहण किया तो तो उन्होंने एक नई सब्जी परोसी जिसका नाम था- ‘इंडो-रशिया फ्रेंडशिप वेजिटेबल’ (भारत-रूस मित्रता सब्जी)। जब मैंने वह खाई तो मुझे आलू, मूली और गोभी का मिला-जुला जायका आया. मित्रता की खुशबू दिलों से होकर सब्जियों तक महसूस कर मुझे अपने आलुओं पर गर्व हुआ। अब तो शकरकंद में आलू मिलाकर बनाई गयी सब्जी भी हम बड़े चाव से खा रहे हैं, परोस रहे हैं। दुनिया में यह एक मिसाल भी है जब हमारा देश, दुनिया में हमारी आलू-प्रवत्ति का कायल हो गया है। ऐसे में ‘आलू मार्का’ व्यक्तियों और दलों द्वारा विचारधारा निरपेक्ष होकर सरकारों के बनने बिगड़ने में जो गौरवशाली योगदान दिया जाने लगा है उससे उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान के भाव से मन भर उठता है। 

जिंदाबाद प्यारे आलू। तुम्हारी सदा जय हो! 

 ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, May 2, 2023

ठोकर में है जमाना

ठोकर में है जमाना


जहां चौखट है, वहां ठोकर है। ठोकर और पैरों का बड़ा सीधा रिश्ता होता है। ईश्वर की दहलीज में हमेशा से याचक ठोकर में पड़े रहने को अपना सौभाग्य मानते रहे हैं। ये ठोकरें पवित्र चरण होती हैं जिन पर श्रद्धालु सीस नवाते हैं।
जहां आस्था की ठोकर का अपना बड़ा आशावादी और विनम्र अहसास होता है वहीं दूसरी तरफ कुछ और भी ठोकरें होती है। जिनके तेवर कुछ अलग होते हैं। ऐसी ठोकरें खाई भी जाती हैं और मारी भी जाती हैं। अच्छे अच्छे बदमाश ठोकर खाकर संस्कारी होने लगते हैं। कई बार कई लोग अच्छे अवसरों को ठोकर मारकर आगे बड़ जाते हैं। कुछ ठोकर खा कर औंधे मुंह आ गिरते हैं।

जैसे ही कहीं चुनाव की घोषणा की जाती है वैसे ही चुनाव आयोग एक संहिता लागू कर देता है। आदर्श आचार संहिता लागू करना चुनाव आयोग का धर्म  है। धर्म और कर्म दोनों एक साथ चला करते हैं इसलिए आचार संहिता को ठोकर मारने का उपक्रम भी खूब दिखाई देने लगते हैं।
यदि पैर मिले हैं तो ठोकर मारना भी उसकी एक कला का ही रूप है।

हर एक व्यक्ति को ईश्वर ने चलने के लिए दो अदद टांगें दी हैं। दुनिया नाप लेने की क्षमता व शक्ति इनमें पाई जाती है।
जब बालक पहले पहल चलना सीखता है तब देखिए इन पैरों का आकर्षण और उनकी लड़खड़ाती मोहक चाल। 'ठुमक चलत रामचन्द्र'। उसके बाद तो व्यक्ति ऐसी चाल पकड़ता है कि पीछे मुड़कर नहीं देखता। बाद में वह न सिर्फ चलता है, दौड़ता है बल्कि वह ठोकर भी मारने लगता है। कभी कभी असावधान कदमों के कारण वह स्वयं ठोकर खा भी जाता है। अपनी गलती पर उसे क्षोभ होने लगता है।

अब इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसके पैर हैं वह ठोकर मार भी सकता है, ऐसा थोड़ी है कि दूरियां नापने के लिए मात्र आप चलते ही रहें... भोपाल दिल्ली या फिर पूरे देश प्रदेश की पदयात्रा ही करना ही तो हमारा उद्देश्य नहीं हो सकता ना।

मनुष्य सदा से प्रयोग शील प्रवृत्ति का रहा है और उसने पैरों को लेकर कई नए नए प्रयोग भी किए हैं। अगर ऐसा न हुआ होता तो देवकी पुत्र यशोदानंदन कालिया नाग की जहरीली फुंकार से कृष्ण कैसे बन पाते। न गोविंद गेंद को जोरदार ठोकर मारते और ना ही वह जमुना जी में जा गिरती। वह गोविंद की ठोकर ही थी जिसने कालिया नाग के गुरूर को चूर-चूर कर के रख दिया था। सही और उचित ठोकर से अच्छे अच्छों की अकड़ खत्म हो जाती है। कोई ज्यादा ही अकड़ रहा हो तो जमाइए एक जोरदार लात या ठोकर, भूल जाएगा वह अपनी सारी हेकड़ी।

बिना ठोकर मारे कोई 'खेला'  संभव ही नहीं। वह कुर्सी का हो या फुटबॉल का। बिना ठोकर के फुटबॉल की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सही निशाने को लक्ष्य करके विवेकपूर्ण ढंग से मारी गई ठोकर फुटबॉल को सीधे गोलपोस्ट की राह दिखाती है, और पेनल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील किया जा सकता है।

इसी प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में कई लोग ठोकर खाते रहते हैं,ठोकर मारते रहते हैं। मारने वाले अपने प्रतिस्पर्धी को पीछे धकेल कर आगे बढ़ जाते हैं। पीछे रह जाने वाला, गिरने वाला फिर संभल कर, उठकर दूसरों को ठोकर मारने लगता है।
वैसे जो व्यक्ति जीवन में एक बार ठोकर खा लेता है उसकी राह आसान हो जाती है, शर्त यह है कि वह अपनी ठोकर से सबक ले वरना ठोकरें जीवनभर  उसका पीछा नहीं छोड़ती। किसी लुप्त होते राजनीतिक दल की तरह गोल पर गोल खाते रहना उसका दुर्भाग्य बन जाता है। ठोकर मारना हरेक के लिए आसान भी नहीं होता। इसके लिए बहुत बड़ा जिगर और मजबूत कदम होना चाहिए। युवराज सिद्धार्थ अपने साम्राज्य को ठोकर मार कर यूं ही वन को नहीं निकल गए थे। हर कोई वैसा महात्यागी और महाबली नहीं हो सकता, जो उसी को लेकर ठोकर मार दे जिसके कारण उसका जीवन सुखी हो सकता है।
यह भी सही बात है कि हर व्यक्ति कहीं भी ठोकर मारने के लिए स्वतंत्र है, चाहे किसी व्यक्ति को मारे, किसी खेल में मारे, या आचार संहिता पर प्रहार करे। बस थोड़ा सा विवेक और निशाना ठीक बनाए रखना जरूरी होता है। अन्यथा खुद का पैर भी घायल हो सकता है। जरा सोचिए!

ब्रजेश कानूनगो 

Tuesday, April 18, 2023

क्रांतिमुक्त दल बदल

क्रांतिमुक्त दल बदल  

जब कोई राजनीतिक व्यक्ति एक दल छोड़कर दूसरे दल में प्रवेश करता है मुझे कुछ जासूसी और अपराध फिल्में याद आने लगती हैं। उनमें होता यह था कि किसी एक गैंग का कोई व्यक्ति चतुराई से दूसरी गैंग के सरगना का दिल जीतकर उसके दल में शामिल हो जाता था। उचित समय आने पर वहां के भेद जानकर उसका सफाया या भंडाफोड़ कर देता था। लेकिन यह विश्वासघात और जासूसी रोमांच राजनीतिक क्षेत्रों में सामान्यतः नहीं दिखाई देता। मैं उम्मीद लगाए ही रह जाता हूं की एक दल से दूसरे दल में गया व्यक्ति वहां भूचाल ला देगा और उस दल को तबाह कर देगा। लेकिन ऐसा होता नहीं। वह घुसपेठिया धीरे धीरे उसी रंग में रंग जाता है।

बहरहाल, जाना-आना दुनिया की रीत है। जो आता है वह जाता भी है। किसे यहाँ हमेशा के लिए रह जाना है। जब सारी सम्भावनाएँ खत्म हो गईं हों तो रह कर कोई करेगा भी क्या। एकरसता कोई अच्छी चीज नही होती। थोडे ही दिनों में बोरियत होने लगती है। डिप्रेशन में आ जाता है भला चंगा आदमी। जीवन का आनन्द ही इसी मे है कि उत्साह बना रहे। निराशा सब बीमारियों की जड है, इसलिए हवा-बदली की भी जरूरत पडती है। हवा बदली के लिए भी कभी कभी स्थान परिवर्तन करना पडता है। इसलिए भी आना-जाना लगा रहता है। कोई हवा बदली के लिए आता है तो कोई हवा बदली के लिए चला जाता है।

ऐसा ही होता आया है सदा से। जो कभी बीहडों में भटका करते थे, हवा बदली के लिए नगरों-महानगरों में सुपारी लेने लगे हैं। जो जनता की सेवा का दम भरते थे, वे अब राजनीति के बगीचे में चले आए हैं, संसद की हवा उन्हे स्वास्थ्य के लिए बडी मुफीद लगने लगी है। हाल यह है कि सेना की कमान सम्भालते सम्भालते कोई सेनापति इतना ऊब जाता है कि वह जनता की कमान सम्भालने के लिए लालायित दिखाई देने लगता है।

अब भाई ! इस आने-जाने को कौन रोक सकता है भला। जहाँ जिसे अच्छा लगे, वहाँ वह पलायन करने को स्वतंत्र है। चाहें तो सरकारी नौकरी  छोडकर कोई एनजीओ बना लो या एनजीओ चलाते-चलाते  इसे आन्दोलन का रूप दे दो। मन करे तो आन्दोलन को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर डालो। चुनाव जीतने पर यदि सत्ता का सिंहासन रास न आए  तो दन्न से सडक पर धरने पर बैठ जाओ। ऐसे में कुछ और लोग भी आपके साथ जुडने को आतुर हो सकते हैं। आप उन्हे रोकें नही। उन्हे रोका नही जा सकता। बड़ी बारात में सम्मिलित होने से किसे रोका जा सकता है।

खैर, जो आते हैं वे चले भी जाते हैं। जमे जमाए घरों से लोग निकल लेते हैं। टीवी स्टूडियो की बहसों में कभी लगता ही नही था कि सबसे पुराने घराने का प्रतिष्ठित प्रवक्ता अचानक घर-परिवार छोडकर किसी और परिवार की गोद में जाकर बैठ जाएगा। कभी रुबाबदार प्रशासनिक अधिकारी  रहा और सत्ताधारी दल की बैसाखियों के सहारे राजनीति में राजनीति में आनेवाला व्यक्ति भी सत्ता सुन्दरी के आकर्षण में अचानक  अपने पितृ दल की उम्मीदवारी को तिलांजली देकर विरोधी दल में छलांग लगा देता है।

इस आने-जाने में कभी-कभी बडी होड दिखाई देती है। रोज पल पल  किसी न किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के पार्टी ज्वाइन करने की खबरें सुर्खियाँ बटोरने लगतीं हैं. जैसे इन दिनों हो रहा है.  कई बार आने-जाने वालों के सामने बडे भ्रम की स्थिति निर्मित हो जाती है। ‘मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ’ वाली स्थिति । चुनाओं की घोषणाओं के साथ ही राजनैतिक पार्टियों का सूचकांक रोज बदलता रहता  है। नेता ही क्या स्वयं पार्टियाँ तक समझ नही पाती कि वे किस के साथ जाएं? किसके साथ गठबन्धन करें। आज जिस नेता या दल की तूती बजती है अगले ही दिन किसी समन  के पहुंच जाने की खबर सामने आ जाती है। संभावनाओं के आकाश में शंकाओं के बादल घिरे रहते हैं। कोई जानता ही नही कि चुनावी ऊँट किस करवट बैठेगा। ऐसे आयाराम गयारामों को निर्णय लेने में भारी कठिनाई का सामना करना पड जाता है।  सत्ता सुन्दरी के खयालों में खोए इन सभी के अंतर्मन में एक ही धुन गूंजती रहती है-‘एक राह तो वो होगी, तुम तक जो पहुंचती हो।’ लेकिन दिक्कत यह होती है कि इस राह पर अक्सर कोहरा छाया रहता है, जब भी कोई कृत्रिम प्रकाश पुंज दिखाई देने लगता है ये उस ओर ही दौडने लगते हैं।

ब्रजेश कानूनगो

Wednesday, March 1, 2023

वाट्सएप पर महाकवि

वाट्सएप पर महाकवि


किसी ने कहा है जीवन एक कविता है। कई पद हैं इसमें। चौपाइयां हैं, दोहे, सोरठा,कुंडलियां, क्या नहीं है इस कविता में। लय है, तुक है, तो कभी बेतुकी भी हो जाती है जीवन की कविता।  हुनर चाहिए जीवन कविता को मनोहारी बनाने के लिए।


मैं कुछ इस तरह लिखते हुए अपने लेख की शुरुआत कर ही रहा था कि मित्र साधुरामजी आ धमके। बोले- 'यह क्या दिन भर टेबल पर झुके रहते हो! और कुछ काम धाम भी है या नहीं। जब देखो साहित्य, साहित्य करते रहते हो...'


उन्हें रात को लिखी अपनी नई कविता सुनाई। कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में।’


‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की।


'क्या मिल जाएगा ऐसे यथार्थवादी लेखन से तुम्हे?' वे बोले।

'लिखने से मुझे आत्म संतोष मिलता है,साधुरामजी।' मैने कहा।

'अब ज्यादा बातें मत बनाओ! कोई पद्मश्री नहीं मिल जाएगा तुम्हे इससे!' वे बोले।

'मैं किसी सम्मान,पुरस्कार की आकांक्षा से नहीं लिखता, मेरा लेखन स्वान्तः सुखाय है साधुरामजी।' मैने कहा तो वे चिढ़ गए-'अरे छोड़ो भी अब, इतना समय घर के कामकाज में देते, भाभीजी को सहयोग करते तो उनकी दुआएं लगतीं।'

'उनकी दुआएं तो सदैव मेरे साथ ही हैं। उनका सहयोग नहीं होता तो मैंने जो थोड़ा बहुत लिखा पढा है वह भी नहीं कर पाता।' मैंने तनिक खिसियाते हुए कहा।

'और सुनो बन्धु ! ये जो तुम लिखते हो क्या सब तुम्हारा अपना  है? ये देखो तुम्हारी वह ग़ज़ल जो तुमने पिछले हफ्ते गोष्ठी में सुनाई थी, वह तो गुलजार साहब की है। यह देखो!' साधुरामजी ने उनका मोबाइल में मेरी ओर बढ़ा दिया।


वहां एक वाट्सएप समूह में मेरी वही कविता शेयर की गई थी, किन्तु नीचे शायर का नाम 'गुलजार' लिखा हुआ था। अब यह मेरे लिए सम्मान की बात थी या गुलजार साहब के लिए सिर पीट लेने वाली, कह नहीं सकता।


'अरे भाई आप तो 'गुलजार साहब' हो गए हैं अब! सफेद कुर्ता पहनों और पहुंच जाओ मुम्बई। खूब काम मिलेगा और अवार्ड भी।' साधुरामजी मजे लेने के मूड में आ गए थे।


'और बंधु जरा कभी अपना रोल बदल कर भी देखो...मसलन कभी पत्नी के काम अपने हाथ में ले लो...बडा मजा है... महरी नही आने पर बरतन मांजने में भी बडा मजा है...अपनी इस कला को भी सार्थकता देकर  चमकाया जा सकता है... कपडे धोना-सुखाना किसी तार पर...छत पर...अपने हाथों से आटा मथ कर गर्मा-गर्म रोटियाँ अपनों को खिलाना...वाह! अद्भुत आनन्द... एक नई कहानी...नई कविता लिखने के संतोष से भरा-भरा सा ... जैसे विविध-भारती पर नीरज या साहिर का गीत सुन रहे हों...!'

अब साधुरामजी जैसे पूरे साहित्य जगत को ही संबोधित कर रहे थे मानो वहां सारे रचनाकार अपनी घर गृहस्थी से विरक्त होकर सिर्फ सृजन में ही संलग्न हो गए हों।


तभी मेरे मोबाइल में चिड़िया चहकी। एक वाट्सएप मेसेज आया था। खोलकर पढा तो चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। मैंने मोबाइल साधुरामजी के आगे कर दिया। वहां साधुरामजी की एक नज्म हरिवंशराय बच्चन जी के नाम से शेयर हुई थी।


ब्रजेश कानूनगो

उपन्यास लिख रहे हैं वे

उपन्यास लिख रहे हैं वे

लेखन उनके डीएनए में बसा हुआ है। कुछ सालों पहले तक वे कहा करते थे कि साहित्य उनके खून में है। लोगों को भी लगता है कि उनके रोम –रोम से पसीने की बजाए काव्य की गन्ध आती रहती है। यहाँ काव्य को शास्त्रीय अर्थों में व्यापकता से देखा जाना अपेक्षित होगा। क्योंकि उन्होने अपने लेखन को कभी विधाओं की सीमा में नही बान्धा है। जब चाहा, जिस विषय पर लिखना चाहा और जिस विधा में लिखना चाहा, पूरे जोशो-खरोश के साथ अपने को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है।

अपने लेखन के प्रारम्भिक दिनों में उन्होने नगर पालिका और कोर्ट परिसर में लोगों के आवेदनों और प्रार्थना पत्रों में भी अपनी प्रतिभा का बहुत सार्थक रूप से उपयोग किया था। लोगों का मानना था कि उनके लिखे आवेदन पत्र पर कारर्वाई जरूर होती थी। उनके पूज्य पिता भी अपने जमाने के जाने-माने अर्जीनवीस थे साथ ही अभिनन्दन पत्र और लग्न-पत्रिकाएँ लिखने में भी उन्हे महारत हाँसिल थी। उनका यह गुण बेटे के खून में भी आया और जब चिकित्सा-विज्ञान ने तरक्की कर ली तब खून के अलावा उनके डीएनए में भी यह गुण दिखाई देने लगा।


दरअसल उनके एक क्लाइंट वैद्य होने के साथ-साथ कविता भी लिखा करते थे। आदर से उन्हे कविराज के नाम से सम्बोधित किया जाता था। कविराज खुद तो साहित्य मनीषी थे ही परंतु साहित्य अभिलाषियों को साहित्य विशारद और साहित्य रत्न जैसी उपाधियों के लिए परीक्षाएँ भी दिलवाया करते थे। उनके सानिध्य में ही इन्होने लेखन को भी साध लिया था। बाद में कविराज की गद्दी भी इन्होने सम्भाल ली और स्वयं कविराज कहलाने लगे ।

कुछ दिनों में ही इन्होने अपने गुरूजी के अप्रकाशित खंड काव्य ‘मारा जो ढेपा-पहुंच गया नेफा’ की पांडुलिपी से रचनाएँ यहाँ-वहाँ छपवाकर ख्याति अर्जित कर ली। फिर इन्होने मुडकर नही देखा और सृजन की रेलगाडी ब्रोडगेज पर न सही पर मीटर और नेरो गेज पर तेजी से दौडने लगी। अखबारों में सम्पादक के नाम पत्रों से लेकर जहाँ मौका लगता इनकी रचनाएँ मय नाम और फोटो के प्रकाशित होने लगीं। लिखना और छपना इनके लिए प्राण वायु सा बन गया। इतना छपने लगे कि जब नही छपते तो लोग पूछ ही बैठते- कविराज बहुत दिनों से कुछ लिख नही रहे?


बस यही वह टर्निंग पॉइंट है जहाँ से कविराज की कहानी और इस लेख को नई दिशा मिलती है। कविराज भी आखिर कितना लिखे और कितना छपें! और भी कई महत्वाकांक्षी नवलेखक लाइन में लगे होते हैं, अखबार और सम्पादक की अपनी सीमाएँ भी होती हैं। थोडा अंतराल तो आ ही जाता है बीच बीच में। दूसरे लेखकों को भी मौका देना होता है।

दरअसल कविराज यह समझते थे कि छपना ही असली लिखना होता है। छपे नही तो वह भी क्या लिखना। जंगल में मोर नाचा किसने देखा? नही छपने पर उन्हे ऐसा महसूस होता जैसे वे निष्क्रीय हो गए हैं और उनकी सृजनशीलता खत्म हो गई है। यही बात उन्हे कष्ट देती रहती थी। लोगों की निगाह में उनका सक्रीय रचनाकार दिखाई देते रहना ही उनकी असली खुशी होती थी। किसी भी कीमत पर वे इसे खोना नही चाहते थे।


यद्यपि वे अपनी रचनाओं में मौलिकता बनाए रखने की दृष्टि से किसी और का लिखा हुआ पढना बिल्कुल पसन्द नही करते थे, फिर भी मुंशी प्रेमचन्द का ‘गोदान’ उनके स्कूल के समय कोर्स में था, इसलिए उसे तो मजबूरन किसी तरह  पढना ही पडा था। पढते हुए वे यह भी सोचा करते थे कि मुंशी जी ने आखिर इतना बडा उपन्यास कैसे लिख डाला होगा? और फिर जब लिख ही लिया होगा तो उसको छपवाने के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पडी होगी उन्हे?


बस इन्ही प्रेमचन्दजी और उनके ‘गोदान’ ने कविराज की समस्या का हल उन्हे सुझा दिया। नही लिखने और निष्क्रीयता के समय लोगों के कष्टदायक सवालों का आसान जवाब अब उन्हे मिल गया था। कल किसी ने उनसे जब पूछ लिया- ‘कविराज बहुत दिन हो गए कहीं नजर नही आए, क्या बात है आजकल कुछ छप नही रहा?’ कविराज मुस्कुराकर बोले- ‘भाई क्या बताऊँ, बहुत व्यस्त हूँ, इन दिनों एक उपन्यास लिख रहा हूँ। थोडी प्रतीक्षा तो आपको करनी ही पडेगी।’

कविराज के साथ मैं भी अब अच्छी तरह जान गया हूँ कि हरेक लेखक अक्सर कभी-कभी उपन्यास लिखने में क्यों इतना व्यस्त हो जाता है।


 ब्रजेश कानूनगो

Tuesday, January 24, 2023

चर्म मिसाइल का चूकना

चर्म मिसाइल का चूकना

संत बोलते हैं तो लगता है जैसे शब्द नहीं शीतल जल की बूंदें बरस रहीं हो। उद्वेलित मन शांत हो जाता है। आम व्यक्ति मन में उठती कठिनाइयों, वेदनाओं,पीड़ाओं की अग्नि को शांत करने के लिए महात्माओं की शरण में जाता है। उनके चरणों में पुष्प अर्पित करता है।

कई नेताओं के मन में भी भक्तों की चाह होती है।महान कहलाने की ख्वाहिश  में नेताजी संत तो नहीं बन पाते किंतु अभिनेता बन जाते हैं। उनके मुंह से फूल नहीं झरते बल्कि आग के गोले बरसने लगते हैं।

प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। आग के गोले की प्रतिक्रिया में कभी कभी श्रोताओं की ओर से जूता चला आता है।

कभी कभी वह लक्ष्य से चूक भी जाता है। टमाटर हो,अंडा हो या जूता हो,अक्सर लक्ष्य से चूकते भी रहे हैं। चूक किससे नहीं होती। भगवान भी चूक जाता है। किसी जीव को जिस पूर्व निर्धारित योनि में जन्म देना होता है ज़रा सी चूक से उसे किसी और योनि का नागरिक बना देता है। शेर के शरीर में गीदड़ की आत्मा और आदमी के सिर में लोमड़ी का दिमाग खुराफात करने से चूकता नहीं। लोग समझते हैं, आदमी चूक गया है,शेर गीदड़ हो गया है। प्रत्यक्ष तो यही दिखता है।

उस दिन नेताजी मंच से दहाड़ रहे थे कि कहीं से एक चर्म मिसाइल सन्नाती हुई उनके बगल से बिना उन्हे क्षति पहुंचाए गुजर गई। निशाना साधकर फैंका गया जूता नेताजी को बगैर क्षति पहुंचाए चुपचाप गुजर जाए तो बताइये इसमें चूक किसकी है? सोचने वाली बात है। जूते में खोट है या कि निशानेबाज से चूक हुई है।

यदि जूते में तनिक भी ईमानदारी हो तो कोई कैसे उसके प्रहार से बच सकता है। कहीं तो लोचा हुआ होगा। निशानेबाज की निपुणता पर भी संदेह होता है। जब गुरुकुल में निशानेबाजी सिखाई जा रही होगी तब उसका ध्यान जरूर कहीं ओर होगा. चिड़ियाँ की आँख की बजाय वह सुन्दर हिरणियों को निहारने में लगा होगा। 

यह भी हो सकता है कि वह जूता किन्ही प्रतिद्वंदी ताकतों के हाथों बिक चुका हो। बाजार युग में सब कुछ खरीदा-बेचा जा सकता है। शरीर और आत्मा की बोली लग जाती है, फिर बेचारी चरण पादुका कौन मंत्रीजी की डिग्री है।

जूता प्रहार की प्रक्रिया को भी प्रायोजित किया जा सकता है। किसी अन्य बहुराष्ट्रीय ब्रांड की चालाकी या कूटनीति भी हो सकती है। जमे जमाये कारोबार पर आरोप लग सकता है कि अमुक कंपनी के जूते  की मारक क्षमता क्वालिटी कंट्रोल की कसौटी पर फेल है। इसलिए विश्वसनीय प्रकृति प्रदत्त और पूर्णतः वेज जूता अपनाएं, पूरी तरह स्वदेशी और गुणकारी। सिर पर लगे तो दिमाग की गर्मी भी निकाले और गंज पर अंकुरण भी सम्भव हो सके।

यह बहुत मानी हुई बात है कि जिस काम के लिए जिम्मेदारी सौंपी गयी हो उसे पूरी लगन और निष्ठा से करना चाहिए। यही आदर्श मूल्य हैं हमारे। यदि तंत्र को सौ रूपये आख़िरी आदमी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी दी गयी हो और लक्ष्य तक सिर्फ पंद्रह पहुँच रहे तो संदेह होता है। इसका सीधा मतलब है कि तंत्र कही रास्ता भटक गया है। योजनाओं की आत्मा इसी तरह भटक जाती है। भटकाव की इसी अवधारणा को आगे चलकर भ्रष्टाचार जैसी अवधारणा से विद्वजन व्याख्यायित करते रहते हैं।

बहरहाल, कर्म को पूरे मन से सम्पन्न किया जाए और नेक इरादे से सम्पन्न किया जाए तो सफलता अवश्यम्भावी है। यदि मिसाइल को सचमुच सम्पूर्ण इच्छा शक्ति के साथ दुश्मन की ओर दागा जाए तो लक्ष्य भेद अवश्य होगा। मिसाइल हो या जूता, ये सब भौतिक और ठोस वस्तुएं हैं, इनमें पर्याप्त गतिबल होता है, ये जुमलों या उद्घोषों की तरह अदृश्य और हवा हवाई तरंगें नहीं होतीं। इनके टकराने के बाद टारगेट तरंगित होता ही है।

नेताजी की दिशा में सन्नाया गया जूता यदि बगैर लक्ष्य भेदन के गुजर जाए तो इसमें कुछ न कुछ षडयंत्र जरूर शामिल होगा। जरा सोचिए साहब!

ब्रजेश कानूनगो