Monday, May 8, 2023

राजनीति और आलू मार्का नेता

राजनीति और आलू मार्का नेता 

राजनीतिक व्यक्ति हो या कंद मूल, उसके जमीन से जुड़े होने का अपना अलग महत्व होता है। खासतौर से यदि जमींकंद की बात करें तो ऐसा कंद जो पूरी तरह धरती से जुड़ा होता है। बीजारोपण से लेकर उसका सारा विकास सतह के भीतर मिट्टी के सानिध्य में होता है। वह चाहे गाजर,मूली हो,रतालू हो,गराडू हो,मूंगफली हो या आलू,सब जमीन के भीतर माटी से एकाकार होकर विकसित होते हैं। 

चुनाओं के समय खासतौर पर जब विशेषज्ञ त्रिशंकु सरकार का अनुमान लगाने लगते हैं ‘आलू मार्का’ नेताओं और दलों की पूछ परख बहुत बढ़ जाती है। हालांकि ऐसे लोगों को कटाक्ष के लिए ‘आयाराम गयाराम’,’दल बदलू’ या ‘पलटू राम’ जैसे संबोधनों से अलंकृत किया जाता है लेकिन इन पर इन बातों का कोई ख़ास असर नहीं होता। जैसे भारतीय भोजन में आलू की लोकप्रियता निर्विवाद है उसी प्रकार भारतीय राजनीति में ‘आलू मार्का’ लोगों का महत्त्व बना हुआ है। 

जो नेताजी एक दल से दूसरे में कूद जाते हैं दरअसल वे समय रहते अपनी राजनीतिक रोटियां एक तवे से दूसरे तवे पर शिफ्ट कर देते हैं। उनकी दृष्टि इसी पर रहती है कि किस चूल्हे की आंच कम हो रही है और किस चूल्हे को बेहतर ईंधन से उसे ज्यादा आंचदार बनाया जा रहा है। रोटियां भी वही रहतीं हैं और उनमें भरा हुआ आलू भी। बस सिकाई का तवा और बटर या घी का ब्रांड बदल जाता है। 

चलिए आज अब थोड़ी आलू की ही बात करते हैं। एक तरह से इसे राष्ट्रीय कन्द के खिताब से नवाजा जा सकता है। कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों से लेकर लीडरकिंग लालू प्रसाद के गुण-गौरव तक में ‘आलू’ की उपस्थिति चर्चित रही है। हमारे भोजन में आलू ठीक उसी प्रकार उपस्थित रहता है, जैसे शरीर के साथ आत्मा, आतंकवाद के साथ खात्मा, नेता के साथ भाषण, यूनियन के साथ ज्ञापन, मास्टर के साथ ट्यूशन,वोटर के साथ कन्फ्यूजन, टेलर के साथ टेप, भूगोल के साथ मैप, पुलिस के साथ डंडा और इलाहाबाद के साथ पंडा, अर्थात भोजन है तो आलू है। आलू है तो समझो भोजन की तैयारी है। 

राजनीति की तरह आलू समाज में जायके के लिए ध्रुवीकरण के प्रयास नहीं होते। अर्थ का अनर्थ और साम्प्रदायिकता का तड़का नहीं दिखाई देता। आलू पूरी तरह धर्म निरपेक्ष होता है। हर सब्जी का धर्म उसका अपना धर्म है। हर सब्जी के रंग में डूबकर वह उसके साथ एकाकार हो जाता है। बैगन,पालक,गोभी,टमाटर,बटला,दही,खिचडी,पुलाव, आलू सभी में अपने को जोड़े रखता है। आपसी मेल-मिलाप हमारी परम्परा रही है, यही संस्कार हमारे आलू में भी देखे जा सकते हैं। विनम्रता और और दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार अपने को ढाल लेना हमारे चरित्र की विशेषताएं होती हैं.उबलने के बाद आलू भी हमारी तरह नरम और लोचदार होकर अपने आपको समर्पित कर देता है। चाहो तो आटे में गूंथकर पराठा सेंक लो या मैदे में लपेटकर समोसा तल लो अथवा किसनी पर किस कर चिप्स का आनंद उठा लो। 

आलू की नियति से हमारी नियति बहुत मिलती है. राजनीतिक नेता और पार्टियां जिस तरह हमारी भावनाओं को उबालकर उनके पराठें सेंकते हैं, समोसा तलते हैं या चिप्स बनाकर वोटों के रूप में उदरस्थ करते हैं, उसी तरह आलू हमारे पेट में जाता है। 

हमारे परम मित्र साधुरामजी ने बताया कि जहां हम आलू के दीवाने हैं,वहीं रूसियों को मूली, गाजर और गोभी बहुत पसंद है। इसी तरह अमेरिकियों को शकरकन्द खाने का बहुत शौक होता है। पिछले रविवार जब हमने साधुरामजी के यहाँ भोजन ग्रहण किया तो तो उन्होंने एक नई सब्जी परोसी जिसका नाम था- ‘इंडो-रशिया फ्रेंडशिप वेजिटेबल’ (भारत-रूस मित्रता सब्जी)। जब मैंने वह खाई तो मुझे आलू, मूली और गोभी का मिला-जुला जायका आया. मित्रता की खुशबू दिलों से होकर सब्जियों तक महसूस कर मुझे अपने आलुओं पर गर्व हुआ। अब तो शकरकंद में आलू मिलाकर बनाई गयी सब्जी भी हम बड़े चाव से खा रहे हैं, परोस रहे हैं। दुनिया में यह एक मिसाल भी है जब हमारा देश, दुनिया में हमारी आलू-प्रवत्ति का कायल हो गया है। ऐसे में ‘आलू मार्का’ व्यक्तियों और दलों द्वारा विचारधारा निरपेक्ष होकर सरकारों के बनने बिगड़ने में जो गौरवशाली योगदान दिया जाने लगा है उससे उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान के भाव से मन भर उठता है। 

जिंदाबाद प्यारे आलू। तुम्हारी सदा जय हो! 

 ब्रजेश कानूनगो

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