Tuesday, May 2, 2023

ठोकर में है जमाना

ठोकर में है जमाना


जहां चौखट है, वहां ठोकर है। ठोकर और पैरों का बड़ा सीधा रिश्ता होता है। ईश्वर की दहलीज में हमेशा से याचक ठोकर में पड़े रहने को अपना सौभाग्य मानते रहे हैं। ये ठोकरें पवित्र चरण होती हैं जिन पर श्रद्धालु सीस नवाते हैं।
जहां आस्था की ठोकर का अपना बड़ा आशावादी और विनम्र अहसास होता है वहीं दूसरी तरफ कुछ और भी ठोकरें होती है। जिनके तेवर कुछ अलग होते हैं। ऐसी ठोकरें खाई भी जाती हैं और मारी भी जाती हैं। अच्छे अच्छे बदमाश ठोकर खाकर संस्कारी होने लगते हैं। कई बार कई लोग अच्छे अवसरों को ठोकर मारकर आगे बड़ जाते हैं। कुछ ठोकर खा कर औंधे मुंह आ गिरते हैं।

जैसे ही कहीं चुनाव की घोषणा की जाती है वैसे ही चुनाव आयोग एक संहिता लागू कर देता है। आदर्श आचार संहिता लागू करना चुनाव आयोग का धर्म  है। धर्म और कर्म दोनों एक साथ चला करते हैं इसलिए आचार संहिता को ठोकर मारने का उपक्रम भी खूब दिखाई देने लगते हैं।
यदि पैर मिले हैं तो ठोकर मारना भी उसकी एक कला का ही रूप है।

हर एक व्यक्ति को ईश्वर ने चलने के लिए दो अदद टांगें दी हैं। दुनिया नाप लेने की क्षमता व शक्ति इनमें पाई जाती है।
जब बालक पहले पहल चलना सीखता है तब देखिए इन पैरों का आकर्षण और उनकी लड़खड़ाती मोहक चाल। 'ठुमक चलत रामचन्द्र'। उसके बाद तो व्यक्ति ऐसी चाल पकड़ता है कि पीछे मुड़कर नहीं देखता। बाद में वह न सिर्फ चलता है, दौड़ता है बल्कि वह ठोकर भी मारने लगता है। कभी कभी असावधान कदमों के कारण वह स्वयं ठोकर खा भी जाता है। अपनी गलती पर उसे क्षोभ होने लगता है।

अब इसमें कोई संदेह नहीं है कि जिसके पैर हैं वह ठोकर मार भी सकता है, ऐसा थोड़ी है कि दूरियां नापने के लिए मात्र आप चलते ही रहें... भोपाल दिल्ली या फिर पूरे देश प्रदेश की पदयात्रा ही करना ही तो हमारा उद्देश्य नहीं हो सकता ना।

मनुष्य सदा से प्रयोग शील प्रवृत्ति का रहा है और उसने पैरों को लेकर कई नए नए प्रयोग भी किए हैं। अगर ऐसा न हुआ होता तो देवकी पुत्र यशोदानंदन कालिया नाग की जहरीली फुंकार से कृष्ण कैसे बन पाते। न गोविंद गेंद को जोरदार ठोकर मारते और ना ही वह जमुना जी में जा गिरती। वह गोविंद की ठोकर ही थी जिसने कालिया नाग के गुरूर को चूर-चूर कर के रख दिया था। सही और उचित ठोकर से अच्छे अच्छों की अकड़ खत्म हो जाती है। कोई ज्यादा ही अकड़ रहा हो तो जमाइए एक जोरदार लात या ठोकर, भूल जाएगा वह अपनी सारी हेकड़ी।

बिना ठोकर मारे कोई 'खेला'  संभव ही नहीं। वह कुर्सी का हो या फुटबॉल का। बिना ठोकर के फुटबॉल की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सही निशाने को लक्ष्य करके विवेकपूर्ण ढंग से मारी गई ठोकर फुटबॉल को सीधे गोलपोस्ट की राह दिखाती है, और पेनल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील किया जा सकता है।

इसी प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में कई लोग ठोकर खाते रहते हैं,ठोकर मारते रहते हैं। मारने वाले अपने प्रतिस्पर्धी को पीछे धकेल कर आगे बढ़ जाते हैं। पीछे रह जाने वाला, गिरने वाला फिर संभल कर, उठकर दूसरों को ठोकर मारने लगता है।
वैसे जो व्यक्ति जीवन में एक बार ठोकर खा लेता है उसकी राह आसान हो जाती है, शर्त यह है कि वह अपनी ठोकर से सबक ले वरना ठोकरें जीवनभर  उसका पीछा नहीं छोड़ती। किसी लुप्त होते राजनीतिक दल की तरह गोल पर गोल खाते रहना उसका दुर्भाग्य बन जाता है। ठोकर मारना हरेक के लिए आसान भी नहीं होता। इसके लिए बहुत बड़ा जिगर और मजबूत कदम होना चाहिए। युवराज सिद्धार्थ अपने साम्राज्य को ठोकर मार कर यूं ही वन को नहीं निकल गए थे। हर कोई वैसा महात्यागी और महाबली नहीं हो सकता, जो उसी को लेकर ठोकर मार दे जिसके कारण उसका जीवन सुखी हो सकता है।
यह भी सही बात है कि हर व्यक्ति कहीं भी ठोकर मारने के लिए स्वतंत्र है, चाहे किसी व्यक्ति को मारे, किसी खेल में मारे, या आचार संहिता पर प्रहार करे। बस थोड़ा सा विवेक और निशाना ठीक बनाए रखना जरूरी होता है। अन्यथा खुद का पैर भी घायल हो सकता है। जरा सोचिए!

ब्रजेश कानूनगो 

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