Sunday, February 27, 2022

मूँछ और पूँछ के बाल

मूँछ और पूँछ के बाल 

मूँछ और पूँछ के बालों की अलग महत्ता रही है। यों कहें कि ये भी एक तरह का वर्ग विभाजन है। एक ओर वे लोग हैं जो किसी के मूँछ के बाल होने का सौभाग्य प्राप्त किए हुए हैं और दूसरी ओर वे लोग भी हैं जो किसी की दुम या पूंछ या अन्य हिस्सों से झर कर यहाँ उपस्थित हैं।

बड़े लम्बे समय से हमारे यहां मूँछ रखना बड़े गौरव की बात रही है। लेकिन अब किसी के मूँछ का बाल हो जाना उससे भी ज्यादा महत्त्व रखता है। जमाने के चलन और नए फैशन के दौर में आप भले ही मूँछ मुंडवा चुके हों लेकिन किसी तरह नेताजी,बाहूबली या मंत्री जी की मूँछ के बाल होने का सौभाग्य यदि प्राप्त कर लेते हैं तो आपका कद समाज में ऊंचा होने की पूरी सम्भावना बन जाती है।

जो मूँछ के बाल की कद्र करते हैं, वे अच्छी तरह इसके मूल्य को भी जानते हैं। कभी इन्हीं मूँछों की कसमें खाई जाती थीं। वादे-इरादे न पूरे कर पाने पर मूंछों के बलिदान कर देने का महान कार्य सम्पन्न कर इतिहास को समृद्ध किया जाता रहा है। मूँछ का एक-एक बाल बेशकीमती हुआ करता था। केवल एक बाल को गिरवी रखने पर करोड़ों के ऋण के लिए मार्डगेज या जमानत की व्यवस्था हो जाया करती थी। मूँछ के बाल की कीमत तुम क्या जानो साहब!

यदि आप मूँछ के बाल नहीं बन पा रहे तो घबराइए नहीं, नाक के बाल बनने का प्रयास कीजिए। मूँछ के बाल और नाक के बाल में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता है। जैसे विज्ञान विषय में एडमीशन नहीं मिल पा रहा हो तो कॉमर्स की डिग्री ले लेते हैं, जैसे आईआईएम में प्रवेश नहीं मिलता तो बी-ग्रेड बिजनेस स्कूल से काम चलाते हैं, वैसे ही यदि आप मूँछ के बाल नहीं बन पा रहे हों तो नाक के बाल होने के लिए भी कोशिश करें।  नाक के बाल भी वही करिश्मा दिखाने का सामर्थ्य रखते हैं जो मूँछ के बाल करते हैं।

जहाँ तक पूंछ के बालों का सवाल है, वह ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुए हैं। अब कोई पूंछ का बाल बनना भी नहीं चाहता। और जो पूंछ के बाल हो गए हैं वे भी समाज में बहुत अपमानित महसूस करते हैं। कभी घोड़े की पूंछ के बालों से सारंगी को कसा जाता था, और मधुर धुन पैदा की जाती थी। अब सारंगी कोई सुनना ही नहीं चाहता। बालों के समाज में पूंछ के बाल उपेक्षित श्रेणी में देखे जाते रहे हैं। पूंछ के बाल सदियों से मूँछ के बालों द्वारा तिरस्कृत रहे हैं। अपने हितों के लिए पूंछ के बालों का संघर्ष बड़ा असंगठित है। नेतृत्व विहीन है। उनका आन्दोलन भी पूंछ की तरह केवल हिलता-डुलता रहता है, जिससे महज कीट-पतंगों के आक्रमण से तो अपने को बचाया जा सकता है, किंतु मूँछ के बालों के सुनियोजित हमलों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

पूँछ के बाल बरसों से यही आस लगाए बैठे हैं कि कभी कोई ऐसा भी उद्धारक पूंछ का बाल अवतरित होगा जो सभी पूंछ के बालों को गूंथकर शस्त्र बनाएगा और शत्रुओं से लोहा लेने में सफल होगा।

ब्रजेश कानूनगो


Thursday, February 24, 2022

रात दो बजे का प्रलाप

 रात दो बजे का प्रलाप 

जिस दौर में खबरिया चैनलों पर समाचार वाचक 'कर्मचारी' को 'करमचारी' उच्चारित करते हों। 'संभावना' और 'आशंका' जैसे शब्द  समानार्थी समझे जाते हों, तब मेरे किसी भाषाई 'आलाप'  के कोई ख़ास मायने नहीं हैं। मेरी बात  को  किसी बेसुरे राग में घोषित हो जाने की पूरी आशंका है। इसे  बेवजह और असमय के   ‘प्रलाप’ का  आरोप भी झेलना पड़ सकता है। फिर भी  दुस्साहस की प्रबल इच्छा से मैं बेहाल हूँ।

कभी-कभी ऐसा होता है कि हम आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़े रहते हैं लेकिन नींद नहीं आती। घड़ी की हर टिक पर हमें आशा रहती है कि शायद अगली टिक हम नहीं सुन पाएँ और नींद के रेशमी जाल में जकड़ लिए जाएं। लेकिन वह नहीं आती तो नहीं आती। 

नींद नहीं आने के अनेक कारण हो सकते हैं।मच्छर आपके शरीर पर आतंकवाद फैला रहे हों, गर्मी पड़ रही हो, हवा चलना बन्द हो। ये नींद नहीं आने के सामान्य कारण हैं। नींद हराम होना इससे थोड़ा अलग है। परोक्ष भावनात्मक कारणों से इंसान की नींद हराम होती रही है। मन में कोई डर बैठा हो कोई दुखद घटना से  कोई दुख साल रहा हो या किसी सुखद समाचार से मन अधिक प्रफुल्लित हो , मनचाही बात अकस्मात फलीफूत हो गई हो अथवा अनचाही पीड़ा ने तन मन को झकझोर दिया हो तब भी  प्यारी निंदिया रानी बाहें नहीं फैलाती।

किसी छोटे दुकानदार से पूछिए जिसका दिवाला निकल रहा हो,किसी युवा से पूछिए जिसने वर्षों मेहनत करने के बाद किसी परीक्षा में सफलता पाई हो लेकिन नौकरी नहीं मिल सकी हो, किसी आम निवेशक से पूछें जिसके शेयरों के भाव अचानक गिर गए हों ... रात भर करवटें बदलने के बहुत से कारण होते हैं। सभी पीड़ितों का जवाब एक ही होगा कि कोशिश करते हैं लेकिन रात को नींद नहीं आती। नींद की चोरी हो जाती है। यह भी सच है कि चोर उनके अंदर ही मौजूद होता है। 

मेरी व्यथा उस दिन इन सबसे बिल्कुल अलग थी। जब बड़ी मुश्किल से  किसी तरह काल्पनिक भेड़ों की गिनती करते हुए आँख लगी ही थी कि मोहल्ले के कुत्तों ने सामूहिक स्वर में कोई 'श्वान गीत' छेड़ दिया। जब नींद उचट ही गयी और वाट्सएप के सारे जीव-जंतु स्वप्नदर्शी हो चुके तो मेरे लिए इसके अलावा कोई चारा नहीं रह गया कि मैं उस अद्भुत और सुरीले 'डॉग्स गान' के आनंद में डूब जाऊं।

क्या वह कोई विलाप था कुत्तों का?  विलाप था तो उन कुत्तों को आखिर क्या दुःख रहा होगा जो इस तरह समूह गान की शक्ल में यकायक वह फूट पड़ा था। यह दुःख कुत्तों को  सामान्यतः रात में ही क्यों सताता है? क्या दिन के उजाले में कुत्तों के अपने कोई  दुःख नहीं होते? अगर होते हैं तो वे उसे दिन में अभिव्यक्त क्यों नहीं करते। दिन में आखिर कुत्तों को किसका और कौनसा डर सताता है जो वे दुपहरी में अपना मुंह खोलकर विलाप नहीं करते?  

कुछ लोग दिन के कुम्भकर्ण होते हैं। दोपहर की नींद निठल्लों की नींद होती है। इन नींद प्रेमियों को देश प्रेमी बनाने के लिए जगाना जरूरी है, किन्तु यह कैसी हिमाकत है दुष्ट कुत्तों की जो वे थककर सोए कर्तव्यनिष्ठ और देश भक्त लोगों की नींद हराम कर देते हैं, रात के दो बजे।

थोड़ा सकारात्मक सोंचें तो यह भी संभव है कि ये कुत्ते अपनी विलुप्त हो रही किसी गायन परंपरा को जिन्दा रखने के महान उद्देश्य से रात को समवेत स्वर में 'आलाप' लेने का अभ्यास करते हों।  जो भी हो इनकी  निष्ठा असंदिग्ध है । पूरे मन से एक साथ, एक स्वर में इनकी तेजस्वी  प्रस्तुति न सिर्फ प्रशंसनीय बल्कि अनुकरणीय कही जा सकती है। अन्य प्राणी जगत में पुरानी परंपराओं को बचाने की यह प्रवत्ति दिखाई देना अब दुर्लभ है। मनुष्य समाज में तो अब हरेक का अपना अलग राग है, अपना अलग रोना है। हमें यह सामूहिकता कुत्तों से सीखनी चाहिए। क्या ख्याल है आपका !! 

ब्रजेश कानूनगो 


Tuesday, February 22, 2022

पत्र परंपरा : फूल तुम्हे भेजा है ख़त में

 पत्र परंपरा : फूल तुम्हे भेजा है ख़त में

पत्रलेखन की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। जब मै चौथी कक्षा मे पढता था तब हिन्दी के पर्चे मे अपने पिता को पत्र लिखने के लिए कहा गया था जिसमे स्कूल की पिकनिक के लिए पिताजी से सौ रुपए मँगाने का अनुरोध करना था। पाँचवी कक्षा मे आने पर किसी मित्र को पत्र लिखने के लिए कहा गया। जैसे जैसे अगली कक्षाओं में चढ़ता गया,पत्रों के विषय जरूर बदलते गए लेकिन पत्र लेखन का प्रश्न अनिवार्य बना रहा। 

बचपन से ही पत्र लेखन के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन हमारे यहाँ दिया जाता रहा है। होठों के ऊपर काली रेखा के उगते ही,आम भारतीय छोरा ’मैने तुम्हे खत लिखा ओ सजनी...’ गाते हुए पत्र लेखन प्रतिभा का सार्वजनिक प्रदर्शन करने को आतुर हो उठता है। यहाँ तक कि निरक्षर प्रेमिका भी मुँह बोले भाई से ‘खत लिख दे साँवरिया के नाम बाबू’ कहने को विवश हो जाती है। पत्र लिखने लिखवाने की भावनाएँ बड़ी फोर्स से आती हैं। इसी विवशता और इसके महत्व के कारण सरकारों को भी प्रौढ़ शिक्षा जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा देना पडा ताकि पत्र परम्परा बनी रह सके। उद्देश्य यही है कि देश का हर व्यक्ति और कुछ नही तो कम से कम खत लिखना अवश्य सीख जाए। सोशल मीडिया के डिजिटल दौर के इस समय मे जो भी कागजी खत लिखे जा रहे हैं, देर सबेर उन्हे अपने गंतव्य तक पहुँचाने की गारंटी तो हमारे डाकघर अब भी देते ही हैं। चूँकि डाकघर आजादी के पहले खुल गए थे अत: लालडब्बे मे मय टिकिट और पते के डल जाने के पश्चात वे किसी न किसी तरह कभी न कभी ठिकाने लग ही जाते हैं। हमारे अग्रज व्यंग्यकार शरद भाई को भी इस बात का बडा संतोष था कि अँगरेज डाकघर यहीं छोड गए। 

एक वक्त वह भी था जब कालिदास की नायिका को मजबूरीवश मेघराज के मार्फत अपना सन्देश पहुँचाना पड़ा था। फिर कबूतर उडने लगे, चिट्ठियों के साथ। हरकारे दौडे, मोटरें,रेलें और हवाई जहाज आए तो खत भी सफर करने लगे। डाक विभाग अस्तित्व मे आया और एक बड़े महत्वपूर्ण प्राणी का विकास हुआ जिसे डाकिया कहा गया। डाकिया बाबू परिवार के आत्मीय सदस्य बन गए। इंतजारे डाकिया अपने आप मे एक हसीन अहसास रहा है। अहा ! कैसी अद्भुत रेशमी डोर हुआ करते थे साइकिल पर घर आए डाकिया बाबू। 

पत्र लेखन से हमारा साहित्य भी कम समृद्ध नहीं हुआ है। वो चाहे मिर्ज़ा ग़ालिब के खुतूत हों, महात्मा गांधी के हस्त लिखित पत्र हों या पंडित जवाहरलाल नेहरू के बिटिया इंदु के नाम लिखी चिठ्ठियाँ हों। विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर हैं ये खत ! अब्राहम लिंकन का अपने बेटे के शिक्षक के नाम लिखे पत्र को कैसे भुलाया जा सकता है। ख़त लिखने की शुरुवात करने से ही आम इंसान में से टॉलस्टाय,शेक्सपियर,और मुंशी प्रेमचंद  निकलने की संभावनाएं पैदा होती हैं। 

दशको पहले दादाजी,पिताजी के लिखे ख़त आज भी स्नेह और अपनत्व की खुशुबू बिखेरते रहते हैं ! प्रेयसी द्वारा लिखे प्रेम पत्र आज भी मता-ए-ज़ीस्त लगते हैं ! दीपावली और ईद पर मिले बधाई पत्र आज भी यादो की मरूभूमि में नखलिस्तान बन जाते हैं। एसएमएस या ईमेल या वाट्सएप संदेश सब कागज़ के फूल हैं ! लेकिन यह भी एक कड़वी हकीक़त है.... अश्कों में बह जाती थी जिनकी इबारतें ..! अब वो मज्मून कहाँ, वो ख़त कहाँ ... !

दरअसल, दिल हो,फूल हो या खत हो यदि उस पर कोई आँच आती है तो सचमुच वह तो बहुत बड़ी खता होगी। पत्र परम्परा को बचाए रखने की जिम्मेदारी अब हम सब पर है।


ब्रजेश कानूनगो 

Sunday, February 20, 2022

खटिया खड़ी करना

 खटिया खड़ी करना 

महानगर से ग्रामीण क्षेत्र में चुनाव प्रचार को आए नेताजी बड़े जोश से कह रहे थे कि इस बार तो वे अपने दल के प्रतिद्वंदी की खटिया ही खड़ी करके रख देंगे। 

एक स्थानीय हिंदी प्रेमी पत्रकार कम साहित्यकार ने उनसे पूछ लिया कि क्या उन्हें पता है कुछ खटिया के बारे में? कभी सोए हैं उस पर? मूँज की रस्सियों से कैसे कलात्मक रूप से वह बुनी जाती है? उत्तर में वे नेताजी बगलें झांकने लगे।

दरअसल हर कोई अपने विरोधी की खटिया खड़ी करने पर तुला रहता है भले ही वह खुद या सामने वाला खटिया का इस्तेमाल तो दूर उसकी बनावट,बुनावट आदि तक के बारे में ठीक से नहीं जानता होगा। मुहावरे का प्रयोग करने से पहले कम से कम उसके बारे में थोड़ा बहुत अवश्य जान लेना चाहिए। खटिया क्या होती है? कैसी होती है? कैसे बुनी जाती है। कब खड़ी की जाती है। पहले समझो फिर इस्तेमाल करो।

अभी कुछ वर्ष पहले का इतिहास ही टटोल लेते जब एक जनसभा के बाद उपस्थित श्रोताओं ने वहां बिछाई गईं ‘खाटो’ को लूट लिया था। 

राजनीतिक पार्टी ने अपनी रैली में जरूर यही सोंचकर जनता-जनार्दन के लिए खटिया बिछाई होंगी कि वह चुनाओं में उनके निशान वाला बटन दबाकर अपना ‘खटिया धर्म’ निभाएगी, मगर अफसोस, मतदाता खटिया ही ले उड़े।

मेरे ख़याल से वह दुनिया में पहली और अकेली बात थी जब हमारे लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खुले आम लूट की महानतम घटना को अंजाम दिया था। यह मामूली घटना नहीं थी। संख्या के लिहाज से भी और साहस के हिसाब से भी। किसी भी लूट में हजारों की संख्या में लुटेरों ने कभी इतना जोरदार धावा पहले नहीं बोला होगा। बहुत संभव है गिनीज बुक सहित दुनिया की सभी रिकॉर्ड पुस्तकों में इसे दर्ज भी किया गया हो। इतनी बड़ी घटना के बावजूद कोई उनकी खटिया खड़ी नहीं कर पाया आज तक। वही प्रसंग पढ़ लेते तो खटिया के बारे में जानकारी मिल जाती। लेकिन नेताजी क्यों इतनी जहमत उठाने वाले।बस कह दिया कि खटिया खड़ी कर देंगे। 

अरे भाई, कुछ पता भी है खटिया कब खड़ी की जाती है? कैसे खड़ी की जाती है? खटिया के खड़ी होने के पीछे कितना दुख है,व्यथा है,करुण रस है। भारतीय सिनेमा नहीं देखते क्या? विविधभारती की राष्ट्रीय चैनल पर गाने नहीं सुनते क्या? या बस यों ही राष्ट्रवाद का राग अलापते रहते हो।  सुना नहीं वह बेचारा नायक कैसे गा गा कर गिड़गिड़ाता रहता है अपनी प्रेयसी के सामने, सरकाय लियो खटिया जाड़ा लगे....और हमारे हरि बाबू की व्यथा को याद कीजिए, रामदुलारी मैके गई, खटिया हमरी खड़ी कर गई...

हिन्दुस्तानी समाज में खटिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। धरती पुत्र का जीवन है खटिया। शादी ब्याह में माता पिता द्वारा बच्चों को उपहार में खटिया देने की परम्परा रही है, ‘खाट बैठनी’ जैसी मांगलिक रस्म होती है जिसमें नव-दंपत्ति साथ-साथ जीने-मरने का संकल्प लेते हैं। घर के बुजुर्गों के अवसान के बाद गाय, छतरी, बिछौने के साथ एक खटिया भी दान की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि इससे संतान को बड़ा पुण्य मिलता है और मृतात्मा को सीधे स्वर्ग में खटिया सुख नसीब होता है। 

आज भी जब हम ग्रामीण क्षेत्र में जाते हैं तो सबसे पहले मेजमान आपके लिए खटिया बिछाता है, बैठाता है, फिर जलपान की व्यवस्था करता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वह बहुत अपमान जनक माना जाता है। सामने वाला कहता है ’फलां ने तो हमारे लिए खटिया तक नहीं बिछाई!’ 

इस कथा के नायक नेताजी ‘खटिया खड़ी’ करना चाहते थे ? अगर खटिया खड़ी भी करना चाहते हैं तो वह सीधी खड़ी करना चाहते थे या उल्टी खड़ी करना चाहते थे?  किसी के सिधार जाने के बाद जब खटिया का पैरों के तरफ वाला हिस्सा दीवार पर सटाकर ऊपर की ओर रखकर खडा किया जाता है उसे खटिया को उल्टी खड़ा करना कहा जाता है। अब बताइए किसी भी व्यक्ति की खटिया को खड़ी कर देना या अपने प्रतिद्वंदी की मौत की कामना करना भारतीय संस्कृति के अनुकूल है? क्या किसी भी राजनीतिक पार्टी या व्यक्ति के गुजर जाने की चाह प्रजातंत्र की मौत की आकांक्षा की तरह नहीं होगी। विचार करें।

ब्रजेश कानूनगो


Friday, February 18, 2022

दम्भी गोभी की सोच और विनम्र चने की मौज

 दम्भी गोभी की सोच और विनम्र चने की मौज

जो स्थान पुष्प समाज मे गोभी को प्राप्त है लगभग वही स्थान वृक्ष जगत में चने को मिला हुआ है। गोभी फूल होकर भी पुष्प नहीं है और चने का वृक्ष नहीं होकर भी झाड़ कहलाता है। यद्यपि गुलाब को फूलों का राजा माना गया है लेकिन बदलती दुनिया में उसके स्थान धीरे धीरे अब कमल कब्जा करता जा रहा है। पुष्प समाज में गोभी के फूल की कोई औकात नहीं है फिर भी  शक्ल सूरत में कमल सी रंगत के चलते मन में कमल होने का भ्रम पाले रहती है। अब कहाँ राजा हिंदुस्तानी और कहां गंगा पनिहारिन ! कोई तुलना ही नहीं है। 

चना इस मामले में थोड़ा गोभी से अलग सोचता है। उसे कोई मुगालता नहीं है। लोग जुमलो में कितना ही चने के झाड़ पर चढ़ने की खयाली कवायद करते रहे हों किन्तु चना जानता है कि उसके तनों में इतना जोर नहीं कि अकड़कर अपना सीना ताने इठलाता फिरे। वृक्ष कुटुम्ब का हिस्सा होकर भी कभी यह चिंता नहीं करता कि उसे समाज का सदस्य माना भी जाए या नहीं। इसीलिए वह सुखी है। फालतू की महत्वाकांक्षा पालने के चक्कर में नहीं पड़ता। दूसरों को भले चने के झाड़ पर चढ़ाते गिराते रहिए पर चना स्वयं इस चक्कर में कभी नहीं पड़ता। चने को अपनी इसी विनम्रता व समझदारी की वजह से लोगों का भरपूर प्यार मिला है।

इस मामले में गोभी का चरित्र अलग है।  पत्ते उतरते ही उसका असंतुष्ट व कुपित चेहरा उजागर हो जाता है। कमल न हो पाने व पुष्प न माने जाने का दुख उसे सदैव परेशान करता रहता है। जब कमल स्वयं गुलाब का स्थान पाने में कामयाब नहीं हो पा रहा,संघर्षरत है, तब गोभी की क्या बिसात कि वह बगीचे की सरताज बन सके। क्यों जबरन ये भाजी बहिने बुआओं की तरह मुंह फुलाए बागवान को मुंह चिढाती रहती हैं। यदि आलू मटर के साथ ऊब गईं हों तो कमल गट्टे के साथ मिलकर नए जायके से लोगों का मन जीतने की कोशिश करें। इधर फुलवारी में अतिक्रमण क्यों करना चाहती हैं। 

गोभी के मुकाबले चना बड़ा संतुष्ट रहता है। कई तरह से वह लोगों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब हुआ है। इससे जो खुशी मिलती है वही शायद उसकी धरोहर है। कच्ची उम्र में ही चना लोगों का मन मोह लेता है। उसका हरापन बहुत लुभाता है। पत्तियों से लदी डाल से घेटियों या लिलुओं से निकले मुलायम दानों की मुस्कुराहट जरा महसूस कीजिए... और जब चखेंगें,चबाएंगे तो काजू किशमिश और बादाम को भूलने लगेंगें। 

चना हर आम और खास का मेवा है। क्या राजा और क्या प्रजा। चने का खेत देखा नहीं कि वाहन से उतरने का मन करने लगता है। सेवक हो या प्रधान सेवक, छोड़ ही नहीं सकते इसे। एक बार चने के लिलुए से दाना निकाल चबाना शुरू किया तो मुंह रुकता ही नहीं। चबाते जाइए... इसके विपरीत गोभी के लाख तरह के पकवान बना लीजिए पर वह आनन्द कहाँ जो गुड़ चने में है। शायद महान बलशाली बजरंगबली को भी इसीलिए गुड़ चने का भोग लगाने की परंपरा रही है। 

यह बड़ा दिलचस्प है कि ज्यादातर प्रधानमंत्री अपनी शेरवानी पर गुलाब का फूल या कमल का बैज धारण करते रहे हैं। गोभी का फूल आज तक किसी ने नहीं लगाया लेकिन हर प्रधान ने चने के खेत में उतरकर स्वयं छोड़ तोड़कर चने के दाने अवश्य सेवन किए हैं। चने की विनम्रता देखिए इतना गौरव पाकर भी वह चने के झाड़ पर नहीं चढ़ता। खैर छोड़िए अब... छोड़ सेंकिए, होला खाइए...!!

ब्रजेश कानूनगो


Thursday, February 17, 2022

महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

 महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

कभी कभी इतना जोरदार प्रेशर बनता है कि रोक पाना मुश्किल हो जाता है। तन मन में ऐसे कई प्रेशर उठते रहते हैं। तन को प्रेशर मुक्त करना  फिर भी प्रकृति सम्मत और सहज है किंतु जब मन पर प्रेशर बनता है तब बड़ी मुश्किल हो जाती  है। उस वक्त सामने या तो सुनने वाला कोई हितचिंतक या भक्त हो या फिर कागज कलम या कोई उपयुक्त गैजेट, कम्प्यूटर आदि उपलब्ध हो। अपने मन की बात को तब आप वहां स्खलित करके प्रेशर मुक्त हो सकते हैं। 

एक मुहावरा बड़े दिनों से मक्का के दाने की तरह मन के प्रेशर कुकर में पॉपकॉर्न की तरह उछलकूद मचा रहा है। एक मुर्गा सुबह होते ही कम्प्यूटर के स्क्रीन पर बाग देने को आतुर हो जाता है। मेरे चिंतन में दाल भी है और मुर्गी भी। दाल बराबर मुर्गी।  प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है। संविधान में ही व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। उठते सेंसेक्स की चिंता करें या गिरते नैतिक मूल्यों व चरित्र के पतन की। सड़क के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की। भ्रष्टाचार पर लगाम की करें या बढ़ती महंगाई की। साहित्य की करें या संस्कृति की। जुमलों की करें या किवतंति की। कोई प्रतिबन्ध नहीं है। सोशल मीडिया के इस उन्नत व महत्वपूर्ण दौर में अपने चिंतन को दूसरों पर जबरन थोपने से भी किसी को कोई  गुरेज नहीं है। आप तो बस शुरू हो जाइए।  

दाल बराबर मुर्गी। केवल मुहावरे में ही नहीं, जीवन में भी दाल और मुर्गियों के बीच अंतरसंबंध सदा से रहे हैं। दाने पर मुर्गियां जीवित रहती हैं तो स्वार्थ सिद्धि हेतु अधिकारियों,मंत्रियों के लिए मुर्गियों को ही उनका दाना बना दिया जाता है। बहुतों को याद होगा कभी कड़कनाथ नाम की मुर्गियां बड़ी चर्चा में रहा करतीं थीं। अफसर-नेता जब कभी दौरे पर जाते मेजमान सब काम छोड़कर कड़कनाथ मुर्गी के इंतजाम में जुट जाया करते थे। ये तब की बात है जब निजी क्षेत्र के होटलों का इतना विकास नहीं हुआ था। डाकबंगलों के खानसामाओं को ही साहब के भोजन का ध्यान रखना पड़ता था। कुछ खानसामा और चौकीदार तो मुर्गियों का एक छोटा-मोटा फ़ार्म ही मेंटेन किया करते थे ताकि ऐन वक्त पर दौड़-भाग न करनी पड़े। साहब आएं तो जायकेदार मुर्गी उनकी तश्तरी में प्रस्तुत की जा सके।

जब समय सूचक घड़िया नहीं होती थीं तब मुर्गियों से भी ज्यादा मुर्गे का महत्व हुआ करता था। उसकी आवाज उसी तरह सुनी जाने की परंपरा रही है,जैसे आज लालकिले की प्राचीर से हम भारतीय प्रधानमंत्री को सुनते हैं। किसी ऊंचे टीले पर चढकर  लाल कलगी वाला मुर्गा रात भर  सूरज के निकलने की टोह लिया करता था। जैसे ही उसे आभास होता कि बस अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ। जो लोग चौकीदार के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे।  चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने  घर चले जाया करते थे। वे भी गरीब आदमी की तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को फिर काम पर निकला जा सके।  अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही क्यों खाते थे उन दिनों? वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे।  सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ उसूल होते थे। पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने को अपना अपमान समझता था। वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी। मुर्गी कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब। गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है।  

बाजार में अब मुर्गी और दाल का भाव जब एक हो जाया करता है तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे की याद आने लगती है। मुहावरे को सच में बदलते देखते हैं भोले लोग। नीति नियन्ताओं की बात को समझ ही नहीं पाते कि इसमें सरकार का कोई नीतिगत दोष नहीं होता है। वह तो कभी कभी खराब मौसम के कारण उत्पादन प्रभावित होने से ऐसा हो जाता है। समझते ही नहीं हैं कि आटा, दाल, तेल या डीजल-पेट्रोल की कीमतों का ही नहीं दरअसल महंगाई का घरेलू नीतियों से कोई सीधा संबंध होता ही नहीं है। यह तो बस अंतरराष्ट्रीय हालातों या ईश्वरीय प्रकोप का परिणाम होती है।  बीयर विथ अस। मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस महंगाई का रोना लेकर बैठ जाते हैं। 

भैया छोड़िए भी अब, कौनसी नीति और कैसी  महंगाई। जो दाल खाते हैं वे दाल खाएं। और जो  मुर्गी खिलाना चाहें खूब खिलाएं। बस इतना जरूर समझ लीजिए कि एक मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर एक किलो दाल तो कई दिनों तक चलाई जा सकती है। घर में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के लिए पानी बहुत जरूरी होता है।  जितना ज्यादा पानी पीएंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। हमारा तो बस इतना ही कहना है...आगे आपकी मरजी।

ब्रजेश कानूनगो



       



कपलिंग कथा

कपलिंग कथा

एक गोष्ठी में विमर्श के दौरान जब उन्हें अकस्मात कहा गया कि वे भी विषय पर अपनी बात कहें। शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि वे अपनी बात 'टुकड़े टुकड़े' में कहने की कोशिश करेंगे।  उनका ऐसा कहने पर कुछ लोगों के चेहरों पर जो मुस्कान उभरी उसमें हास्य मिश्रित उपहास का भाव दिखाई दिया जैसे वे तथाकथित किसी अनैतिक गैंग के सदस्य हों।

सच यह है कि टुकड़ों टुकड़ों को जोड़ना ज्यादा जरूरी और उल्लेखनीय कार्य होता है।  बिना जोड़ लगाए कोई बात बनती नहीं। जोड़ना बहुत जरूरी है। यह कोई नई बात नहीं है। प्रभु राम के लंका प्रवेश को सुगम बनाने के लिए वानरों ने बिना किसी साधन के मात्र पत्थर जोड़कर सेतु निर्मित कर दिया था। आज तो ऐसे ऐसे पदार्थ बाजार में उपलब्ध हुए हैं कि सब कुछ जोड़ा जा सकता है। हाथियों से खींचकर भी कपलिंग तोड़े नहीं जा सकते। हरियाणा का लकड़ा पंजाब के पीतल से जुड़ जाता है और कर्नाटक का ग्रेनाइट राजस्थान के मार्बल से।

बोलचाल की भाषा में कहें तो ’कपलिंग’ चाहे जीवन की कठिन डगर पर निकले स्त्री-पुरुष के बीच दाम्पत्य का हो या लोहे की चिकनी पटरियों पर फिसलती तेज रफ़्तार रेलगाड़ी के डिब्बों के बीच के लीवर का, इनकी मजबूती ही सुखद यात्रा की गारंटी होती है। इस कपलिंग में की गयी ज़रा-सी लापरवाही रेलगाड़ी को दो हिस्सों में विभक्त कर सकती है।

बड़ी दिलचस्प है जोड़ने व कपलिंग की यह माया। जोड़ लगाए बगैर शायद ही कभी कोई फर्नीचर तैयार हुआ होगा। कुर्सी भी नहीं बनाई जा सकती। सत्ता की कुर्सी के लिए तो राजनीतिक दलों को कितनी कपलिंग करना पड़ती हैं। कपलिंग बोले तो गठबंधन। कई बार तो ऐसी कपलिंगों में कोई मेल ही नहीं होता, मजबूरी होती है। प्रजातंत्र की रेल दौड़ाने के लिए बेमेल कपलिंग भी करना पड़ जाती हैं। लोकतंत्र की गाड़ी फिर जहां तक सहजता से पहुँच जाए... नहीं तो जब की तब देखेंगे। कपलिंग टूटेगा तो नए लीवर लगाकर आगे का सफ़र पूरा कर लिया जाएगा। चिंता में अभी से दुबले होने से क्या फ़ायदा।

चीजों के जुड़ाव में कड़ियों का बहुत महत्त्व होता है।  जब तक कड़ियाँ आपस में नहीं जुड़ती निर्माण को विस्तार नहीं मिलता। विकास इसी निर्माण में झलकता है। रेलगाड़ी बनती है, मकान हो या देश, कड़ी से कड़ी मिलती है तब ही दिखाई देता है कि भवन बन रहा है, देश बन रहा है। ईंट से ईंट मिलती है तो दीवार खडी होती है। आदमी से आदमी जुड़ता है तो देश खडा होता है।

कई कड़ियाँ होती हैं जिनसे आदमी से आदमी जुड़ता चला जाता है।  प्रेम, सौहार्द , भाई चारे और शान्ति में जो यकीन रखते हैं वे हमेशा इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि कड़ियाँ जुडी रहें। इसी सदइच्छा से नागरिक हाथों की कड़ियाँ जोड़कर मानव श्रंखलाएं बनाते हैं।  कुछ निरंकुश नरसांड अक्सर इन शांतिप्रिय लोगों के बीच घुस आते हैं, एक दूसरे का हाथ थामें लोगों की कड़ियों को तोड़ने के उपक्रम में उत्पात मचाने लगते हैं। इसके बावजूद विभिन्न भाषाओं, धर्मों, रीति रिवाजों और संस्कारों के इतने बड़े देश में अब भी कुछ ऐसे पदार्थ हैं जिन्होंने बड़ा शानदार कपलिंग किया हुआ है। ऐसी अनेक कड़ियाँ हैं जिन्होंने राष्ट्र को एक साथ जोड़ रखा है।

विवाह और राजनीति की रेल ही कपलिंग के कारण नहीं दौड़ती है बल्कि हमारी यह प्यारी दुनिया प्रकृति,मनुष्य और रिश्तों के मजबूत कपलिंग से ही खूबसूरत और जीने लायक अब तक बनी हुई है।अब यह हम पर है कि कपलिंग को मजबूती देने वाले एधेसिव को हम कितना महत्व देते हैं।किसी ने कहा भी है किसी चीज को तोड देना बहुत आसान होता है लेकिन जोड़ना बहुत मुश्किल काम है। विचार करें!!

ब्रजेश कानूनगो