Thursday, February 17, 2022

महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

 महंगाई का मुर्गा और पॉपकॉर्न

कभी कभी इतना जोरदार प्रेशर बनता है कि रोक पाना मुश्किल हो जाता है। तन मन में ऐसे कई प्रेशर उठते रहते हैं। तन को प्रेशर मुक्त करना  फिर भी प्रकृति सम्मत और सहज है किंतु जब मन पर प्रेशर बनता है तब बड़ी मुश्किल हो जाती  है। उस वक्त सामने या तो सुनने वाला कोई हितचिंतक या भक्त हो या फिर कागज कलम या कोई उपयुक्त गैजेट, कम्प्यूटर आदि उपलब्ध हो। अपने मन की बात को तब आप वहां स्खलित करके प्रेशर मुक्त हो सकते हैं। 

एक मुहावरा बड़े दिनों से मक्का के दाने की तरह मन के प्रेशर कुकर में पॉपकॉर्न की तरह उछलकूद मचा रहा है। एक मुर्गा सुबह होते ही कम्प्यूटर के स्क्रीन पर बाग देने को आतुर हो जाता है। मेरे चिंतन में दाल भी है और मुर्गी भी। दाल बराबर मुर्गी।  प्रजातंत्र में किसी भी चीज पर चर्चा की जा सकती है। संविधान में ही व्यवस्था दी गयी है कि राष्ट्र के नागरिक किसी भी बात पर पूरी स्वतंत्रता से अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। उठते सेंसेक्स की चिंता करें या गिरते नैतिक मूल्यों व चरित्र के पतन की। सड़क के गड्ढों की बात करें या संसद के अवरोध की। भ्रष्टाचार पर लगाम की करें या बढ़ती महंगाई की। साहित्य की करें या संस्कृति की। जुमलों की करें या किवतंति की। कोई प्रतिबन्ध नहीं है। सोशल मीडिया के इस उन्नत व महत्वपूर्ण दौर में अपने चिंतन को दूसरों पर जबरन थोपने से भी किसी को कोई  गुरेज नहीं है। आप तो बस शुरू हो जाइए।  

दाल बराबर मुर्गी। केवल मुहावरे में ही नहीं, जीवन में भी दाल और मुर्गियों के बीच अंतरसंबंध सदा से रहे हैं। दाने पर मुर्गियां जीवित रहती हैं तो स्वार्थ सिद्धि हेतु अधिकारियों,मंत्रियों के लिए मुर्गियों को ही उनका दाना बना दिया जाता है। बहुतों को याद होगा कभी कड़कनाथ नाम की मुर्गियां बड़ी चर्चा में रहा करतीं थीं। अफसर-नेता जब कभी दौरे पर जाते मेजमान सब काम छोड़कर कड़कनाथ मुर्गी के इंतजाम में जुट जाया करते थे। ये तब की बात है जब निजी क्षेत्र के होटलों का इतना विकास नहीं हुआ था। डाकबंगलों के खानसामाओं को ही साहब के भोजन का ध्यान रखना पड़ता था। कुछ खानसामा और चौकीदार तो मुर्गियों का एक छोटा-मोटा फ़ार्म ही मेंटेन किया करते थे ताकि ऐन वक्त पर दौड़-भाग न करनी पड़े। साहब आएं तो जायकेदार मुर्गी उनकी तश्तरी में प्रस्तुत की जा सके।

जब समय सूचक घड़िया नहीं होती थीं तब मुर्गियों से भी ज्यादा मुर्गे का महत्व हुआ करता था। उसकी आवाज उसी तरह सुनी जाने की परंपरा रही है,जैसे आज लालकिले की प्राचीर से हम भारतीय प्रधानमंत्री को सुनते हैं। किसी ऊंचे टीले पर चढकर  लाल कलगी वाला मुर्गा रात भर  सूरज के निकलने की टोह लिया करता था। जैसे ही उसे आभास होता कि बस अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ। जो लोग चौकीदार के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे।  चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने  घर चले जाया करते थे। वे भी गरीब आदमी की तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को फिर काम पर निकला जा सके।  अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही क्यों खाते थे उन दिनों? वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे।  सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ उसूल होते थे। पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने को अपना अपमान समझता था। वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी। मुर्गी कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब। गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है।  

बाजार में अब मुर्गी और दाल का भाव जब एक हो जाया करता है तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे की याद आने लगती है। मुहावरे को सच में बदलते देखते हैं भोले लोग। नीति नियन्ताओं की बात को समझ ही नहीं पाते कि इसमें सरकार का कोई नीतिगत दोष नहीं होता है। वह तो कभी कभी खराब मौसम के कारण उत्पादन प्रभावित होने से ऐसा हो जाता है। समझते ही नहीं हैं कि आटा, दाल, तेल या डीजल-पेट्रोल की कीमतों का ही नहीं दरअसल महंगाई का घरेलू नीतियों से कोई सीधा संबंध होता ही नहीं है। यह तो बस अंतरराष्ट्रीय हालातों या ईश्वरीय प्रकोप का परिणाम होती है।  बीयर विथ अस। मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस महंगाई का रोना लेकर बैठ जाते हैं। 

भैया छोड़िए भी अब, कौनसी नीति और कैसी  महंगाई। जो दाल खाते हैं वे दाल खाएं। और जो  मुर्गी खिलाना चाहें खूब खिलाएं। बस इतना जरूर समझ लीजिए कि एक मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर एक किलो दाल तो कई दिनों तक चलाई जा सकती है। घर में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के लिए पानी बहुत जरूरी होता है।  जितना ज्यादा पानी पीएंगे उतना स्वस्थ रहेंगे। हमारा तो बस इतना ही कहना है...आगे आपकी मरजी।

ब्रजेश कानूनगो



       



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