Monday, July 24, 2023

कच्चे कान वालों की व्यथा

कच्चे कान वालों की व्यथा


जंगल का राजा जब शिकार की तलाश में निकलता है तो जरा सी हलचल या आहट उसके कान खड़े कर देती है। आम बस्तियों में भी चूहों के इंतजार में बिल्लियां सदैव अपने कान खड़े किए इधर उधर सूंघती फिरती हैं। शिकारियों के मजबूत इरादे उनके कान से होकर गुजरते हैं। शिकार को कानों कान ख़बर नहीं होने देते कि कभी भी उन्हें दबोचा जा सकता है।  कानों को लेकर यह प्रवृत्ति इंसानों  में भी प्रायः देखी जा सकती है।

कुछ लोग कान के बड़े कच्चे होते हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों के कान बहुत नाजुक होते हैं और हल्की सी बात का भार वे अधिक देर तक उठा नहीं पाते होंगे। बात ठीक इससे उलट है।दरअसल किसी व्यक्ति का कान का कच्चा होना इस बात का प्रमाण होता है कि उस व्यक्ति का कान नहीं बल्कि मन बड़ा कोमल होता है। ऐसे लोगों को सच्चा,झूठा कुछ भी कह दो वे विश्वास कर लिया करते हैं।  चतुर और अपना हित साधने वाले पक्के लोग सदैव कच्चे कानों की तलाश में रहते हैं। मौका मिलते ही उनके कानों पर कब्जा कर लेते हैं।

कान के कच्चे होने को गुण या दुर्गुण जो भी कह लें किंतु  धारण करने वाले सुपात्रों के कानों में स्वार्थ सिद्धि का मंत्र फूंक कर मंतव्य साधा जा सकता है। उन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। इन दिनों यह अभियान हर क्षेत्र में जोर शोर से जारी है। चाहे आपको अपना उत्पाद बेचना हो या विचार। धरती, समुद्र और आकाश की बोलियां लगानी हो। लोकतंत्र के बाजार में वोटर खरीदना हो या विधायक, कच्चे कान वाले भोले लोगों का शिकार जारी है। हमारे इस प्रलाप से कहीं आपके कान ही न पकने लगे हों लेकिन यह हकीकत है। सोशल मीडिया,अखबारों और टीवी चैनलों के जरिए हम सबके कानों में ऐसे ही मंत्र फूंके जा रहे हैं।

आंखों देखी और कानों सुनी का मुहावरा अब  अर्धसत्य है। किसी की आंखों देखी,कानों तक पहुंचते पहुंचते सच्चाई खो देती है। हमारी आंखों देखी हमारे ही कानों में झूठ की झंकार बनकर लौट आती है। सच की पड़ताल की फाइलों को झूठ की तिजोरियों में बंद कर दिया जाता है। दीवारों के कान तो होते ही नहीं, दीवारों की जुबानें भी नहीं होती।

आपने सुना होगा,ऊंचाई पर पहुंचने पर हमारे कान बंद हो जाते हैं। लोग पहाड़ चढें या हवाई जहाज में उड़ें, सत्ता का सिंहासन हो या समृद्धि का शिखर, कानों पर एक सा असर डालते हैं। ऊपर वाले को कुछ सुनाई नहीं देता। यह स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। नीचे खड़ा आदमी गलत कहता है कि ऊपर वाले ने कानों में तेल डाला हुआ है। दरअसल वह सुनने की स्थिति में होता ही नहीं। यह उसकी चढ़ाई का अंतिम पड़ाव होता है। प्रारंभ में उसे एक कान से सुनाई भी देता है लेकिन दूसरे कान से निकल जाता है। कान से वह अनुलोम विलोम भी नहीं कर पाता है। कान बंद हो जाते हैं। उसके कानों पर किसी भी पुकार से जूं तक नहीं रेंगती। घंटे,घड़ियाल और नगाड़ों के भारी शोर से भी इस समस्या का उपचार नहीं हो पाता।  हम आप जैसे कान के कच्चे लोग इन पक्के लोगों की इस परेशानी को समझ ही नहीं सकते!

ब्रजेश कानूनगो





 

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