डूबे हुए लोग
दुनिया में कुछ भी होता रहे,यदि अपने मतलब का नहीं है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह वह समय है जब हर व्यक्ति अपने में ही डूबा रहता है। पहले आदमी कुएं,बावड़ी,तालाब या नदी में डूबता था। समुद्र में डूबने के लिए थोड़ी तैयारी और प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। अब अपने ही भीतर के महासागर में कभी भी डूबा जा सकता है। तैरना नहीं आने पर डूबने वाला आदमी ज्यादातर हमेशा के लिए डूब जाता था, लेकिन अपने में डूबे आदमी को बाहर निकलने की सुविधा रहती है। वह जब चाहे डूब सकता है और जब चाहे बाहर निकलकर औरों को डूबने के लिए प्रेरित कर सकता है।
बहरहाल महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी के कुछ भी हो जाने को कोई अब रोक नहीं सकता। न ही किसी को कोई फर्क पड़ता है कि वह क्यों कर ऐसा हो गया। वो जमाना लद गया जब बाप गुस्से में आग बबूला होते हुए माँ पर आँखें तरेरता हुआ चीख उठता था- 'सुनती हो भागवान! तुम्हारा लाडला 'आवारा' हो गया है।'
समय समय की बात है। अब बाप अपने में ही ऐसा डूबा रहता है कि बेटा हत्यारा हो जाए तो भी बाप के माथे पर शिकन तक नहीं आती। ‘न्यू इंडिया’ का नया बाप जानता है कि बेटा अब 'भारत' नहीं रहा। भारत के भीतर के ‘प्रेम’ और आदर्शों को वक्त नें 'प्रेम चोपड़ा’ ने बदल कर रख दिया है।
‘मदन’ का चाकू 'पुरी' हो या 'भटिंडा' कहीं भी खुले आम अपने जलवे दिखा सकता है। अब कोई ‘बलराज’ अपने बेटे को ‘परीक्षित’ का तमगा लगवाना नहीं चाहता। नए जमाने मे सब बेटे बिना मेहनत किये 'अजेय' बने रहना चाहते हैं। कोई बाप उन्हें बदलने का दुस्साहस चाहकर भी कर नहीं सकता। यह मजबूरी है माँ बाप की। दौलत और जायदाद के लालच में बाप की जान को बेटे की लायसेंसी बन्दूक से खतरा है।
खतरा तो बाप से बेटी को भी हो गया है। अब ‘ओमप्रकाश’ या ‘नाजिर हुसैन’ से भावुक बाप भी कहाँ देखने को मिलते हैं। ‘जीवन’ दादा और ‘के एन सिंह’ के क्लोन मुहल्ले मुहल्ले बेटा बेटियों पर अत्याचार में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
बात केवल घर परिवार की ही नहीं है। बदलाव की यह प्रवत्ति इससे आगे बढ़कर नागरिक समाज की रगो में प्रवेश कर चुकी है। लोग क्या हो जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छा भला आदमी न जाने कब रूप बदलकर भेड़ में बदल जाए और किसी गड़रिये के पीछे पीछे भेड़ों का कोई झुंड लहलहाती खुशहाल फसल को बर्बाद कर दे। गड़रिये को चतुर लोमड़ ‘कन्हैयालाल’ या खूंखार लॉयन ‘अजीत’ हो जाने से कोई रोक नहीं सकता।
अब कोई कभी भी शेर हो सकता है, गधा, बन्दर, चूहा भी हो सकता है। भैंस भी हो सकता है। कोई भरोसा नहीं रहा कि कौन कब क्या हो जाए। भरोसे की भैंस पाड़ा जने या फिर कीचड़ में उतर कर मजे करे, किसी को क्या फर्क पड़ने वाला। नेता अभिनेता हो जाए, अभिनेता अर्थशास्त्री, योगाचार्य व्यवसायी,पड़ोसी थानेदार, टीवी एंकर जज में बदल जाए... कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी चैनल का एंकर पत्रकार नहीं किसी राजनीतिक दल का वकील होता गया है...अब न्यायाधीश के पद पर है तब ऑन लाइन कार्यक्रम में उत्तेजित प्रवक्ता विरोधी प्रवक्ता का कॉलर पकड़ लेता है। यारां! की फरक पैंदा जी !!
किसी पाठक को कोई फर्क नहीं पड़ता कि नए लेखक की पुस्तक का ब्लर्व किसी गुणी विद्वान के नाम से खुद प्रकाशक ने ही लिख दिया है। अखबार में साहित्य पृष्ठ पर पुस्तक की छपी समीक्षा खुद लेखक ने ही तैयार करके संपादक को प्रेषित कर दी है।
जब लेखक खुद ही अपने आपको 'प्रेमचंद ' या ‘परसाई’ समझने लगे तो पाठकों को क्या फर्क पड़ने वाला है। वाट्सएप यनिवर्सिटी से कितने ही नए ‘गुलजार’,’नीरज’, ‘बच्चन’ और ‘अटल बिहारी’ निकलकर आ रहे हैं। अब कोई प्रदीप के गीत को बीन की तरह सुन रहा हो तो जरूरी नहीं कि वह रसिक श्रोता ही होगा। वह इच्छाधारी भैंस भी हो सकती है। क्या फर्क पड़ता है इससे किसी को। आप तो बस डूबे रहिए और दूसरों को भी डूबे रहने को प्रेरित करते रहिए। यह डूबे हुए नए समाज का नया दौर है !
ब्रजेश कानूनगो
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