साहित्य की तनी हुई मूँछ
कहने को साधुरामजी हमारे लंगोटिया यार हैं। लेकिन अपनी हरकतों से हमारी लंगोट खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
कहने को साधुरामजी हमारे लंगोटिया यार हैं। लेकिन अपनी हरकतों से हमारी लंगोट खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
उस दिन हमारी एक व्यंग्य रचना अखबार में छपी थी। तारीफ़ में बहुत से बधाई फोन भी सुबह से आ रहे थे। लेकिन इससे उलट मित्र साधुरामजी स्वयं अखबार पकडे साक्षात पधार गए। आते ही शुरू हो गए-
'आज चड्डी-बनियान गिरोह पर आपने जो लेख लिखा है उसमें चोरों के प्रति आप का रवैया सहानुभूतिपूर्ण लग रहा है। आप अपराधी के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं।' साधुरामजी ने आपत्ति जताई।
'वह व्यंग्य लेख है मित्र, उन फटेहाल चोरों के पक्ष में नहीं है जो रात में छोटी मोटी चोरियां करते हैं। बल्कि पूरी टीम वर्क के साथ दिन के उजाले में देश को लूटने वाले सफेदपोश बड़े अपराधियों पर व्यंजना और लक्षणा शब्द शक्तियों में प्रहार करने की कोशिश की गई है उस रचना में।' हमने सफाई देते हुए कहा।
'किंतु ऐसा स्पष्टतः समझ में आता नहीं लेख पढ़कर।' साधुरामजी बोले।
'वह तो समझना पड़ता है मित्र। साहित्य में बहुत से अव्यक्त को पढ़ना आना चाहिए।' व्यंग्यकार ने कहा।
'फिर भी, आपको स्पष्ट लिखना चाहिए कि आप सफेदपोश लुटेरों पर प्रहार कर रहे हैं।' साधुरामजी अपनी बात पर अड़े रहे।
'साहित्यिक विधा में ऐसा नहीं होता मित्र, पत्थर फेंकने और लाठी चलाने से अलग होता है रचनात्मक प्रहार। और अभिधा में लिखी रचना तो फिर एक रिपोर्टिंग में बदल जाती है। व्यंजना, लक्षणा शक्तियां व्यंग्य के खास औजार होते हैं।' हमने तनिक ज्ञान बांटा।
'नहीं, यह तो ठीक नहीं है बिल्कुल। स्वीकार्य नहीं हमें। ये शक्तियां तो बहुत अराजक और आतंकी लगती हैं अपने आचरण से। इन्हें तुरंत निष्काषित करिये साहित्य से। अन्यथा हमें कोई कानून लाना पड़ेगा।' कहते हुए साधुरामजी नें अभिधा शक्ति में देशभक्ति से परिपूर्ण एक जोशीले नारे का उद्घोष किया और निकल लिए।
'किंतु ऐसा स्पष्टतः समझ में आता नहीं लेख पढ़कर।' साधुरामजी बोले।
'वह तो समझना पड़ता है मित्र। साहित्य में बहुत से अव्यक्त को पढ़ना आना चाहिए।' व्यंग्यकार ने कहा।
'फिर भी, आपको स्पष्ट लिखना चाहिए कि आप सफेदपोश लुटेरों पर प्रहार कर रहे हैं।' साधुरामजी अपनी बात पर अड़े रहे।
'साहित्यिक विधा में ऐसा नहीं होता मित्र, पत्थर फेंकने और लाठी चलाने से अलग होता है रचनात्मक प्रहार। और अभिधा में लिखी रचना तो फिर एक रिपोर्टिंग में बदल जाती है। व्यंजना, लक्षणा शक्तियां व्यंग्य के खास औजार होते हैं।' हमने तनिक ज्ञान बांटा।
'नहीं, यह तो ठीक नहीं है बिल्कुल। स्वीकार्य नहीं हमें। ये शक्तियां तो बहुत अराजक और आतंकी लगती हैं अपने आचरण से। इन्हें तुरंत निष्काषित करिये साहित्य से। अन्यथा हमें कोई कानून लाना पड़ेगा।' कहते हुए साधुरामजी नें अभिधा शक्ति में देशभक्ति से परिपूर्ण एक जोशीले नारे का उद्घोष किया और निकल लिए।
यद्यपि साधुरामजी का सार्वजनिक जीवन मोहल्ले की राजनीति से शुरू हुआ था और मोहल्ले की पार्षदी पर जाकर अटक कर रह गया। और अब तक पुराने घंटाघर की घड़ी की सुइयों की तरह अटका पडा है। इस बीच उनमें किताबें पढ़ने का शौक भी जाग्रत हो गया। पहले कर्नल रणजीत, इब्नेसफी और गुलशन नंदा का अमर साहित्य उन्होंने तत्कालीन पान भण्डार सह पुस्तकालय से प्रतिदिन चवन्नी के किराए पर लाकर खूब पढ़ा, बाद में यही शौक उन्हें छाया वाद से लेकर समकालीन साहित्य की कविताओं और कहानियों की और ले गया। बल्कि इस मामले में उनकी रूचि इस कदर बढ़ी कि घर में ही उन्होंने अपनी एक निजी लाइब्रेरी तक बना डाली।
दिलचस्प प्रसंग यह रहा कि एक दिन अचानक साधुरामजी ने अपनी लायब्रेरी में रखी कविता संग्रहों की सारी पुस्तकें कबाड़ी को बेच दीं तो मैंने आश्चर्य से पूछा- ‘आपने गद्य की पुस्तकें क्यों नहीं बेची कबाड़ी को ?’
उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- गद्य की किताब की बजाय, कविता की किताब का पन्ना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक रहता है।
'क्या मतलब?' में भौचक्क रह गया।
'कबाड़ी से किताबों की रद्दी मंगू चाटवाला खरीदता है, समोसे पर कविता के कम शब्दों की स्याही चिपकती है, जिससे बीमारी की संभावना का प्रतिशत भी घट जाता है।'
उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- गद्य की किताब की बजाय, कविता की किताब का पन्ना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक रहता है।
'क्या मतलब?' में भौचक्क रह गया।
'कबाड़ी से किताबों की रद्दी मंगू चाटवाला खरीदता है, समोसे पर कविता के कम शब्दों की स्याही चिपकती है, जिससे बीमारी की संभावना का प्रतिशत भी घट जाता है।'
आमजनता के हितों के प्रति साधुरामजी की चिंता और जागरूकता का मैं तभी से मुरीद हो गया था। और अब तक बना हुआ हूँ।
पढ़ते पढ़ते धीरे धीरे वे थोड़ा लिखने भी लगे। दोस्तों में कोई लिखता छपता है तो यह संक्रमण दूसरों को भी गिरफ्त में ले ही लेता है। यह रोग हमें भी ऐसे ही लगा था और इसी तरह साधुरामजी में भी यह कीड़ा प्रवेश कर गया। जब भी कीड़ा काट लेता वे कुछ लिख लेते और हमारे पास चले आते। मित्र के नाते मैं उनके लिखे में भाषा और वर्तनी को ठीक करने के लिए कुछ संशोधन कर दिया करता था।
उनकी एक आदत यह थी कि वे 'हेतु' शब्द का खूब प्रयोग किया करते थे लेकिन गलत यह था कि 'हेतु' को 'हेतू' लिख देते थे। मैं उसकी वर्तनी ठीक करके उसे 'हेतु' कर देता मगर वे उसे पुनः 'हेतू' कर देते थे। जैसा कि यह ज़माना कॉपी पेस्ट का अधिक हो गया है सो जब रचना अखबार में प्रकाशित होकर आती वहाँ भी गलत ‘हेतू’ छपा होता। आखिर में परेशान होकर मैने उन्हें शब्दकोश आदि दिखाकर थोड़ा आक्रोश में कहा कि 'साधुरामजी, आप हेतु गलत लिखते हैं, मैं ठीक कर देता हूँ तब भी आप पुनः उसे 'हेतू' कर देते हैं ऐसा क्यों?'वे मुस्कुराते हुए बोले ' मित्र, मैं जानता हूँ सही क्या है। ‘हेतु’ ठीक है लेकिन न जाने क्यों मुझे 'हेतू' ही बचपन से अच्छा लगता रहा है, हेतू से मुझे उसी तरह प्यार हो गया है जैसे कोई वीरपुरुष अपनी 'तनी हुई मूंछों' से प्यार करता है। 'हेतू' मेरी भाषा और रुचि में शामिल हो गया है, इसे मैं त्याग ही नहीं सकता।'
इसके बाद मैंने उनकी भाषा की मूछों को कभी नीचे झुकाने का प्रयास नहीं किया। आज भी उनकी हस्तलिपि में हेतु की मूंछें गर्व से तनी ही रहती हैं।
इसी तरह अपनी मूँछों पर ताव देते हुए उन्होंने खूब कवितायेँ लिख डाली। कवितायेँ लिख डालीं तो किताब भी छपवानी जरूरी हो गई। बिना किताब के लेखक को साहित्यिक मान्यता नहीं मिलती। साहित्य संसार का आधारकार्ड अपना संग्रह या किताब ही होती है यह वे अच्छी तरह जानते थे।
कविताओं का नया संग्रह आया तो बधाई देते हुए हम बोले- ' बढ़िया है किताब आपकी।'
'धन्यवाद, कुछ सामग्री पर भी कहिए!' खुश होकर साधुरामजी बोले।
'सामग्री भी बढ़िया है, कागज की क्वालिटी बेहतर है।' हमने कहा।
'मेरा मतलब है, कविताओं पर अपना अभिमत व्यक्त कीजिये।' साधुरामजी थोड़ा चिढते हुए बोले।
'मेरे कुछ कहने से क्या होगा? फ्लैप पर जो वरिष्ठ कवि ने व्यक्त कर दिया है उससे बेहतर भला मैं और आगे क्या कुछ कह पाऊंगा, साधुरामजी!’ मैंने कहा।
'अरे ,नहीं मित्र! आप मेरी कविताओं पर अपने विचार रखेंगे तो वह मौलिक होंगे।'
'ऐसा क्यों? क्या फ्लैप पर वरिष्ठ कवि का लिखा ब्लर्ब मौलिक नहीं है?'
'जी, वह मैंने स्वयं ही लिख लिया था,उनके नाम से।'
'अरे भाई तो जो पिछले दिनों अखबार में समीक्षा आई है, उसमें भी तो वरिष्ठ आलोचक ने बड़ी प्रशंसा की है, आपकी कविताओं की।'
'अब जाने दीजिए!' उन्होंने निराश होकर कहा 'आपसे नहीं होगा, मैं ही लिख लेता हूँ आपका अभिमत।'
'धन्यवाद, कुछ सामग्री पर भी कहिए!' खुश होकर साधुरामजी बोले।
'सामग्री भी बढ़िया है, कागज की क्वालिटी बेहतर है।' हमने कहा।
'मेरा मतलब है, कविताओं पर अपना अभिमत व्यक्त कीजिये।' साधुरामजी थोड़ा चिढते हुए बोले।
'मेरे कुछ कहने से क्या होगा? फ्लैप पर जो वरिष्ठ कवि ने व्यक्त कर दिया है उससे बेहतर भला मैं और आगे क्या कुछ कह पाऊंगा, साधुरामजी!’ मैंने कहा।
'अरे ,नहीं मित्र! आप मेरी कविताओं पर अपने विचार रखेंगे तो वह मौलिक होंगे।'
'ऐसा क्यों? क्या फ्लैप पर वरिष्ठ कवि का लिखा ब्लर्ब मौलिक नहीं है?'
'जी, वह मैंने स्वयं ही लिख लिया था,उनके नाम से।'
'अरे भाई तो जो पिछले दिनों अखबार में समीक्षा आई है, उसमें भी तो वरिष्ठ आलोचक ने बड़ी प्रशंसा की है, आपकी कविताओं की।'
'अब जाने दीजिए!' उन्होंने निराश होकर कहा 'आपसे नहीं होगा, मैं ही लिख लेता हूँ आपका अभिमत।'
इतना कह कर साधुरामजी ऐसे एकांतवासी हुए कि मुझे उनकी चिंता सताने लगी है। मित्र की नाराजगी न जाने क्या कहर ढाएगी अब....!
ब्रजेश कानूनगो
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