Sunday, October 24, 2021

रिवर्स में जाता समय

रिवर्स में जाता समय


पिछले कई दिनों से मैं साधुरामजी का इंतजार कर रहा था। देश प्रदेश में इतना सब घट जाने के बाद भी उनका आगमन नहीं हुआ था। किसानों का धरना प्रदर्शन लम्बे समय से जारी था। फिल्मी सितारों के परिवार और उनके बच्चे संकट में घिरे हुए थे। कोरोना काल की कई करुण कहानियां सामने आ रहीं थीं। उधर महामारी के योद्धाओं का सम्मान भी होने लगा था। सौ करोड़ डोज के टीकाकरण का जश्न भी मन गया था।


यूपी,पंजाब,राजस्थान,छत्तीसगढ़ में राजनीतिक सुनामी और तूफानों का दौर अभी थमा नहीं था। महंगाई डायन फिर जोश खरोश से महामंच पर तांडव कर रही थी। लोग मुग्ध होकर तालियां पीट रहे थे। किसी को कोई परेशानी नहीं थी।  सब कुशल मंगल था। कुछ ही मूर्ख लोग चिंतित थे। एक तरह से दुखी रहना उनका स्थायी मानसिक रोग होता है।


ऐसे में मुझे साधुरामजी की चिंता सता रही थी। मेरा अपना भी थोड़ा सा स्वार्थ था इसमें। रोज का वैचारिक विमर्श नहीं हो पाने से मैं बेचैन रहने लगा था। मुझे आशंका हुई कि कहीं उन्हें डेंगू, चिकनगुनिया वगैरा ने तो नहीं घेर लिया है। इसी चिंता के चलते मैं उनके घर पहुंचा। यह देखकर राहत महसूस हुई कि वह स्वस्थ थे और अपनी साइकिल के पहिए में तेल डाल रहे थे। 


क्या बात है साधुराम जी बहुत दिनों से दिखाई नहीं दिए। आपके नहीं आने से मन बेचैन हो रहा था। मुझे तो लग रहा था कि आप के विरह में मैं कहीं अवसाद का शिकार न हो जाऊं। मैंने कहा।

आप क्यों डिप्रेशन में आते हैं, मैं स्वयं ही बहुत निराशा से गुजर रहा हूँ। इतनी बहस करते हैं, विचार करते हैं लेकिन इस देश का कुछ होने वाला नहीं है। ऐसा लगता है कि हम फिर से पाषाणयुग में लौट रहे हैं। साधुरामजी बड़ी उदास आवाज में बोले। 

ऐसा क्यों सोचते हैं आप?  मैंने पूछा। 

देश के हालात देखिए क्या यह किसी कबीलाई संस्कृति से अलग नजर आता है? अपने ही राष्ट्र में छोटे-छोटे समूहों में बंट जाते हैं लोग। बोली, जाति, धर्म, अपने अपने स्वार्थ और विश्वास उन्हें जोड़ते नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी बना देते हैं,शत्रुता की हद तक। लोग मनुष्य जाति की सामूहिकता  और एकरसता की अवधारणा अब वर्तमान समय में महत्व खो रही है। साधुरामजी की निराशा उनके शब्दों में और चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी। मैं समझ गया देश प्रदेश के पिछले घटनाक्रमों से वे आहत थे। 


इतने बड़े और विविधता पूर्ण गणतंत्र में यह छोटा मोटा तो होता रहता है आप क्यों निराश होते हैं। मैंने कहा। 

मुश्किल यही तो है कि विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में ऐसा हो रहा है। यही सब देखना था तो हम गणतंत्र क्यों बने, वही जनपदीय और साम्राज्यवादी व्यवस्था क्या बुरी थी। इसीलिए मेरा मानना है कि विकास का भले ही आर्केस्ट्रा बजाया जा रहा हो, वैचारिक और मानसिक धरातल पर हम अभी भी बीहड़ वन में नगाड़ा पीट रहे हैं। पीछे लौट रहे हैं। साधुरामजी बोले। 


ठीक ही कहा आपने साधुरामजी हम पीछे तो लौट रहे हैं। महंगाई इतनी बढ़ गई है कि साइकिलें निकल आई हैं। गांव में फिर मिट्टी के चूल्हों में लकड़ियां जलाकर खाना पकाया जाने लगा है। विरोध स्वरूप विपक्ष के सांसद विधायक  गैस सिलेंडरों को अपने कंधों, माथों पर उठा कर नारे लगाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। साइकिलों, बैलगाड़ियों से संसद,विधानसभा की यात्रा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। परिणाम कुछ निकलता नहीं। ये जो आज कुर्सी पर हैं विपक्ष में रहते हुए ये भी यही करते थे। अब बेचारी जनता क्या करे? आप ही बताइए? इसे पीछे लौटना ही तो कहा जाएगा। मैंने चुटकी ली।


आपकी सब बातें ठीक हैं मगर साइकिल के प्रयोग को तो बढ़ाना ही चाहिए। महंगे तेल की बर्बादी को रोका जाना चाहिए। मैं तो कहता हूं कि इस क्षेत्र में पीछे जाना भी देश के लिए बेहतर होगा। साधुरामजी ने कहा। 

लेकिन साधुराम जब हम विकास की बात करते हैं तब आधुनिक परिवहन साधन भी तो विकास  का हिस्सा होते हैं। मैंने कहा। 

मैं कब कह रहा हूं कि आधुनिक परिवहन व्यवस्था का इंतजाम ना किया जाए। लोक परिवहन की व्यवस्था करें सरकार। इसके लिए जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति के पास अपनी कार हो हर बेजरूरत व्यक्ति को कार खरीदने को प्रोत्साहित नहीं किया जाए। कंपनियां तो हर व्यक्ति को अपनी कार का सपना दिखाते हुए  मार्केटिंग में लगी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस दुष्चक्र को समझा जाना चाहिए। 


भैया ठीक समझे आप!  यही उदारीकरण और वैश्वीकरण के दुष्परिणाम हैं। सरकार को चाहिए कि अब वह निजी कारों पर, बे जरूरत कार, अर्थव्यवस्था पर भार , जैसी वैधानिक चेतावनी लिखवाने का नियम लाए। आर्थिक विशेषज्ञ व सरकार स्वयं कहती है कि महंगाई पूरे विश्व में बढ़ रही है। हम अब केवल अपने देश को लेकर ही नहीं चल सकते। दुनिया की अर्थव्यवस्था से तालमेल बैठाना पड़ता है। चाहे तेल की कीमतें हो या खाद्यान्न की। सब कुछ ग्लोबल नीतियों के अनुसार चलेगा। ब्रिटिश काल में एक ही कंपनी आई थी अब दुनियाभर की कम्पनियों को इंडिया में आकर काम करने को आमंत्रित किया जा रहा है। इस तरह भी तो हम फिर पीछे लौट रहे हैं। साधुरामजी बोले। 


अब देखिये ना इन दिनों टीवी पर वे ही धारावाहिक व वेब सीरीज अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं जिनमें पुरानी परिवार परंपराओं, रहस्य रोमांच,भूत-प्रेत, जादू-टोना टोटकों जैसे बीते समय के विषय प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैं। सनसनी और अंधविश्वासों से भरी खबरों को बड़े चाव से देश के लोग देख रहे। मैंने उन्ही की बात को आगे बढ़ाते हुए उत्साह में कहा। 


यही सब होता है ऐसे प्रतिगामी समय में। जब विडंबनाओं और नीतियों के विरोध में कुछ नहीं किया जा सकता। सब कुछ ठीक किया जाना स्वप्न जैसा लगता है। राजनीतिक स्वार्थों के कारण सरकार और विपक्ष में अंतर नहीं रह जाता तब निराश नागरिक फेंटेसी का सहारा लेते हैं। अनहोनी में विश्वास करने लगते हैं। समय इसी तरह लौटता है। हम लौटते हैं इतिहास में। इतना कहकर साधुरामजी ने साइकिल उठाई और  गुटखा खरीदने लाल लँगोटी पान भंडार की ओर निकल पड़े।


ब्रजेश कानूनगो

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