Saturday, November 28, 2015

बायपास के पास

व्यंग्य
बायपास के पास
ब्रजेश कानूनगो  

गाँव-बस्ती का विकास होता है तो वह क़स्बे में बदल जाते हैं. फिर कस्बा शहर में बदलने लगता है. शहर भी अपना विकास करता है. ऐसे में मजबूत इरादे हों तो खेतों को कालोनियों में बदल देना भी कठिन नहीं होता. जहां कभी घरोंदों की तरह गोभियाँ और गन्नों की मीनारें नजर आती थीं वहाँ रो हाउस, बंगलों और बहुमंजिला इमारतों की फसल लहलाने लगती है. पगडंडी सड़क में, सड़क मेन रोड में, बाहरी रास्ते रिंग रोड में परिवर्तित होते जाते हैं. धीरे-धीरे शहर का वजन बढ़ने लगता है. बढ़ता वजन बीमारी का लक्षण होता है. शहर के ह्रदय में ब्लोकेज और धमनियों में रुकावट की रिपोर्ट आने लगतीं हैं. ऐसे में शहर की बायपास सर्जरी ही एक मात्र उपचार हो जाता है.

खेतों की भस्म पर खडी गेटेड टाउनशिप में पिछले दिनों मेरे मित्र साधुरामजी को आखिर शिफ्ट होना ही पड़ा. शहर के पुराने मोहल्ले को मजबूरी में उन्होंने बाय कह दिया. अलविदा क्यों कहा इसके पीछे की कहानी फिर कभी. फिलहाल वे अपना ‘जूनी’ से सब कुछ समेट कर ‘बायपास’ पर चले आये हैं. उनका अपने बेटे से अनुरोध बस इतना ही रहा था कि बायपास पर उसी टाउन शिप में मकान लिया जाए जहां मैं रहता हूँ. चूंकि कनाडावासी होकर भी बेटे में अयोध्यावासी संस्कार जीवित थे इसीलिये अब साधुराम जी मेरे बायपास-पड़ोसी हैं. अब मैं अकेला नहीं हूँ  बायपास पर.

रोज शाम को यादों के फ्लायओवर से बतियाते हुए जब हम दोनों टहलने निकलते हैं, पंद्रह किलोमीटर दूर की पुरानी बस्ती जैसे पुल के आसपास ही झिलमिलाने लगती है.

‘अब वहाँ रहना मुश्किल ही था साधुरामजी..! मैंने कहा. ‘यहाँ कितनी ताजी हवा है..स्वाइन फ़्लू आदि का भी कोई खतरा नहीं....’ ऐसी बातों से मन बहलाना हमारी रोज की मजबूरी होती है.
‘उंह! क्या रखा है यहाँ..कुछ भी तो नहीं..कोई मजा नहीं है..’ साधुराम जी का मन अभी रमा नहीं था बायपास पर. रह रह कर पुरानी गलियों की याद सताने लगती थी. बातों में ठीक से रस नहीं ले पाते थे.
‘ऐसा मत सोचिये..यहाँ देखिए यहाँ चिड़िया है..कोयल भी आ जाती है नीम पर..थोड़ी दूर पर खेतों में काम करते किसान भी दिखाई देते हैं..’ मैंने उन्हें खुश करने की गरज से कहा.
‘कितने दिन रहेगा ये सब? पता भी है तुम्हे हमारे पीछे का गाँव भी शहर की सीमा में आ गया है..सब उजड़ जाएगा.. बुलडोजर चलने में कोई ज्यादा देर नहीं है अब...’ साधुराम जी थोड़े झल्ला गए. ‘और ये एशिया का सबसे बड़ा मॉल जो बन रहा है पड़ोस में.. फिर वैसा ही नहीं लगने लगेगा यहाँ जैसा शहर में लगता था..’ वे बोले.
‘अच्छा है न सब सुविधाएँ घर के पास चली आएंगी.’ मैंने कहा. ‘अब देखिए यहाँ न तो चौराहे पर कोई लफंगा बच्चियों को परेशान कर रहा है..न कोई गुंडा हफ्ता वसूली के लिए चाकू दिखा रहा है. न लाउडस्पीकरों का शोर न कोई रैली न जुलूस, कोई जाम नहीं लगता है इधर.’ मैंने बात आगे बढाई.
‘लेकिन यहाँ पोहे-जलेबी नहीं है..दोस्त नहीं हैं.. गांधी चौराहे का धरना प्रदर्शन नहीं है..लायब्रेरी नहीं है..गोष्ठी नहीं है..कविता नहीं है...इनके बगैर मैं अकेला महसूस करता हूँ यहाँ..!’ साधुराम जी बोले.
‘तो आप दिन में वहाँ चले जाया करें.’ मैंने सलाह दी.
‘कैसे चला जाऊँ? सिटी बस नहीं है..कोई सस्ता साधन नहीं है जो मैं शहर जा सकूं.’ साधुराम जी दुखी हो गए.
मैं चुप हो गया. क्या कहता. वो भले ही एक गली थी हमारी जहां संवेदनाओं के ऊपर से कोई  फ्लाई ओवर नहीं गुजरता था. झगड़े थे, भय था, शोर था मगर दोस्त थे..गोष्ठियां थी..बहसें थी..कविताएँ थीं..जीवन था...
फ्लाय ओवर से उतर कर टाउनशिप के गेट से होते हुए हम अन्दर आ गये थे. लिफ्ट का छः नंबर का बटन मैंने दबा दिया.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

  

          

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