Saturday, November 28, 2015

विकास का लट्टू

व्यंग्य
विकास का लट्टू
ब्रजेश कानूनगो  

कुछ वर्षों पहले तक हमारी सरकारें ठोस कदम उठाया करती थीं. लेकिन बकौल शरद जोशी कदम इतने ठोस हुआ करते थे कि वक्त पर उठ ही नहीं पाते थे.

पिछले कई वर्षों से देश से गरीबी हटाने के लिए सरकारें इसी तरह कदम उठाया करतीं थी. इतने सालों बाद भी हर घर में टीवी और हर हाथ में मोबाइल आ जाने के बाद भी गरीबी ज्यों की त्यों विद्यमान है. ऐसा कैसे चल सकता था. कोई नया रास्ता तो खोजा ही जाना था. अब वह हमारे सामने है- विकास का रास्ता. अब विकास पर जोर दिया जा रहा है.     

अब सरकारें पहले की तरह असफल कदम उठाने की बजाय ‘जोर’ देने का प्राचीन उपाय अपना रही है . उनका मानना है कि जब तक किसी बात पर पर्याप्त जोर नहीं दिया जाता तब तक काम होता नहीं. यदि कार्य को संभव करना है तो जोर देना ही होगा. इसे ज़रा ‘लट्टू घुमाने’ जैसे आसान तरीके से समझते हैं. लट्टू घुमाना है तो उस पर एक रस्सी को जोर से लपेटना होगा, तनिक जोर देकर उसको जमीन पर फैंकना होगा, तब कहीं जाकर उसमें गति उत्पन्न होगी और वह घूमने लगेगा. मतलब यह कि लट्टू को गति देने के लिए उस पर जोर देना आवश्यक है. बगैर जोर दिए उसे रफ़्तार नहीं दी जा सकती.

इस वक्त जो सबसे लोकप्रिय लट्टू है वह है-विकास का लट्टू. अब इसमें यह न समझा जाए कि इस लट्टू पर जोर देने से यह होगा कि सारे सांसद और मन्त्रीगण अपने स्टाफ के साथ निकल कर सड़क बनाने लग जायेंगे या तालाब की खुदाई में अपना वातानुकूलित पसीना बहाने लगेंगे. सरकार तो बस विकास के लट्टू को गति देने पर जोर दे सकती है. अब यह बहुत कुछ लट्टू की प्रकृति और बनावट पर भी निर्भर करेगा कि वह किस स्मार्टनेस  से घूमकर गाँवों- शहरों और देश का विकास करता है.

कुछ और चीजें भी होती हैं जो  लट्टू के ठीक से घूमने में प्रभाव डालती है, वह है रस्सी या जाल, जिस पर जोर लगाया जा रहा है तथा वह धरातल जिस पर लट्टू को घुमाया जाना है.  रस्सी का लट्टू पर भली प्रकार लपेटा जाना और उस पर लगाए जाने वाले जोर का आदर्श परिमाण एक कुशल लट्टू बाज अच्छे से जानता है. जैसे गांधी जी जानते थे. उन्होंने स्वदेशी पर जोर दिया, देश ने विदेशी वस्तुओं की होली जला दी थी. सत्याग्रह पर जोर दिया, लोग उनके पीछे पीछे चले आये. बापू के जोर देने में बड़ा जोर हुआ करता था. उन्हें पता था जोर देने का सही तरीका. उनका लट्टू जब धरातल पर घूमता था तो अपना उद्देश्य पूर्ण करके ही थमता था.

गांधीजी के इस देश में हम जोर दे रहे हैं कि लट्टू के मैदान में साम्प्रदायिक सद्भाव और अहिंसा की हरी दूब खिली हो. लेकिन दलितों-कमजोरों और महिलाओं पर अत्याचार की दैनिक घटनाएँ इस मुलायम घास में आग लगा देती हैं.  सहिष्णुता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उजाले पर जोर देने का सोचते हैं तो सही राह दिखाने वाले समाजसेवी और चिन्तक मार दिए जाते हैं. गलत के प्रतिरोध की अभिव्यक्ति पर कलाकारों, साहित्यकारों को प्रबुद्ध-आतंकी होने के पुरस्कार दिए जाने लगते हैं. बहुलतावाद के मुस्कुराते चेहरों को असहिष्णुता की कालिख से पोत दिया जाता है. किसानों-गरीबों के हितों की योजनायें बनाने के पर जोर देते हैं तो उसका हिस्सा उन तक पहुँच ही नहीं पाता. दूसरे मुल्कों को हमारे यहाँ आकर निवेश करने पर जोर देते हैं तो खाद्यान्न, दालें और और प्याज तक हमें आयात करना पड़ जाता है.

तो सवाल यह पैदा होता है कि विकास के लट्टू पर जो जोर हम दे रहे हैं उसकी बहुत सारी ऊर्जा कहाँ लुप्त हो जाती है. जिस रफ़्तार से लट्टू घूमना चाहिए क्यों नहीं घूम पाता. ऐसी कौनसी बाधाएं है जिसका घर्षण इस महत्वपूर्ण ऊर्जा का क्षरण या ह्रास कर रहा है. वह कौनसी बात है जो विकास और जनहित के लट्टू को भली प्रकार घूमने से रोक रही है. क्या रस्सी गलत है या कि लट्टू की घुरी ही वक्र है जिस पर उसे घूमना है या हमारा आँगन ही दोषपूर्ण हो गया है.    जो भी हो हमें इस बात पर जोर देना होगा कि जैसे भी हो विकास का लट्टू अब पूरी गति के साथ निर्बाध घूम सके.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
               
     


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