व्यंग्य
उक्तियों की पीठ पर सवार युक्तियाँ
ब्रजेश कानूनगो
कभी कभी ऐसा वक्त भी आता है जब परम्परागत उक्तियाँ फेल हो जाती हैं और
नई युक्तियाँ पुरानी उक्तियों पर भारी पड़ने लगती हैं। कहा जाता रहा है कि आग
लगने से पहले कुआँ खोद लिया जाना चाहिए। लेकिन यह वह दौर है जब बस्ती में आग लग
जाए तब भी तुरन्त जमीन खोद कर पानी निकाला जा सकता है। यह वही महान देश है जहां
शय्यासीन भीष्म पितामह की प्यास शांत करने के लिए अर्जुन का एक तीर काफी होता है।
बुजुर्ग दादाजी अपने पोते को पाजामें में हवा भरकर बावड़ी में धकेल दिया करते थे।
पोता खुद हाथ पैर मारते हुए तैरना सीख ही लेता था।
कभी दो नावों में सवारी करना ठीक नहीं माना जाता था। इससे दुर्घटना
होने की शत प्रतिशत संभावना बनी रहती है। मगर अब शायद ऐसा नहीं है। एक पाँव एक नाव
में और दूसरा दूसरी नाव में रखकर नदी पार करना अब कौशल का काम है. एडवेंचर का
रोमांच होता है इसमें. इस काम के लिए आदमी में जोखिम उठाने की क्षमता और इच्छा शक्ति
भी होना जरूरी है.
साधुरामजी बड़े साहसी व्यक्ति हैं और जोखिम लेते रहते हैं. कविता और
व्यंग्य लेखन जैसी दो विधाओं पर सवार होकर साहित्य की नदी को पार करने की अभिलाषा
में एडवेंचर स्पोर्ट्स करते रहते हैं. इस
अभियान में होता यह है कि कविता की कमजोरियां यह कहकर नजर अंदाज हो जाती हैं कि
भाई एक व्यंग्यकार और क्या लिखेगा, ठीक ठाक लिखा है। दूसरी
तरफ कमतर व्यंग्य भी धक जाता है कि कवि महोदय बेचारे सह्रदय व्यक्ति हैं, कितना कुछ कटाक्ष कर पाएंगे। अपवाद स्वरूप कभी कभार नुकसान भी हो जाता
है। खुदा न खास्ता कभी कुछ बेहतर रच दिया तो कवि बिरादरी उनकी
श्रेष्ठ कविता को भी नजर अंदाज कर देती है। दूसरी तरफ उनका लिखा शानदार मारक
व्यंग्य लेख भी ‘जमात-ए-व्यंग्य’ द्वारा नोटिस में ही नहीं लिया
जाता। चूंकि इतने वृहद साहित्य समाज में ऐसी छोटी मोटी बातें तो होती ही रहती हैं
इसलिए उनकी सवारी सदैव जारी रहती है.
सरकारी फैसलों को लेकर भी कुछ लोग दो नावों की सवारी करते दिखाई देते
हैं। निर्णय के साथ भी दिखाई देते हैं और लागू करने के तरीके के विरोध में मंत्रीजी
का पुतला भी जला देते हैं. अजीब स्थिति बनती रहती है। भ्रम की ऐसी धुंध में एक
दिशा में सोचते दो समूहों के साथ जुड़े होने पर मतिभ्रम भी हो जाता है. लगता है
दोनों पक्ष विरोधी हैं. दोनों समझते हैं कि हम दूसरे वाले के गुट में हैं। इसीलिये
एक साथ होते हुए भी दुर्घटनाएं होती रहती है। इसके बावजूद सबकी ख्वाहिश यही होती
है कि किसी तरह नाव और यात्री सुरक्षित किनारे लग जाएं।
सच तो यह है कि यह बदलाव का महत्वपूर्ण समय है। देश समाज से लेकर
नीतियों और व्यवस्थाओं तक में आमूल चूल परिवर्तन हर घड़ी हो रहे हैं। यों कहें सूरज
की हर किरण बदलाव की नई रोशनी लेकर आ रही है। ऐसे में आग लगने पर कुआँ खोदना और दो
नावों की सवारी करने जैसी उक्तियाँ अप्रासंगिक हो गईं हैं. युक्तियाँ अब उक्तियों
की पीठ पर सवार हैं.
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-18
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