मोटाभाई
‘काला’ की याद में
ब्रजेश कानूनगो
सुबह-सुबह अखबार में
जब खबर पढी कि किसी सरकारी विभाग के एक मामूली बाबू के यहाँ छापा पडा और उसके यहाँ
से मोटा माल मिला. सोचने लगा कि शब्दों का प्रयोग भी देखिए कितना रोचक होता है.
यही ‘मोटा’ शब्द किसी व्यक्ति के साथ लगता है तो ‘मोटा आदमी’ कहलाकर उसके
हष्ट-पुष्ट होने की घोषणा करता है और जब ‘भाई’ के साथ लग जाता है तो ‘मोटा भाई’
बनकर विश्वास का आत्मीय और अग्रज हाथ हमारे कन्धों पर रख देता है. जहां यह सुखद सच
है कि ‘मोटा अनाज’ खाने से अच्छा स्वास्थ्य बनाया जा सकता है, वहीं एक कटु सत्य यह
भी है कि ‘मोटा कपड़ा’ पहनना सूत मिलों के बंद हो जाने से अब आम लोगों के बस में
नहीं रहा.
इसी ‘मोटा चिंतन’ के तारतम्य
में मुझे मोटाभाई काला की याद आ गई। आज के समय में जब अपने आप का होना याद नही
रहता तब अतीत का कोई व्यक्ति याद आ जाए तो समझ लीजिए कि हमारे शरीर के ऊपरी माले
के भीतर की मशीनरी ठीक-ठाक काम कर रही है।
मस्तिष्क में बरसों के
तमाम संकेत डॉउन लोड होने के बावजूद आज ‘मोटाभाई काला’ का सिग्नल बिप-बिप करने लगा
है। मोटाभाई काला न तो मोटे थे और नही उनके शरीर और व्यक्तित्व से कृष्णता का कोई
विकिरण प्रस्फुटित होता था। उनके बाप-दादा गधे पर लाद कर राख के बदले पीली मिट्टी
बेचने का धन्दा करते थे, बाद में समय ने ऐसी करवट बदली कि उनके पिता सीमेंट
के व्यापारी हो गए। उन दिनों कंट्रोल पर बिकने वाले सीमेंट पर तो कंट्रोल था लेकिन
भ्रष्टाचार पर आज की तरह ही कोई ख़ास रोक-टोक नही थी। गाँधी बाबा की तस्वीर सीमेंट
की दुकान पर ही नही सभी प्रतिष्ठानों की दीवारों की शोभा बढाती रहती थीं।
तस्वीरों का यह अच्छा रहता है कि वह कुछ
बोल नहीं सकती. इसलिए मोटाभाई को ’मोटा माल’ बनाते देख कर भी बापू तस्वीर में बस
मुस्कुराने के लिए विवश होते थे. सेठजी का बेटा किसी तरह मेट्रिक पास करने के बाद
एक दिन पिता के जूते में पैर डालने लगा तो पिता ने समझ लिया कि अब बेटे के मोटा
माल बनाने के दिन आ गए हैं. बेटे को लाइन में डालने की चिंता हर पिता को होती है। वह
यहाँ भी थी।
उन दिनों रेल्वे तथा
जंगल से चुराई गई लकडियों से बना कोयला अपने ताप से लोगों के पेट की आग को शांत
किया करता था। तभी ‘नलीदार कोयले’ के आविष्कार ने मोटाभाई के पिता की
चिंता का निवारण कर दिया। मोटाभाई के यहाँ भी कोयले की सस्ती चूरी,
मिट्टी, लकडी का बुरादा आदि की मदद से यह
कृत्रिम कोयला बनने लगा। मोटाभाई कोयलेवाले के नाम से मशहूर हो गए। मोटाभाई का
कोयले का धन्दा कुछ वर्षों तक खूब अच्छा चला लेकिन जनता पार्टी की तरह नलीदार
कोयले का अस्तित्व भी बस स्मृतियों का हिस्सा रह गया। यह जरूर हुआ कि मोटाभाई के
नाम के साथ ‘काला’ हमेशा के लिए चस्पा
हो गया।
बाद में तो इस मोटे
माल परम्परा का बहुत विकास होता गया. संसद के बाहर और भीतर ‘कोयला’ नेताओं की
रचनात्मक समझ को प्रबिम्बित करने का माध्यम भी बना है। कोयले की दलाली में मोटामाल
मिलने की बातें भी खूब कही गईं. यहाँ तक कि देश के एक पूर्व ‘मोटा भाई’ पर भी आरोप
लगा कि उन्होंने अपने साथियों को ‘मोटा माल’ बनाने में खूब मदद की थी.
हालांकि इन दिनों
बहुत उत्साह से लोगों से ‘हाथ धुलवाने’ के प्रयास हो रहे हैं, जब तब किन्ही हाथों
से गुलाबी रंग जरूर झरने लगता है मगर यह विकास का समय है. कोयला भी केवल कोयला
नहीं रहा, कोयला बहुरूपिया हो गया है. वह हीरा हो सकता है, तोप या हेलिकॉप्टर भी
हो सकता है. दलाली भी अब उन्नत होकर ‘डील’ कही जाने लगी है. डील का डीलडौल बहुत
बड़ा होता है. बड़ी डील में हुए ‘काले हाथों’ को पकड़ना इतना आसान नहीं होता. ‘मोटा
माल’ यहाँ भी भूमिका बखूबी निभा ही देता
है.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल
रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इन्दौर-18
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