Tuesday, May 24, 2016

लेखक का दुःख

व्यंग्य
लेखक का दुःख
ब्रजेश कानूनगो  

नए सुखों की तलाश में भी अक्सर आदमी दुखी रहता है. वह जानकर भी अनजान बना रहता है कि सुख के मौसम में भी दुखों के बादल फट जाते हैं. दुःख ऐसा दरिया है जिसे पार करके ही सुख के द्वीप तक पहुंचा जा सकता है. दुखी हो जाने के कई कारण हो सकते हैं. एक ढूंढो हजार मिल जाते हैं. दूसरों को सुखी देखकर भी हम दुखी हो सकते हैं. आनंद सागर में गोते लगाते हुए भी आँसुओं का खार हमारा जायका बदल देता है. मित्र की कमीज की चमक भी हमारे भीतर ईर्ष्या का अन्धेरा भर सकती है. अक्सर यह लगता है कि ये जीवन दुखों का ऐसा दलदल है, जिसमें से बाहर निकलना दुष्कर होगा.  परन्तु यह भी उतना ही सही है कि दुख के कीचड में ही सुख के कमल खिलने की संभावनाएं निहित होती हैं.

साधुरामजी के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा है. स्कूल के दिनों में जब माट्साब उन्हें ‘यदि मैं प्रधानमन्त्री होता ’ विषय पर निबंध लिखने को कहते वे दुखी हो जाते थे. उनकी ख्वाहिश थी कि एक लेखक बन कर नाम कमाएं.  दुनिया भर में उन्हें जाना जाए. इसी आकांक्षा के चलते शुरुआत में अखबारों में सम्पादक के नाम खूब पत्र लिखे. कलम भांजते हुए साहित्य पृष्ठों पर भी जगह पाने लगे. मगर जैसा कि मैंने कहा अपनी खुशी में भी व्यक्ति दुःख के कारण खोज ही लेता है. बहुत सारा लिखने छपने के बावजूद वे इस बात पर दुखी थे कि कोई साहित्यिक पत्रिका उन्हें घास नहीं डालती. अब उन्हें कौन बताए कि भैया साहित्य के खेत में बागड़ की घास भी बहुत दुर्लभ होती है. अपने खूंटे से बंधे सदस्यों को ही अक्सर कम नसीब होती है तो बाहर वालों को भला कैसे खिलायें.

खैर, जहाँ चाह है वहीं राह भी होती है. न छापें पत्रिकाएँ उनकी महान और शास्वत रचनाएं,  वे भी कोई कम जुखारू व्यक्ति नहीं थे. पीएफ का पैसा निकाला और अपनी खुद की अनियतकालिक  साहित्य पत्रिका ‘जंगली फूल’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. मनचाहा जोरदार सम्पादकीय लिखते. हर विधा में न सिर्फ लिखते बल्कि नए प्रयोग भी करते मसलन लघुकथा से आगे उन्होंने ‘लघुतम कथा’ और व्यंग्य विधा के आगे ‘व्यंग्य विचार’ विधा को स्थापित करने का अभियान अपनी पत्रिका के जरिये आंदोलित किया. अब वे नहीं बल्कि कई नए-पुराने लेखक उनकी पत्रिका और उनकी और दौड़ लगा रहे थे. मगर इस पड़ाव पर भी उनका दुःख वैसा ही रहा. तकलीफ इस बात की थी कि उनके इस महत्वपूर्ण अवदान का उचित मूल्यांकन साहित्य जगत में हो नहीं पा रहा था. कुरते की जेब सूनी पडी थी. किसी सम्मान-पदक की सुई आलोचक की असावधानी की वजह से उनके सीने को घायल नहीं कर सकी थी. लेकिन यात्रा पर निकला हर कोलंबस आखिर में नईदुनिया की खोज कर ही लेता है.

साधुरामजी के ससुर कभी शहर के एक पुराने स्कूल के सामने स्टेशनरी की दूकान चलाया करते थे. साहित्य से उनका गहरा परिचय तो नहीं था पर छात्रों के दुःख दूर करने के लिए कुंजियाँ बेचा करते थे. इसी कारण इतना जरूर समझने लगे थे कि  प्रेमचंद, निराला, सूरदास, तुलसीदास, महादेवी आदि वे महान लोग थे जो प्रतिदिन साहित्य किया करते थे. साधुरामजी ने अपना दुःख जब अपने दुनियादार ससुरजी के सामने रखा तो उन्होंने तुरंत उपाय खोज लिया.  
ससुरजी ने आनन-फानन साधुरामजी के ससुराल के आँगन में कुछ बीज दाल दिए तो नगर में  ‘विलक्षण प्रतिभा सम्मान’ नामक एक संस्था का अंकुरण हो उठा. संस्था ने क्षेत्र के युवा रचनाकारों को प्रोत्साहित करने का बीडा उठाया और वर्ष में प्रकाशित रचनाकार को पहली कृति के लिए राज्य स्तरीय प्रतिभा सम्मान और साहित्य में अद्वितीय योगदान के लिए साहित्यकार को ‘राष्ट्रीय प्रतिभा अलंकरण’ से सम्मानित करने की योजना घोषित कर दी गयी. यह कहना उतना जरूरी नहीं होगा कि कुछ दिनों बाद वर्ष का ‘राष्ट्रीय प्रतिभा अलंकरण’ का पदक एक भव्य कार्यक्रम में साधुरामजी के कुरते पर लगाए जाने की खबर और तस्वीर अगले दिन के अखबारों की सुर्खियाँ बनीं. ये अलग बात है कि बॉक्स में छपी खबर के कोने में बहुत बारीक अक्षरों में लिखा हुआ ’विज्ञापन’ शब्द ‘शर्तें लागू’ की तरह दिखाई नहीं दे रहा था.

इस प्रतिष्ठा प्रसंग के बाद साधुरामजी की साहित्यिक हैसियत निश्चित रूप से थोड़ी बढ़ गयी थी. स्थानीय स्कूलों आदि में तुलसी जयंती या हिन्दी दिवस पर उन्हें मुख्य अतिथी अथवा भाषण प्रतियोगिताओं के निर्णायक के तौर पर आमंत्रित भी किया जाने लगा.

मुझे लगा कि अब शायद साधुरामजी दुखी नहीं होंगे. औकात के हिसाब से उनका उचित मूल्यांकन होने लगा था. लेकिन अफसोस की बात है, मेरा ऐसा सोचना गलत था. कब कोई  इस दुनिया में कभी संतुष्ट हुआ है जो साधुरामजी होते. अभी कल घर आये तो कहने लगे- ‘यार! ये अखबार वाले दूसरों के लेख छापने के बाद अंत में कोष्टक में क्यों लिखते हैं कि ’लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं’.
मैं समझ गया. साधुरामजी इसलिए दुखी हैं कि ‘जाने-माने’ जैसा विशेषण उन्हें अभी भी नसीब नहीं हो रहा है. कहीं कोई जुगाड़ हो तो बताइयेगा भाई !

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
  

        

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