व्यंग्य
कविता में अलंकार
ब्रजेश कानूनगो
सुबह जब मैं और साधुरामजी सैर को निकले तो उन्हें रात को लिखी अपनी नई
कविता सुनाई. कविता को उन्होंने सराहा भी मगर थोड़ा निराश होते हुए गोकुलधाम
सोसायटी के एकमेव सेक्रेटरी आत्माराम तुकाराम भिड़े की तरह अतीत गमन करते हुए
बोले-‘हमारे जमाने में कविताएँ कभी इतनी रूखी-सूखी नहीं हुआ करती थीं, उनमें रस
होता, पढ़ते-सुनते समय मन आनंद से सराबोर हो जाता था. तुम्हारी कविताएँ दुखीं कर
देती हैं, वो आनंद नहीं रहा अब की कविताओं में.’
‘मगर अब कविताएँ यथार्थवादी होती हैं साधुरामजी, कला की बजाए इनमें
कथ्य महत्वपूर्ण होता है,’ मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की.
‘जो भी हो! मैं कविता में रस, छंद, अलंकार आदि की उपस्थिति जरूरी
मानता हूँ, इनके बगैर कविता में सौन्दर्य नहीं.’ वे संतुष्ट नहीं हुए. मेरी इतनी
कूवत भी नहीं थी जो इस सार्वकालिक और अनंत साहित्यिक बहस को मोर्निंगवाक की छोटी
सी अवधि में किसी अंजाम तक पहुंचा सकता. सो मैंने अपनी दिक्कतें बताना शुरू कर
दीं, बोला-‘ साधुरामजी, मैं तो बचपन से ही इस मामले में थोड़ा कमजोर रहा हूँ.
गुरूजी अलंकारों को याद कराने के लिए दोहे, सोरठे, छंद आदि रटवाया करते थे मगर मैं
हर बार अनुप्रास की जगह उपमा और उपमा की जगह यमक अथवा अतिशयोक्ति अलंकार की जगह
भ्रांतिमान अलंकार का उदाहरण उत्तर पुस्तिका में लिख आता था. मुझे बहुत क्लिष्ट
लगता था अलंकारों को समझना.’
इस पर साधुरामजी ने एक जोरदार ठहाका लगाया और बोले-‘ तुम तो बस निरे
पढ़ाकू ही रहे, अरे थोड़ा दुनिया भी देख लिया करो, लोक में जाए बगैर कहीं समाधान हुआ
है कभी !’
‘मैं कुछ समझा नहीं साधुरामजी?’ मैंने कहा तो वे बताने लगे- ‘दिक्कत
तो मुझे भी आती थी मित्र, लेकिन एक सिने-प्रेमी गुरूजी ने राह दिखाकर सब आसान कर
दिया था मेरे लिए. वे अक्सर लोकरुचि काव्य याने फ़िल्मी गीतों से अलंकार आदि समझाया
करते थे.’
‘मसलन?’ मैंने जिज्ञासा जताई.
‘जैसे अनुप्रास अलंकार समझाने के लिए क्लिष्ट उदाहरण- चारु चन्द्र की
चंचल किरणें.... की बजाए वे –‘चन्दन –सा बदन चंचल चितवन धीरे से तेरा ये मुस्काना’
गीत का उल्लेख करते, जहां ‘च’ अक्षर की बार-बार आवृत्ति होना ही ‘अनुप्रास’ अलंकार
होता है.’
उपमा अलंकार में किसी एक वस्तु को किसी दूसरी वस्तु-सा बताया जाता है.
जैसे ‘तेरी झील सी गहरी आँखों में मैंने रात कोई सपना देखा.’ या ‘चांदी जैसा रंग
है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल.’
‘यमक’ अलंकार पढ़ाते हुए ‘कनक कनक ते सौ गुनी’ अथवा ‘रहिमन पानी
राखिये, बिन पानी सब सून’ जैसे असामयिक हो गए दोहों की बजाए ‘जान चली जाये, जिया
नहीं जाए, जिया जाए तो फिर जिया नहीं जाए’ या फिर ‘तुमने किसी की जान को जाते हुए
देखा है? वो देखो मुझसे रूठकर मेरी जान जा रही है.’ कितनी जल्दी समझ में आ जाता है
कि जब एक ही शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होता है तो वहां काव्य का ‘यमक’
अलंकार होता है.’
मैं हतप्रभ साधुरामजी का व्याख्यान सुन रहा था. वे कह रहे थे-‘ सारी
बीच नारी है कि नारी बीच सारी है’ अथवा ‘ नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाड़िम
का समझ कर भ्रान्ति से,’ जैसे उदाहरणों की बजाए –‘तुझे सूरज कहूं या चन्दा, तुझे
दीप कहूं या तारा’ गीत का उदाहरण सहज ही स्पष्ट कर देता है कि जहां भ्रमपूर्ण
स्थिति पैदा हो रही हो वहां ‘भ्रांतिमान’ अलंकार होता है. ‘अतिशयोक्ति’ अलंकारों
से तो लोकरुचि काव्य भरा पडा है. ‘हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग, लंका सारी जली
गयी, गये निशाचर भाग.’ जैसे समयातीत उदाहरण की बजाए हमारे गुरूजी पढ़ाते थे- ‘बदन
पे सितारे लपेटे हुए, ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो?’ या फिर ‘ पानी में जले मोरा
गोरा बदन’ हम तुरंत समझ जाते थे कि जहां असंभव बात को या बात को बढ़ा चढ़ा कर कहा जा
रहा हो, वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है.’
‘तभी आज तक अलंकारों के प्रयोग के बारे में आपकी इतनी गहरी समझ है
साधुरामजी!’ मेरा मन उनके और उनके गुरूजी के प्रति आदर भाव से लबालब हुए जा रहा
था.
‘लेकिन अब यह भी संभव नहीं रहा साधुरामजी ! फ़िल्मी गीतों में भी रस,
छंद, अलंकार नहीं दिखाई देते हैं तो हमारे आज के शिक्षकों को अब कहाँ यह सुविधा
उपलब्ध रह गयी है.’
‘यह बात तो है मित्र !
वहां तो
अब शब्द भी दिखाई नहीं देते.’ उनकी आवाज में अपने जमाने का दुःख साफ़ सुनाई दे रहा
था.
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018
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