Friday, May 1, 2020

महाराज की बीमारी

व्यंग्यकथा
महाराज की बीमारी

किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि किसी शूरवीर की बजाए कवि के निधन से सम्राट इतने दुखी हो उठेंगे।
राज्य कला ,संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से बहुत समृद्ध था। अनेक कलाकार और साहित्यकार राज्य की शोभा बढ़ाते थे।
राजधानी में ही अनेक गुणी और प्रतिभावान विभूतियों के विद्यमान होने के उपरांत भी सबकी उपेक्षा करते हुए उन्हें प्राथमिकता देकर महाराज ने राजकवि का दर्जा दिया था। इस सम्मान के पीछे कुछ वही कारण थे जो प्रायः सभी कालखण्डों में इसी प्रकार रहते आये हैं। राजकवि का गौरव प्राप्त करने के लिए जो अहर्तताएँ होनी चाहिये वे उनमें मौजूद थीं और महाराज ने उन्हें बखूबी पहचान भी लिया था।
लेकिन पिछले माह जब राजकवि एक संगीत सभा के बाद रात्रि को नियमित सुरापान पश्चात विश्राम हेतु शयनकक्ष को गए तो प्रातःकाल वहां से मात्र कवि का देह फार्मेट तो उपलब्ध हुआ पर कविता नदारत थी। ब्रह्ममुहूर्त में उनके भीतर की काव्यात्मा पदोन्नत होकर  स्वर्गलोक की इंद्रसभा में अपना आसान ग्रहण करने हेतु कूच कर चुकी थी।

तब से ही महाराज की सेहत गिरती जा रही थी। पिछले कुछ दिनों से बहुत उदास और निढाल भी दिखाई देने लगे थे। मंत्रीगण, अधिकारी और परिजन सब चिंतित थे कि आखिर उन्हें हुआ क्या हैयदि महाराज की हालत इसी तरह  दिनों दिन गिरती रही तो राजकाज का क्या होगा?
चिकित्सा विज्ञान में प्रावीण्यता अर्जित किए और निपुण राजवैद्य बीमारी का सही कारण अपने सभी परीक्षणों के बावजूद पता नहीं लगा पा रहे थे। पड़ोसी राज्यों के विशेषज्ञों को भी आमंत्रित किया गया। मगर सफलता हाथ न लगी। दिनों दिन महाराज का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। पहले सी आभा और तेज विलुप्त था।

तभी महामंत्री को स्मरण आया कि महाराज की सेहत के पीछे शारीरिक की बजाए कोई मानसिक समस्या तो नहीं है? उन्होंने तुरंत ही राज्य के विचारक और दार्शनिक आचार्य विद्यादमन का परामर्श लेना उचित समझा। आचार्य अपनी धारणाओं के आधार पर कठिनाई में पड़े व्यक्ति की मनोचिकत्सा भी किया करते थे। इसे आज की भाषा में हम काउंसलिंग भी कह सकते हैं।
आचार्य विद्यादमन ने सबसे पहले यह जानने की कोशिश की कि महाराज को सबसे अच्छा क्या लगता था। जो उन्हें पसंद हो वह उन्हें दिया जाए। यदि कोई मिष्ठान्न, विशिष्ठ सुरा, कोई प्रिय व्यक्ति, स्त्री,गीत,संगीत जो भी उनके मन को प्रसन्न कर सकता हो वह सब प्रस्तुत किया जाए। दुर्भाग्य रहा कि यह सब करने के बावजूद परिणाम शून्य ही रहा।  

आचार्य विद्यादमन चिंता में पड गए। उन्होंने अपने चिंतन को और विस्तारित और कारगर बनाने की दृष्टि से महाराज के विशिष्ठ महाज्ञानी नवरत्नों से विमर्श के लिए एक बैठक आमंत्रित की। इस बैठक का परिणाम बड़ा सकारात्मक रहा । आचार्य को महाराज के रोग के कारणों का पता चल गया। दरअसल बैठक में राज्य के नौ रत्नों में से आठ रत्न ही उपस्थित हुए थे। राजकवि की अनुपस्थिति ही वह बात थी जिससे आचार्य को समस्या के संकेत मिल गए।

आचार्य ने दिवगंत राज कवि का समस्त साहित्य अपने अध्ययन कक्ष में बुलवाया और गहन अध्ययन किया। यह देखकर वे हतप्रभ रह गये की कवि महोदय की सारी किताबें महाराज की प्रशंसा में लिखी गई रचनाओं से भरी हुईं थी। रचनाएं क्या थीं, मात्र छद्म शौर्य गाथाएँ, विरुदावलियाँ, महाराज के सम्मान में आरतियों आदि के अलावा और कुछ भी नहीं था उनमें।  हर रचना में महाराज की प्रशंसा महाभारत के चीरहरण प्रसंग में द्रोपदी के वस्त्र की तरह बढ़ती जाती थीं जो हर क्षण नई उपमाओं और अलंकारिक शब्दों से विस्तारित और काल्पनिक रंगों से इंद्रधनुषी हो जाती थीं। आचार्य पढ़ते हुए कितना ही अधीर होते जाते थे महाराज की असली सूरत मूरत नजर आना राजकवि की रचनाओं में मुश्किल हो रहा था।

किन्तु आचार्य विद्यादमन को इस बात का बहुत संतोष भी था कि राज्य के कल्याण की दृष्टि से उन्होंने अपने चिंतन से महाराज की अस्वस्थता का रहस्य आखिर खोज निकाला था। बल्कि यों कहें कि राजन के रोग का निवारण करने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली थी।
आचार्यश्री  ने तुरंत महामंत्री को सुझाव दिया की वे रिक्त हुए राजकवि के पद को तुरंत भर दें और उस पर किसी योग्य चाटुकारिता गुणों से संपन्न ओजस्वी कवि को नियुक्त कर दें। महामंत्री ने तुरंत ही एक कार्यकारी राजकवि की नियुक्ति हेतु राज्य में आदेश प्रसारित कर दिया।

देखते ही देखते अनेक नवोदित लेखक, कवि अपनी सेवाएं देने को तत्पर हो गए। पद एक था मगर आवेदकों  की संख्या राजमहल की मुंडेर के कंगूरों पर जगमगाते दीपकों की तरह सैंकड़ों थी। हर कवि राजमहल पर छाये अँधेरे को अपनी रोशनी से जगमगा देना चाहता था। एक युवा जो राजमहल और महाराज की स्तुति में वर्षों से अपनी कविताओं और कथाओं से परोक्ष योगदान दे रहा था लेकिन साहित्य समाज में बहुत उपेक्षित सा महसूस करता रहा था उसके दिन फिर गए। प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कृतियों ने उसे नया राजकवि हो जाने का गौरव प्रदान करवा दिया।
महाराज रोगी जरूर थे किन्तु वे थे तो सम्राट। उन्हें प्रशंसा पसंद थी। इतिहास गवाह है यदि व्यक्ति सम्राट है तो प्रशंसा उसके तन में जोश और मन में गौरव भर देती है। एक तरह से प्रशंसा राजा के लिए शक्तिवर्धक,रक्तशोधक और जोशवर्धक टॉनिक की तरह काम करती है।
कुछ ही दिनों में नए राजकवि की प्रतिभा का असर दिखाई देने लगा। धीरे धीरे महाराज पूर्ण स्वस्थ हो गए। चेहरा फिर दमकने लगा, राजकाज सुचारू रूप से चलने लगा। चहुँओर राजकवि की ओजस्वी और अलंकारिक कविताओं की गूँज से महाराज की कीर्ति पताका पुनः फहराने लगी। जिस तरह कल्याणकारी राज्य के उस कवि का कल्याण हुआ, उसके दिन फिरे...सबके फिरें....इतिश्री राजकथा चतुर्थ अध्याय समाप्त।

ब्रजेश कानूनगो

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