महाराज श्रंखला 1 से 3
1
महाराज की बीमारी
किसी ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि किसी शूरवीर की बजाए कवि के निधन से सम्राट इतने दुखी हो उठेंगे।
राज्य कला ,संस्कृति और साहित्य की
दृष्टि से बहुत समृद्ध था। अनेक कलाकार और साहित्यकार राज्य की शोभा बढ़ाते थे।
राजधानी में
ही अनेक गुणी और प्रतिभावान विभूतियों के विद्यमान होने के उपरांत भी सबकी उपेक्षा
करते हुए उन्हें प्राथमिकता देकर महाराज ने राजकवि का दर्जा दिया था। इस सम्मान के
पीछे कुछ वही कारण थे जो प्रायः सभी कालखण्डों में इसी प्रकार रहते आये हैं।
राजकवि का गौरव प्राप्त करने के लिए जो अहर्तताएँ होनी चाहिये वे उनमें मौजूद थीं
और महाराज ने उन्हें बखूबी पहचान भी लिया था।
लेकिन पिछले
माह जब राजकवि एक संगीत सभा के बाद रात्रि को नियमित सुरापान पश्चात विश्राम हेतु
शयनकक्ष को गए तो प्रातःकाल वहां से मात्र कवि का देह फार्मेट तो उपलब्ध हुआ पर
कविता नदारत थी। ब्रह्ममुहूर्त में उनके भीतर की काव्यात्मा पदोन्नत होकर स्वर्गलोक की
इंद्रसभा में अपना आसान ग्रहण करने हेतु कूच कर चुकी थी।
तब से ही
महाराज की सेहत गिरती जा रही थी। पिछले कुछ दिनों से बहुत उदास और निढाल भी दिखाई देने
लगे थे। मंत्रीगण, अधिकारी और परिजन सब चिंतित थे कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? यदि महाराज की हालत इसी तरह दिनों दिन गिरती
रही तो राजकाज का क्या होगा?
चिकित्सा
विज्ञान में प्रावीण्यता अर्जित किए और निपुण राजवैद्य बीमारी का सही कारण अपने
सभी परीक्षणों के बावजूद पता नहीं लगा पा रहे थे। पड़ोसी राज्यों के विशेषज्ञों को
भी आमंत्रित किया गया। मगर सफलता हाथ न लगी। दिनों दिन महाराज का चेहरा पीला पड़ता
जा रहा था। पहले सी आभा और तेज विलुप्त था।
तभी महामंत्री
को स्मरण आया कि महाराज की सेहत के पीछे शारीरिक की बजाए कोई मानसिक समस्या तो
नहीं है? उन्होंने तुरंत ही राज्य के विचारक और दार्शनिक आचार्य विद्यादमन का
परामर्श लेना उचित समझा। आचार्य अपनी धारणाओं के आधार पर कठिनाई में पड़े व्यक्ति
की मनोचिकत्सा भी किया करते थे। इसे आज की भाषा में हम काउंसलिंग भी कह सकते हैं।
आचार्य
विद्यादमन ने सबसे पहले यह जानने की कोशिश की कि महाराज को सबसे अच्छा क्या लगता था। जो उन्हें
पसंद हो वह उन्हें दिया जाए। यदि कोई मिष्ठान्न, विशिष्ठ
सुरा, कोई प्रिय व्यक्ति, स्त्री,गीत,संगीत जो भी उनके मन को प्रसन्न कर सकता हो वह
सब प्रस्तुत किया जाए। दुर्भाग्य रहा कि यह सब करने के बावजूद परिणाम शून्य ही
रहा।
आचार्य
विद्यादमन चिंता में पड गए। उन्होंने अपने चिंतन को और विस्तारित और कारगर बनाने
की दृष्टि से महाराज के विशिष्ठ महाज्ञानी नवरत्नों से विमर्श के लिए एक बैठक
आमंत्रित की। इस बैठक का परिणाम बड़ा सकारात्मक रहा । आचार्य को महाराज के रोग के
कारणों का पता चल गया। दरअसल बैठक में राज्य के नौ रत्नों में से आठ रत्न ही
उपस्थित हुए थे। राजकवि की अनुपस्थिति ही वह बात थी जिससे आचार्य को समस्या के
संकेत मिल गए।
आचार्य ने
दिवगंत राज कवि का समस्त साहित्य अपने अध्ययन कक्ष में बुलवाया और गहन अध्ययन
किया। यह देखकर वे हतप्रभ रह गये की कवि महोदय की सारी किताबें महाराज की प्रशंसा
में लिखी गई रचनाओं से भरी हुईं थी। रचनाएं क्या थीं, मात्र छद्म शौर्य गाथाएँ,
विरुदावलियाँ, महाराज के सम्मान में आरतियों
आदि के अलावा और कुछ भी नहीं था उनमें। हर रचना में
महाराज की प्रशंसा महाभारत के चीरहरण प्रसंग में द्रोपदी के वस्त्र की तरह बढ़ती
जाती थीं जो हर क्षण नई उपमाओं और अलंकारिक शब्दों से विस्तारित और काल्पनिक रंगों
से इंद्रधनुषी हो जाती थीं। आचार्य पढ़ते हुए कितना ही अधीर होते जाते थे महाराज की
असली सूरत मूरत नजर आना राजकवि की रचनाओं में मुश्किल हो रहा था।
किन्तु आचार्य
विद्यादमन को इस बात का बहुत संतोष भी था कि राज्य के कल्याण की दृष्टि से
उन्होंने अपने चिंतन से महाराज की अस्वस्थता का रहस्य आखिर खोज निकाला था। बल्कि
यों कहें कि राजन के रोग का निवारण करने में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली थी।
आचार्यश्री ने तुरंत महामंत्री
को सुझाव दिया की वे रिक्त हुए राजकवि के पद को तुरंत भर दें और उस पर किसी योग्य
चाटुकारिता गुणों से संपन्न ओजस्वी कवि को नियुक्त कर दें। महामंत्री ने तुरंत ही
एक कार्यकारी राजकवि की नियुक्ति हेतु राज्य में आदेश प्रसारित कर दिया।
देखते ही
देखते अनेक नवोदित लेखक, कवि अपनी सेवाएं देने को तत्पर हो गए। पद एक था मगर आवेदकों की संख्या राजमहल की मुंडेर के कंगूरों पर जगमगाते दीपकों की तरह सैंकड़ों
थी। हर कवि राजमहल पर छाये अँधेरे को अपनी रोशनी से जगमगा देना चाहता था। एक युवा
जो राजमहल और महाराज की स्तुति में वर्षों से अपनी कविताओं और कथाओं से परोक्ष
योगदान दे रहा था लेकिन साहित्य समाज में बहुत उपेक्षित सा महसूस करता रहा था उसके
दिन फिर गए। प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कृतियों ने उसे नया राजकवि हो जाने का गौरव
प्रदान करवा दिया।
महाराज रोगी
जरूर थे किन्तु वे थे तो सम्राट। उन्हें प्रशंसा पसंद थी। इतिहास गवाह है यदि
व्यक्ति सम्राट है तो प्रशंसा उसके तन में जोश और मन में गौरव भर देती है। एक तरह
से प्रशंसा राजा के लिए शक्तिवर्धक,रक्तशोधक और जोशवर्धक टॉनिक की तरह काम करती है।
कुछ ही
दिनों में नए राजकवि की प्रतिभा का असर दिखाई देने लगा। धीरे धीरे महाराज पूर्ण
स्वस्थ हो गए। चेहरा फिर दमकने लगा, राजकाज सुचारू रूप से चलने लगा। चहुँओर राजकवि की
ओजस्वी और अलंकारिक कविताओं की गूँज से महाराज की कीर्ति पताका पुनः फहराने लगी।
जिस तरह कल्याणकारी राज्य के उस कवि का कल्याण हुआ, उसके दिन फिरे...सबके फिरें....!
2
राजकवि की नियुक्ति
महाराज के स्वस्थ हो जाने पर प्रजा की दशा में कोई बदलाव या जीवन
में खुशहाली आई या नहीं कह नहीं सकते किन्तु युवा कवि ज्ञानरिपु के अच्छे दिन आ गए
थे।
महाराज के नवरत्नों में से एक राजकवि भानुरत्न के आकस्मिक स्वर्गवास
के बाद महाराज बीमार हो गए थे। उनकी लंबी बीमारी से राजकाज में गतिरोध सा आ गया
था। मनोरोग विशेषज्ञ आचार्य विद्यादमन ने अंततः रोग का कारण और उपचार खोज निकाला
था।
यह निश्चित हो गया था कि राजकवि पंडित भानुरत्न के निधन के बाद
महाराज को प्रशंसा की नियमित खुराक न मिल पाने से वे अवसाद का शिकार हो गए थे।
राजकवि भानुरत्न की असमय मौत के बाद प्रशंसा
और स्तुति गान की जरूरी खुराक के इंतजाम के लिए आचार्य विद्यादमन के सुझाव पर नए
राजकवि की अस्थाई नियुक्ति के लिए महामंत्री कार्यालय ने बाकायदा प्रजा के बीच
डोंडी पिटवाई।
उन दिनों अनेक युवा आजीविका की प्रतीक्षा में अपना अध्ययन
समय काटने के लिए जारी रखते थे। एक के बाद एक उपाधि ग्रहण करते रहते
ताकि उन पर यह आरोप न लग सके कि इतना बड़ा हो गया है और निठल्ला बैठ कर अभी भी
पिताश्री के पसीने से अपना तन सींचता रहता है। पिता को भी सुविधा हो जाती थी,
जब लड़की वाले पूछते- पुत्र क्या कर रहा है इन दिनों? हृदय पर पत्थर बांधकर धर्मप्राण पिता मुस्कुराते हुए कह दिया करते - जी,
वर्तमान में पुत्र विभिन्न विषयों पर शिक्षा प्राप्त करके
स्नातकोत्तर उपाधियां अर्जित कर रहा है।
इन्ही हालातों के बीच जब राजकवि के पद की पूर्ति के लिए सैकड़ों आवेदन
आए तो आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। आश्चर्य यह था कि राजकीय नियुक्तियों में पद
भरे जाने में विलंब की परम्परा से हटकर इस पद पर महामंत्री ने युवा कवि ज्ञानरिपु
की अल्पकालिक नियुक्ति तुरन्त कर दी।
दिलचस्प यह भी था कि तमाम प्रशासनिक और निर्धारित चयन प्रणाली का
पालन करते हुए सैकड़ों आवेदकों की प्रतिस्पर्धा में आचार्य विद्यादमन के पटु शिष्य
और रिश्ते में भतीजे 'ज्ञानरिपु' इस पद
के योग्य उम्मीदवार पाए गए।
इस विशेष चयन की एक अलग गोपनीय कथा है,
जो आगे उजागर होगी। प्रत्यक्षतः यह चयन पारदर्शी और योग्यतानुसार
हुआ ही दिखाई देता था।
समय की नई आवश्यकताओं को देखते हुए ज्ञानरिपु का चयन स्वर्गीय
राजकवि भानुरत्न से बेहतर ही कहा जा रहा था। यदि वह कमतर भी रहा होगा तो राजकीय
सूचना प्रणाली तो कभी अपनी जांघ उघाड़कर दिखाने से रही। प्रजा में भी यही संदेश गया
या प्रसारित किया गया कि ज्ञानरिपु, पण्डित भानुरत्न से अधिक
श्रेष्ठ,योग्य और प्रतिभाशाली हैं। इस बात के प्रत्यक्ष
प्रमाण भी मौजूद रहे। ज्ञानरिपु जी ने अनेक विरुदावलियाँ, सम्राट
चालीसा, नरेश आरती, राज स्तुति छंद आदि
लिखकर महाराज की खूब प्रशंसा पाई ही किन्तु उनके वक्तव्यों, प्रजा
संबोधनों और विभिन्न अवसरों पर प्रेरक व आत्मीय भाषणों के ऐसे प्रभावी प्रारूप भी
रचे जिन्हें प्रस्तुत कर महाराज शनै शनै प्रत्येक नागरिक के हृदय में स्थान बनाते
गए। कुछ लोग तो महाराज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे
कि यदि रामभक्त हनुमान की तरह छाती चीरकर दिखाने का अवसर मिलता तो वहां महाराज की
छवि ही नजर आती। महाराज की आकांक्षा से राज्य के
विज्ञान मंत्री माननीय वेद स्वामी इस प्रयास में निरन्तर लगे हुए थे कि वैज्ञानिक
गण आज के एक्स रे मशीन की तरह ऐसा कोई उपकरण तैयार कर लें जिससे हरेक
व्यक्ति के भीतर की जांच की जा सके। कुछ निर्बुद्ध नागरिक कहते कुछ
थे और भीतर किसी और की छबि बिठाए रहते थे। इनकी भी पहचान सुशासन के लिए बहुत जरूरी
थी।
ज्ञानरिपु प्रतिभा सम्पन्न थे। किन्तु केवल प्रतिभा के बल पर क्या
कभी सब कुछ पाया जा सकता है? विशेषकर उच्च राजकीय पद प्राप्त
करने में केवल ज्ञान और उपाधियां होना ही पर्याप्त नहीं होता।
यह अलग बात थी कि ज्ञानरिपु पचास वर्ष की आयु का होने को आए थे
किंतु युवा कहलाते थे। रचनात्मक क्षेत्र में युवा बने रहने की अभी और बहुत गुंजाइश
थी। वे भी अन्य युवाओं की तरह मन वांछित जीविका और कार्य न मिल पाने से लम्बे समय
तक अध्ययन में व्यस्त रहते आए। विभिन्न विषयों में स्नातकोत्तर उपाधियां अर्जित
करते रहे। राज्य में अनेक ऐसे विश्वविद्यालय व महाविद्यालय थे जहां मित्रो,सहयोगियों सहित पुस्तक देखकर परीक्षाएं देने की सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं
थीं। इसके बाद भी यदि परीक्षा देने में कोई कसर रह जाती तो परीक्षार्थी को उत्तर
पुस्तिकाओं के गन्तव्य और परीक्षक के निवास से अवगत करा दिया जाता था। उचित धनराशि
चुका कर मनचाही उपाधि प्राप्त करना बड़ा सहज सुगम था। फिर भी बात न बन सके तो कई
ऐसे सामाजिक सेवा केंद्र भी थे जहां से उपाधियों की प्रतिकृति बनवाई जा सकती थी।
ज्ञानरिपु ने ऊपर उल्लेखित सहज रास्तों का कितना सहारा लिया या
कितनी मेहनत और ईमानदारी से अध्ययन किया, यह तो कहा नहीं जा
सकता किन्तु राजनीति,मनोविज्ञान,समाज
शास्त्र, इतिहास और भाषाओं में उन्होंने स्नातकोत्तर
उपाधियां हासिल कर लीं थी। अंग्रेजी विषय में भी एक उपाधि प्राप्त की किन्तु इसमें
उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। कुछ लोग बताते थे कि कार्य सिद्धि के
लिए उन्हें अपने गुरू पण्डित विद्यादमन का सहयोग भी लेना पड़ा था।
दरअसल अन्य प्रतियोगियों को पछाड़कर ज्ञानरिपु के सबसे आगे आने में
भी इसी आंग्ल भाषा की उपाधि की महत्वपूर्ण भूमिका रही। चयन समिति में आचार्य
विद्यादमन भी एक सदस्य थे और उनका तर्क था कि महाराज की ख्याति और सुशासन की
खूबियों को विश्वभर में पहुंचाने के लिए अंग्रेजी जैसी भाषा के विद्वान का
नवरत्नों में होना आवश्यक है। यद्यपि यह विडम्बना और रहस्य ही रहा कि साक्षात्कार
के मात्र एक दिन पहले अंग्रेजी विषय में प्रावीण्यता की उपाधि ज्ञानरिपु के हाथ
कैसे लग गई। जबकि आवेदन के साथ पहले से प्रस्तुत प्रमाणपत्रों में इसका उल्लेख
नहीं था।
बहरहाल, सभी उम्मीदवारों के ऊपर ज्ञानरिपु की
डिग्रियां और आचार्य से उनका रक्त संबंध बाजी मार ले गया और अस्थायी रूप से 'राजकवि' का मुकुट उनके मस्तक की शोभा बढाने लगा।
मुकुट के स्थायी होने में उनकी रचनात्मक प्रतिभा का अभी मूल्यांकन होना शेष था।
इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज्ञानरिपु तन मन से सम्राट की सेवा में रत हो गए
और नियमित रूप से हर विधा में राज प्रशंसा और नरेश स्तुति के उद्देश्य से सृजन
करने लगे।
3
गुरुमंत्र का प्रताप
नव नियुक्त राजकवि ज्ञानरिपु देर रात तक महाराज का भाषण लिखने में
जी जान से जुटे हुए थे। इस काम की गुणवत्ता पर उनका पद पर बना रहना और सेवा का
पुष्टिकरण होना निर्भर था। हाल फिलहाल इस पद पर उनकी नियुक्ति अल्पकालिक जो हुई
थी।
महाराज का निजी सचिव 'काक दन्त' अमावसी चेहरे के बीच धवल दन्त चमकाता हुआ शाम को ही सूचना देकर गया था कि
भोर होते ही महाराज को वन क्षेत्र की दुर्गम बस्ती 'पाषाण
पुष्प' की ओर कूच करना है। जहां स्वर्ण खनिज उत्खनन योजना के
शुभारम्भ के अलावा वनवासियों को आशीर्वचन भी देना है। इसी प्रयोजन से उन्होंने एक
दक्षिणी राज्य से आयातित बहूमूल्य सुरा का सेवन किया और वक्तव्य तैयार करने बैठ
गए। रसोइए से भोजन बनाने का भी मना कर दिया था ताकि पेट हल्का रहे और अपना काम वे
एकाग्रता से सम्पन्न कर सकें। तथापि कुछ भुने हुए काजू,किशमिश,चिलगोजे आदि जैसे सूखे मेवे बीच बीच में सुरा पान करते हुए मुँह में धर
लेते थे।
पांच पांच विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि सम्पन्न ज्ञानरिपु जी को
भाषण लिखने में कोई खास कठिनाई नहीं हो सकती थी किन्तु उनकी समस्या कुछ और थी।
विषय ही बड़ा जटिल था। वे जानते थे कि 'पाषाण पुष्प' क्षेत्र में भारी वन क्षेत्र को नष्ट कर वहां खनिज दोहन का कार्य होने
वाला था। इस बात को लेकर वनवासी लोगों में काफी आक्रोश पैदा हो गया था। कुछ समाज
सुधारक समाज और वनवासियों की जीवनधारा याने जल,जंगल और जमीन पर राजकीय हस्तक्षेप के आरोप लगा रहे थे। आंदोलन भी करने लगे
थे। आंदोलनकारी भी वनवासी परिवारों के बीच से ही निकलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़
रहे थे।
ज्ञानरिपु को राजकीय निर्देश थे कि वे अपनी कलम से ऐसा कोई जादू
करें कि जंगल के नीचे जमीन में दबा स्वर्ण भंडार उत्खनित होने में कोई बाधा खड़ी न
हो, होने वाले विरोध को दबाया जा सके, लगे
हाथ वनवासियों के हृदय में प्रजा के महान हितचिंतक के रूप में महाराज की छवि भी
निर्मित हो जाए।
राजकवि की चुनौती बहुत बड़ी और विकट थी। कहते हैं जहां चाह होती है,वहीं राह भी निकल आती है। यहां तो चाह का प्रश्न था ही नहीं। राजाज्ञा
जैसी तलवार की अदृश्य धार थी। जिस पर उन्हें चलना था और खून की जगह शब्दों के रंग
बहाने थे अपने भाषण लेखन में। राजकवि तो हो गए थे लेकिन भीतर द्वंद्व चल रहा था।
जो कुछ पढा गुना था,उसके विपरीत कार्य करना पड़ रहा था।
किताबों में पढ़ा था कि मनुष्य से प्रकृति प्रदत्त उपहारों व अधिकारों को छीन कर
किया गया विकास, विकास नही अपितु विनाश होता है। जो कुछ सीखा
समझा, गुरुजनों ने सीख दी,उसके उलट
आदिवासियों को यहां बहलाना फुसलाना था,ताकि स्वर्ण खनन
परियोजना में वे बाधा उत्पन्न न करें।
विचारों में डूबे ज्ञानरिपु के मन में उथल पुथल बढ़ती गई और वे बेचैन
हो गए। कलम साथ नहीं दे रही थी। सुरा भी मन मस्तिष्क पर असर नहीं डाल पा रही थी।
क्या करें अब। समय बीता जा रहा था। भोर तक भाषण तैयार करना था। वे उठे और 'राज प्रासाद अधिकारी निवास' की कोठी क्रमांक पन्द्रह
पर दस्तक दी। कोठी क्रमांक पन्द्रह आचार्य विद्यादमन को आवंटित थी।
शिष्य की समस्या गुरु ने धैर्य के साथ सुनी और निदान भी कुछ क्षणों
में कर दिया।इसी लिए तो गुरु गुरु होता है, गोविंद के पहले
स्थान पाता है। गुरु बोले 'रिपु'! वे
ज्ञानरिपु को स्नेहवश इसी लघु संबोधन से पुकारते थे। 'तुम
नाहक परेशान हो रहे हो। राजकीय सेवा करते हुए तुम्हे अपने स्वतंत्र विचारों,अपनी पक्षधरता, आदर्शों को मन के किसी ताम्रपात्र
में बंद कर स्मृतियों की गहराई में उतार देना चाहिए। जब तक ये चीजें तुम्हारे
सामने रहेंगी तुम राजकीय दायित्व निभा ही नहीं सकोगे। अतः पहले इनसे मुक्त हो जाओ।
सफलता तुम्हारे सामने नृत्य करने लगेगी।'
गुरुगृह से संतुष्ट और प्रसन्न भाव लेकर लौटे ज्ञानरिपु
पुनः अपने आसन पर आ विराजे। कागज पर कलम अब सरपट दौड़ने लगी थी। थोड़ी
अवधि के उपरांत राजमहल के गुम्बद से तीन टंकार बजाए गए, राजकवि
ने अपना लेखन पूर्ण कर लिया था।
राजकवि ने उद्बोधन का शानदार प्रारूप तैयार किया था जो अगले दिन
वनक्षेत्र की 'पाषाण पुष्प' बस्ती में
स्वर्ण उत्खनन परियोजना में पढ़ कर महाराज ने सबका दिल जीत लिया।
यह सब उस 'गुरु मन्त्र' का
ही प्रताप था जिसके कारण ज्ञानरिपु को स्थायी रूप से सम्राट ने राजकवि बना दिया।
ब्रजेश कानूनगो
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