व्यंग्य
परीक्षा केंद्रे हताश अर्जुन
ब्रजेश कानूनगो
हे केशव! जब परीक्षा केंद्र में मेरे सामने आदरणीय
गुरुवर घूम रहे हों, मेरे सहपाठी बंधु-बांधव किताबें खोल खोल कर नकल करने को तैयार बैठे हों,
प्रश्नपत्र देखकर मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा हो, मेरे हाथों से पेन छूटा
जा रहा हो, खुले पेन की स्याही सूख रही हो. अब तुम ही बताओ ! मैं प्रश्न पत्र को
कैसे हल करूं? मेरी इच्छा हो रही है कि मैं परीक्षा हॉल से उठकर तुरंत बाहर चला
जाऊं और सरकार से बेरोजगारी भत्ते की मांग कर उसका इंतज़ार करता किसी तालाब के किनारे बैठ कर मछलियां पकड़ता
रहूं.
हे अर्जुन! तुम बेकार चिंता कर रहे हो. इस तरह परीक्षा
हाल से बाहर चले जाने से तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा. मछलियां पकड़ना तुम जितना
आसान समझ रहे हो वह भी उतना आसान भी नहीं है. पहली बात तो तालाबों में पानी ही
नहीं है और दूसरी बात, आजकल मत्स्य विभाग द्वारा मछलियां पकड़ना प्रतिबंधित किया
हुआ है. बेरोजगारी भत्ता भी इतना नहीं है कि जो तुम्हारे जीवन यापन के लिए
पर्याप्त हो. तुम उन विदेशी बेरोजगारों की तरह नहीं हो जिन्हें सरकार से इतना
भत्ता मिल जाता है कि वे आराम से किसी दूसरे मुल्क में जाकर ऐश कर सकते हैं. इसलिए
हे पार्थ ! तुम एक बार ठंडे पानी से मुंह
धो कर आओ और प्रश्न पत्र को हल करने का प्रयत्न करो. यही परीक्षार्थी का धर्म है.
किंतु हे माधव! जब चारों और मेरे सखा किताबें खोल
खोल कर नकल कर रहे हों, तब क्या यह उचित होगा कि मैं अपने स्व-ज्ञान से प्रश्नपत्र
हल करने की कोशिश करूँ? क्या मेरे अपने
लिखे उत्तर परीक्षक की कुंजी से मेल खा सकेंगे? क्या वह उत्तरों को सही मानकर मुझे
उत्तीर्ण कर देगा? मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा प्रभु! इस अवस्था में मैं अपने आप को परीक्षा हॉल से
बाहर जाने से रोक नहीं पा रहा हूँ.
हे भारत ! तुम निराशा में डूब गए हो. निराशा मानव की
बुद्धि को नष्ट करती है. और बगैर बुद्धि के आदमी बेवकूफी की बातें करने लगता है.
तुम इस निराशा से ऊपर उठो और अपने सखाओं की तरह पुस्तक खोलो और परीक्षा क्षेत्र
में कूद पड़ो. जब नकल करना इस युग की परीक्षा पद्धति की एक अनिवार्य क्रिया बन ही चुकी
है तब उससे दूर भागना बुद्धिमान परीक्षार्थी को शोभा नहीं देता.
हे धनंजय ! वीर तेजस्वी छात्र पुस्तक खोलने से नहीं
घबराता. बस सही प्रश्न का सही उत्तर पुस्तक में ढूंढ निकालो. तुम समझदार हो, मगर
भोले हो. गुरुजनों से कैसी झिझक ! वर्ष पर
जब उन्होंने तुम्हें पढ़ाया ही नहीं है तो उन्हें नकल करने से रोकने का कोई नैतिक
अधिकार भी नहीं है. तुरंत एक खंजर टेबल पर गाड दो और कूद पढ़ो इस परीक्षा रूपी
वैतरणी में, और पार कर डालो तुरंत.
हे माधव ! मुझे तैरना नहीं आता.
हे अर्जुन ! तैरना आना उतना आवश्यक नहीं है, जितना बहती नदी
में कूद पड़ना. आज तुम्हें जो तैरते हुए नजर आ रहे हैं वे भी तैरना नहीं जानते थे.
तुम भी जब इस नदी में कूद पड़ोगे, अपने आप तैरने
लगोगे. इसलिए हे पार्थ ! नदी में डूबने की चिंता छोड़ो. बस कूद पडो इस समय यही
उचित है.
हे देवकीनंदन ! क्या इस तरह परीक्षा उत्तीर्ण करने
से मैं अपने आप को धोखा नहीं दूंगा? क्या मैं अपने आप से शर्मिंदा नहीं हो जाऊंगा?
क्या जीवन पर्यंत यह दुष्कृत्य मेरे लिए बोझ नहीं बन जाएगा?
हे अर्जुन ! जब लोग एक दूसरे से नहीं शर्माते हैं. ऐसे
वक्त में अपने आप से कैसी शर्म? इस झिझक का क्या अर्थ है? बेशरम का पौधा बगैर खाद
पानी के किस तरह फलता-फूलता है ये कौन नहीं जानता. बेशर्मी कलयुग का एक अलंकार है,
श्रृंगार है.इसको धारण करने वाला दुनियादार माना जाता है. इसलिए हे पांडु पुत्र ! बेशर्मी
से नाता जोड़ो, युग धर्म का निर्वाह करो. यही तुम्हारे हित में है. जब सब नकल कर्म
में जुटे हों, तब तुम्हें भी वह धर्म निभाना चाहिए. तुम भी इसी समाज का हिस्सा हो.
समुद्र में जो मछली तैरने से मनाकर देगी उसे रसातल में बेसुध हो ही जाना है.
एकाएक अलार्म घड़ी की घंटी से मेरी नींद खुल गई. छः
बज रहे थे. सात बजे मेरी परीक्षा प्रारंभ होने वाली थी. मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुआ.
पूजाघर में रखी कृष्ण की तस्वीर को प्रणाम किया और परीक्षा केंद्र की ओर अपनी मोटर
साइकिल दौड़ा दी. परीक्षा कक्ष में स्वप्न
में देखे दृश्य हू-बहू नजर आ रहे थे. मैं निर्णय नहीं ले पा रहा था कि अपने मन में
स्थित कृष्ण के कहे पर पर अमल करूँ या कर्मयोगी मुरली मनोहर माधव के कुरूक्षेत्र
के रण में अर्जुन को दिए उपदेशों का पालन करते हुए, स्व-ज्ञान से परिणाम की
अभिलाषा किए बगैर प्रश्नपत्र हल करने में जुट जाऊं.
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,
इंदौर-452018
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