Monday, September 12, 2016

सपने में भोलेनाथ

व्यंग्य कथा
सपने में भोलेनाथ
ब्रजेश कानूनगो

ओलिम्पिक में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन से मन बहुत उदास था. सवा सौ करोड़ लोगों के मुल्क का ब-मुश्किल सवा-दो पदक हासिल करके लौटना काफी नहीं था. खिलाड़ियों से ज्यादा वहां अन्य हस्तियों का योगदान कहीं अधिक रहा था, गैर खिलाड़ियों ने ओलिम्पिक में हिस्सा लेकर उल्लेखनीय ख्याति अर्जित कर ली थी. देशवासी अपनी निराशा और  खिसियाहट, पदक अर्जित करने वाले जांबाज खिलाड़ियों के भव्य और जोशीले स्वागत के परदे में छुपाने की कोशिश में लगे थे. इसमें सफलता भी बहुत हद तक मिल भी रही थी. इन सबके बीच एक दिन अचानक सपने में बाबा भोलेनाथ प्रकट हो गए और बोले-‘वत्स! भारत में भी ओलिम्पिक की मशाल जलाओ और अपने खुद के देसी ओलिम्पिक महा खेलपर्व की शुरुआत करो!’

पहले तो मैं चौंका,थोड़ा घबराया भी लेकिन हिम्मत जुटाकर बोला- ‘भगवन, सन बयासी के ‘अय्याशियाड’ और हाल ही के ‘कामन वेल्थ’ खेलो के बाद से अब तक कमजोरी है, हेल्थ के बुरे हाल हैं और आप हैं कि ओलिम्पिक करवाने का आदेश दे रहे हैं.’

मैंने किसी सरकारी बाबू की तरह संभावित कष्ट को टालना चाहा. परन्तु भोलेनाथ अड़े रहे. मैंने ओलिम्पिक नहीं करवाने के पक्ष में अनेक तर्क दिए, लेकिन उन पर जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा था. मैंने कहा-‘बाबा, अभी हमें और भी बहुत काम करने हैं, ओलिम्पिक वगैरह तो बाद में होता रहेगा. भ्रष्टाचार को समाप्त करना है, गंगा की सफाई करनी है, डिजिटल इंडिया के लिए ओप्टिकल  फायबर बिछाना है, बेरोजगारों को ‘निपुण’ बनाना है, उन्हें रोजगार देना है. जनता को ‘मूल्यवृद्धि संवेदना’ और ‘महंगाई अनुभूति’ की मानसिकता से मुक्त करना है, काले कुबेरों को जेल में डालना है, स्वच्छता का बड़ा अभियान अभी हमारे हाथ में है, शौचालय भी अभी बहुत बनाए जाना बाकी रह गए हैं. इतने सारे महत्वपूर्ण कार्यों के बीच ओलिम्पिक को प्राथमिकता में नहीं रखा जा सकता प्रभु!’

‘ये कोई बड़ी बातें नहीं है, सब होता रहता है, अगर इतनी ही समस्या होती तो यह देश अब तक चल नहीं रहा होता, जनसंख्या भी इतनी विक्सित और विशाल नहीं हो जाती, सब कुशल-मंगल है यहाँ. लोग जीवित हैं, राष्ट्रीय आय और विकास दर के साथ साथ औसत आयु भी बढ़ गयी है, निराशा तुम्हारे मन में है बस, यदि बेरोजगारी की समस्या होती तो यह मुल्क अब तक खाली हो गया होता.’ महादेव ने किसी वित्तमंत्री की तरह बात को घुमा दिया.

‘लेकिन आप भारत में ओलिम्पिक करवाने पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं? दूसरे देश ओलिम्पिक  करते तो रहते हैं, हमारे खिलाड़ी वहां जाते ही हैं, थोड़ा-बहुत पदक वगैरह भी ले आते हैं, आपकी कृपा से. अब हम गरीबों को बड़े कष्ट में क्यों डालना चाहते हैं?’ मैंने महादेव से जानना चाहा. ‘वैसे भी हमारे यहाँ इतनी आसानी से कोई काम होता नहीं है. संसद में पहले किसी भी प्रस्ताव को पारित कराना होता है. सरकारें बदल जाती है पर प्रस्ताव पेंडिंग बना रहता है. ओलिम्पिक कोई सांसदों-विधायकों के वेतन वृद्धि आदि जैसी मामूली बात नहीं है कि सहजता से ओलिम्पिक-प्रस्ताव पारित करवाया जा सकता.’ मैंने आगे कहा.

‘जो होना होता है वह हो ही जाता है वत्स, अब ‘जी एस टी’ बिल को ही देखो, अपने-अपने समय हर विपक्ष इसका विरोध करता रहा , आखिर अब तुमने इसे अंगीकार कर ही लिया है. इसी तरह ओलिम्पिक प्रस्ताव को आगे बढाओ.’ भगवन बोले.

‘प्रभु, प्रस्ताव पारित होने के बाद भी उसे जमीन पर लाना, उसका क्रियान्वयन करना कहाँ इतना आसान होता है. आप तो जानते ही हैं, यह देश बहुत विविधता से भरा है, यहाँ की समस्याएं भी बड़ी विविध हैं. हर नेता ओलिम्पिक अपने चुनाव क्षेत्र में करवाने का प्रयास करेगा. कोई राज्य अप्रत्यक्ष रूप से धमकी दे सकता है कि ओलिम्पिक अमुक स्थान पर नहीं हुए तो वह शेष देश को बिजली अथवा अपनी नदी का पानी देना बंद कर देगा. बहुत समस्याएं खडी हो जायेंगी प्रभु! लोग रेल की पटरियां उखाड़ देंगे, बस डिपो में खडी अन्य राज्यों की बसों में आग लगा देंगे.’ मैंने चिंता व्यक्त की.   

‘जो भी हो,  यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है, हमारी प्राचीन नीतियाँ ओलिम्पिक करवाने की रहीं है. हम अतीत में ओलिम्पिक करवाते रहे हैं. उस परम्परा को तुम्हे पुनर्जीवित करना है.’ कहते-कहते वे थोड़ा क्रोधित हो गए और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोलना चाहा, मैं डर गया और हडबडा कर नींद से जाग गया.

स्वप्न तो मैं हमेशा से देखता रहा हूँ. सोते हुए नींद में सपने आते हैं और दिन में फुरसत में बैठता हूँ तो खुली आँखों के सामने ‘विचार-स्वप्न’ शुरू हो जाते हैं. लेकिन ऐसा विचित्र सपना शायद पहली बार देखा था. एक संतश्री की आध्यात्मिक दूकान से खरीदी ‘स्वप्न-विचार’ नामक पुस्तक में इसका फल और अर्थ देखना चाहा तो उसमें भी पशु, दैत्य, दानव, ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में विवरण अवश्य प्राप्त हुआ, मगर भोले बाबा द्वारा ओलिम्पिक करवाने संबंधी आदेश के बारे में कोई विचार या संकेत वहां उपलब्ध नहीं हुए.

मुल्ला की दौड़ मज्जिद तक, मुख्यमंत्री की दौड़ हाईकमान तक और मेरी दौड़ परममित्र साधुरामजी तक. स्वप्न-रहस्य का पर्दा उठना साधुरामजी से घनघोर ‘विमर्श’ के बाद ही संभव था. एक तरह से वे ‘विमर्श’  विशेषज्ञ हैं. जैसे महान कवि, कविता को औढता-बिछाता है, कविता ही उसका जीवन होता है उसी तरह साधुरामजी ‘विमर्श’ में रहते है, ‘विमर्श’ के लिए जीते हैं, ‘विमर्श’ करना उनकी प्रमुख विधा है. उनके जोरदार विमर्श के बीच से नए अर्थ निकल आते हैं. किसी ने बताया भी था कि साधुरामजी का जन्म हुआ तब दिल्ली की संसद में, राज्य की विधान सभा में और अस्पताल के लेबर रूम में डॉक्टरों के बीच भयंकर बहस छिड़ी हुई थी.
  
बहरहाल, मैं अपना विषय लेकर उनके पास पहुंचा ताकि स्वप्न रहस्य का सही-सही अर्थ जाना जा सके. मैंने अपनी जिज्ञासा साधुरामजी के समक्ष रखी तो वे बोले-‘ हमेशा कहता हूँ तुम्हे! खूब पढो और विश्लेषण करो, फिर बहस करो उस पर, लेकिन अपने आपको बचा जाते हो बहस करने से, कतराते हो इसीलिये ऐसी समस्याएँ सामने आ जाती है तुम्हारे.’

‘अब जो भी हो, इस स्वप्न भार से मुझे मुक्ति दिलाइये आप. भोलेनाथ ने ओलिम्पिक भारत में करवाने को क्यों कहा? जब तक मुझे समाधान नहीं होगा, मैं नया सपना नहीं देख सकूंगा. जैसे आप बगैर विमर्श के नहीं रह सकते वैसे मैं बगैर सपना देखे नहीं रह सकता. एक आम आदमी कर भी क्या सकता है सिवाय सपनों को ओढ़ने-बिछाने के..’ मैंने साधुरामजी से निवेदन किया.

‘ठीक है, ठीक है.’ साधुरामजी बोले-‘ भगवान शंकर के सपने में प्रकट होकर भारत में ओलिम्पिक करवाने के आग्रह के पीछे अनेक कारण हो सकते हैं. हो सकता है वे भारत के कृषि प्रधान की बजाए राजनीति प्रधान राष्ट्र में रूपांतरित हो जाने से बोर हो गए हों और उसे एक नई दिशा में मोड़ना चाहते हों ‘खेल प्रधान’ बनाना चाहते हों, ताकि खेलों के माध्यम से थोड़ा दृश्य परिवर्तन हो सके.’

‘मगर भगवान भोले हमारे देश की वर्त्तमान स्थितियों से चिंतित थोड़े हैं, वे तो अब आश्वस्त हैं कि देश के लोगों का धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास बढ़ा है, सब कुछ ठीक चल रहा है. उन्होंने तो सपने में यह कहा था कि ओलिम्पिक करवाना हमारी परम्परा रही है और यहाँ ओलिम्पिक जैसे खेल होते रहे हैं.’ मैंने स्पष्ट किया.

‘तो फिर भोलेनाथ का आशय सीधे-सीधे हमारे पौराणिक ओलिम्पिक से था और वे ओलिम्पिक आयोजन से प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने की कामना से तुम्हारे सपने में प्रकट हुए होंगे.’ साधुरामजी ने समझाया.
‘लोग कहते हैं कि हॉकी का जन्म हिन्दुस्तान में हुआ था, दुर्दशा होने के पहले तक हमने  ओलिम्पिक और एशियाई खेलों में बहुत नाम कमाया, पदक हासिल किये, लेकिन ओलिम्पिक करवाना हमारी परम्परा रही हो, ऐसा कभी नहीं सुना.’ मैंने अपनी अज्ञानता बहुत संकोच के साथ साधुरामजी के सामने रखी.

‘अध्ययन और विश्लेषण के अभाव में तुम्हारे भीतर अज्ञानता का अन्धेरा छाया हुआ है मित्र!, दरअसल, प्राचीन और आधुनिक ओलिम्पिक खेलों के पहले ही हमारे यहाँ ‘पौराणिक ओलिम्पिक खेल’ आयोजित होते रहे हैं. तीरंदाजी में अर्जुन और एकलव्य,भारोत्तोलन और डिस्क थ्रो में श्रीकृष्ण, ऊंची और लम्बी कूद में हनुमानजी, कुश्ती में भीम और दुर्योधन आदि अपने समय के नामी खिलाड़ी रह चुके हैं.’ साधुरामजी ने कहा. ‘और तो और जन-कथाओं से संकेत मिलता है कि गणेशजी संसार के पहले पदक विजेता थे. वे एक अच्छे एथलीट थे. उनकी प्रखर बौद्धिकता के कारण उनका खिलाड़ी पक्ष बहुत कम सामने आ पाया. जो थोड़ा बहुत दादी नानियों की ज़ुबानी सुना जाता रहा है, उसके अनुसार बालक गणेश बड़े अच्छे वेटलिफ्टर और धावक थे.’ साधुरामजी ने आगे बताया.

‘किन्तु एक अच्छा वेटलिफ्टर एक धावक कैसे हो सकता है? मैंने अपनी शंका व्यक्त की.
‘तुम्हारा प्रश्न बहुत अच्छा है.’ साधुरामजी ने वरिष्ठ विचारक की तरह आँखें झुकाते हुए कहा-‘सचाई यही है कि वेटलिफ्टर होने के बावजूद स्वर्ण पदक उन्हें दौड़ने के लिए ही प्राप्त हुआ था.’ साधुरामजी के भीतर का डिबेटर सन्दर्भ, प्रसंग , उदाहरण और तर्कों  के साथ शुरू हो गया, कहने लगे- ‘कार्तिकेय और गणेश, दोनों भाई  खेलों में विशेष रूचि रखते थे. इधर गणेश वेटलिफ्टिंग का अभ्यास करते, उधर कार्तिकेय मेराथन के लिए दौड़ने की प्रेक्टिस किया करते. कुछ समय बाद बच्चों के प्रोत्साहन हेतु भगवान भोलेनाथ ने ओलिम्पिक का आयोजन किया. यह गणेश जी और वेट लिफ्टिंग खेल का दुर्भाग्य था कि गणेशजी के भारवर्ग में कोई  प्रतियोगी नहीं था. अतः वह स्पर्धा रद्द कर दी गयी. इसीलिए पुरानों में इसका कोई उल्लेख भी नहीं मिलता. गणेशजी को अंततः विवश होकर भाई के साथ मेराथन में हिस्सा लेना पडा. कहा जाता है कि उन दिनों मेराथन के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता था. गणेशजी इस प्रतियोगिता में अपनी सामर्थ्य भली प्रकार जानते थे. अपने शरीर के भार को लिए-लिए  पृथ्वी का चक्कर लगाने की बजाए ‘माता-पिता’ का चक्कर लगाकर खेलों में विजेता बने और ओलिम्पिक का पहला पदक प्राप्त किया. गणेशजी का दावा था कि रेंट्स तो पूरी सृष्टि से भी बड़े होते हैं. उनकी परिक्रमा करना पृथ्वी की परिक्रमा करने ज्यादा श्रेष्ठ है. बुद्धि कौशल में गणेशजी के आगे कौन टिक सकता था. निर्णायकों को अपना निर्णय गणेशजी के पक्ष में देना पडा. 
ओलिम्पिक में हमारा स्वर्णिम इतिहास रहा है. शायद तुम्हारे सपने में भोलेनाथ की यही मंशा रही होगी कि हम अपने भारतवर्ष में ओलिम्पिक खेलों का पुनः आगाज करें.’ साधुरामजी ने विमर्श का समापन–सा कर दिया था.

सोच रहा हूँ, भारत सरकार के पोर्टल पर बाबा भोलेनाथ के आदेश के बारे में एक प्रस्ताव आज ही पोस्ट कर दूं. क्या ख़याल है आपका !
  

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018



                  

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