व्यंग्य
ताले और चाबियां
ब्रजेश कानूनगो
ब्रजेश कानूनगो
हमारे देश में चाबी का बड़ा पुराना इतिहास रहा है। चाबी ही क्या चाबी
से जुड़ी हर वस्तु बड़ी महत्वपूर्ण रही है,मसलन चाबियों का
गुच्छा, ताला,
वह खूंटी जिस पर गुच्छा टांगा जाता है। मेज की वह
दराज जिसमें चाबियां रखी जाती हैं। सास की साड़ी का पल्लू जिसमें गुच्छा बांधा जाता है या बहू की कमर,जिससे टकरा टकरा कर
गुच्छे में बड़ी रोमांचक और रोमांटिक झनझनाहट होती है।
बगैर चाबी के ताला बेकार है। ताला शरीर है चाबी आत्मा। बगैर
चाबी का ताला शव के समान है। चाबी के संपर्क से उसमें संचार संभव है। जीवन संभव
है। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती या प्रभुजी तुम ताला हम चाबी। एक ही बात है एक ही
अर्थ है।
ताला पड़ना विराम की स्थिति है। अक्ल पर ताला पड़ता है।कारखानों पर
ताला पड़ जाता है। जेलों पर ताला पडा रहता है। गोदामों पर लग जाता है।चाबियां नहीं
मिलती वक्त पर,
तो आदमी मूर्खताएं करता है। उत्पादन ठप हो जाता
है। निरपराध कैद रहते हैं बरसों। शकर और अनाज चूहे खा जाते हैं।
चाबी का इस्तेमाल गति प्रधान क्रियाओं की उत्पत्ति का सबब होता है।
चाबी घुमाते ही आदमी सरकार बदल डालता है। करघे फिर चलने लगते हैं । विचाराधीन कैदी रिहा हो जाते हैं। शक्कर और अनाज खुले
बाजार में बिकने लगता है।
चाबियां मोड़ लेती हैं, पहले खुद मुड़ती है, फिर ताले के लीवरों को मोड़ती है।फिर कहानियां मुड़ जाती
है।बेमेल बात करके मैं लेख को मोड़ नहीं दे रहा। जी हां, चाबियां कहानियों को मोड़ देती हैं।चाबियों की वजह से बंगला साहित्य
में सास अपनी बहू को चाबियों का गुच्छा सौंप कर कहानियों को बड़ा दिलचस्प
मोड़ देती आई है। कहानियों का घुमाव , दिलचस्पी और रोमांच
उत्पन्न करता है। चाबियां नहीं तो मोड़ नहीं, रोमांच नहीं। बगैर
रोमांच के जीवन निस्सार है।
चाबियां, आनंद भवन के द्वार खोलती हैं। आनंद बहुत आवश्यक
है आदमी के लिए। आनंद में आदमी भूल जाता है कि भूख क्या होती है। आग क्या होती है। दंगे क्या होते हैं। भ्रष्टाचार किस चिड़िया का नाम है।कश्मीर में क्या हो रहा है, पंजाब का दर्द क्या है। पेट्रोल और दालें इतनी महंगी
क्यों हैं । कालाधन देश में आता क्यों नहीं। किसान आत्महत्याएं करते क्यों हैं। पुल समय पर बनते क्यों नहीं, जो बने हैं वे जल्दी क्यों ढह जाते हैं। और भी बहुत कुछ भूल सकता है
आदमी आनंद में। आनंद के इसी इंतजाम के लिए सरकारें मतदाता के मन के निराश तालों
में आश्वासनों और घोषणाओं की नक्काशीदार चाबियां घुमाती रहती हैं।जैसे ही ताला खुलता है,जनता डूब जाती है
आनंद सागर में। भूल जाती है वह सब, जो उसके लिए भूल
जाना ही आवश्यक बना दिया जाता है।
हरेक ताले की विशेषता होती है कि वह अपनी सही चाबी से ही खुलता
है। गलत ताले
में सही चाबी, या सही ताले में गलत चाबी, दोनों ही स्थितियां
कष्ट कारक होती हैं। गलत चाबी के प्रयोग से गले में हड्डी अटकने जैसी स्थिति हो
जाती है। न ताला खुलता है न चाबी बाहर आ पाती है। या तो ताला तोड़ो या चाबी काटो।
फिर ताला अरुणाचल का हो, पंजाब का हो, कश्मीर का हो या
कर्नाटक का। अलीगढ़ का हो या अयोध्या का । वह नहीं खुलेगा सो नहीं खुलेगा। पचते
रहो।घुमाते
रहो चाबी ताले के अंदर।वह नहीं खुलेगा तो नहीं
खुलेगा। चाबी धारक को लगता रहेगा कि अब खुला अब खुला। हिंदी के ताले में अंग्रेजी
की चाबी ऐसी ही अटकी पड़ी है।न ताला खुल रहा है न चाबी निकल पा रही है।
लंबे समय से लगा ताला तो अपनी चाबी से भी नहीं खुल पाता कभी कभी। जंग लग जाता है उसमें। वैसे जंगी ताले रहे ही कहां अब , जिसमें जंग न लगती हो।पांच-पांच सालों तक ताले पड़े रहते हैं नागरिकों
के बुनियादी हकों पर। घोषित और अघोषित आपातकालीन ताला डाल दिया जाता है कभी भी।
लंबे समय तक बंद तालों के लीवर इतनी जंग खा जाते हैं और इतनी मजबूती से जुड़ जाते
हैं की सही चाबियां लगाने के बावजूद नहीं खुलते और खुल जाते हैं तो बाद में अपनी
असली चाबी से भी पुनः क्रियाशील होने से इनकार कर देते हैं।ये ताले इतिहास के
कूड़ेदान में आसानी से खोजे जा सकते हैं।
ताले और चाबी का प्रयोग इतना आसान भी नहीं है जितना इसे समझा जाता है।
ठीक उसी तरह जिस तरह प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ‘भोपू बजाने की कला’ के विलुप्त
होने का खतरा महसूस करते थे, मैं भी
आशंकित हूं कि डिजिटल लॉकिंग के आधुनिक समय में हमारे पारंपरिक तालों और दिलकश चाबियों
को लोग कहीं
भुला न बैठें।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर-452018
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर-452018
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