Wednesday, September 14, 2016

गणेश जी पहुंचे कर्जा लेने

व्यंग्य
गणेश जी पहुंचे कर्जा लेने
ब्रजेश कानूनगो

एक टांग पर दूसरी टांग धरे बैठे गणेशजी बोर हो गए. जब केवल दो हाथों वाले मनुष्य मशीनों की तरह काम धंधे में जुटे हों तो फिर उनके पास तो दो जोड़ी हाथ है. कोई काम धंधा ही शुरू करके देखा जाए. चंद दिनों मनोरंजन ही सही. और फिर अनुभव का अनुभव.

दूसरे दिन ‘स्वर्ग समाचार’ में विदेश गमन की खबर छपवाई और भारत में उतर आए. गणेशजी अब गणेशदत्त थे. एक बेरोजगार युवक. रोजगार की तलाश में भारत की सड़कों पर भटकने लगे.

अचानक उनकी निगाह एक आटा चक्की पर पड़ी, लिखा था- ‘इंद्र फ्लोर मिल’. वे चौंक पड़े. अच्छा तो देवराज इंद्र भी आजकल पृथ्वी पर आटा चक्की चलाने का प्रशिक्षण ले रहे हैं उन्होंने मन ही मन सोचा.
‘यह आटा चक्की आपकी ही है?’ उन्होंने चक्की में गेहूं डालते युवक से पूछा.
‘तो क्या आप की है?’  युवक के  रूखे उत्तर से गणेशदत्त भौचक्क रह गए.
‘देवराज इंद्र नाराज क्यों होते हैं.’  विनम्रता से वे फिर बोले.
‘देवराज किसे कह रहे हो, मेरा नाम दिनेश है, हां, मेरे स्वर्गवासी पिता का नाम जरूर इंदर सिंह था.’ युवक ने बताया तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया.

आटा चक्की पर एक पट्टिका लगी थी- ‘लोक सेवा बैंक की वित्तीय सहायता से’, यानी दिनेश को किसी बैंक से ऋण प्राप्त हुआ है.
दिनेश से बैंक का पता पूछ कर व सीधे वहां पहुंचे. चपरासी से उन्होंने प्रबंधक महोदय के लिए पूछा तो उन्हें पता चला कि वह पशु बाजार में भैसे खरीदने गए हुए हैं. उन्होंने मन ही मन सोचा, शायद प्रबंधक महोदय का परिवार बड़ा होगा और दूध भी अधिक लगता होगा इसीलिए वे  अपने लिए भैसें खरीदने गए होंगे.

गणेशदत्त वहीं लगी बैंच पर बैठकर शाखा प्रबंधक के लौटने का इंतजार करने लगे. बैंक शाखा में उस वक्त बिजली आ रही थी और पंखे चल रहे थे. हवा लगी तो बोझिल शरीर को आराम मिला और उन्हें झपकी लग गई.

नींद खुली तब बैंक की घड़ी में शाम के चार बज रहे थे और प्रांगण में दस-बारह भैसें बंधी हुई थी. कोई आमंत्रित नेताजी भाषण दे रहे थे. एक फोटोग्राफर भैसों और नेता जी को एक साथ कैमरे में कैद करने का प्रयास कर रहा था. उन्हें कुछ समझ में नहीं आया. वे ध्यान से नेताजी का भाषण सुनाने लगे. कुछ देर बाद सारा माजरा स्पष्ट हो गया. किसी सरकारी योजना में गरीब खेतीहर लोगों को भैसे खरीदने के लिए ऋण प्रदान किया गया था.

‘अहा! कितना आसान है सहायता प्राप्त करना दिनेश ने आटाचक्की खोली और यह बारह  व्यक्ति भैसों के लिए ऋण प्राप्त कर रहे हैं .’ गणेशदत्त पुलकित हो उठे.
अगले दिन वे बैंक के प्रबंधक के सामने उपस्थित थे. प्रबंधक ने उन्हें ऋण अधिकारी के पास पहुंचा दिया.
‘अर्जी लाए हो?’  फाइलों पर से बगैर नजर उठा कर अधिकारी ने प्रश्न किया.
‘लाया तो नहीं, पर अभी लिख देता हूं.’ गणेश दत्त ने ऐसे आत्मविश्वास से कहा जैसे उनके अर्जी लगाते ही बैंक अधिकारी दराज में से रुपए निकाल कर उन्हें दे देगा.
‘किस धंधे के लिए कर्ज चाहिए?.
‘जी, आप ही बता दीजिए; कुछ न कुछ तो करना ही है!’ गणेशदत्त बोले.
अधिकारी ने कंप्यूटर से चेहरा हटाकर पहली बार उनकी ओर देखा और पूछा- ‘क्या बेरोजगार हो?.
‘हां, शिक्षित बेरोजगार हूँ.’ गणेशजी ने कहा.
‘रोजगार दफ्तर में पंजीयन करा लिया है?’ अधिकारी ने पूछा. गणेशदत्त को पहली बार पता चला कि रोजगार पाने के लिए पहले किसी सरकारी दफ्तर में पंजीकृत होना पड़ता है. उन्होंने झूठ ही कह दिया- ‘हां, करा लिया है.’ और मन ही मन सोचा ‘ना कराया है तो अब करा लेंगे आखिर हम भगवान है’. अधिकारी ने उन्हें दो फार्म दिए ‘यह एप्लीकेशन फार्म है दूसरा नो ड्यूस सर्टिफिकेट, इस शहर के सभी बैंकों की शाखाओं से प्रमाणित करवाना है कि आपने उनसे कोई कर्ज  प्राप्त नहीं किया है और यह सब लेकर सोमवार के बाद आइएगा.’

गणेश फार्म लेकर लौट आए. शताब्दियाँ हो गईं ज्ञान लुटाते हुए. सैकड़ों धर्म ग्रंथ लिख डाले मगर कभी फॉर्म नहीं भरा था. इधर दिनेश से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई थी. वह सीधे उसकी चक्की पर पहुंचे. चक्की पर बैठे बैठे ही सामने चाय की गुमटी पर दो कप चाय का आर्डर फेंका. तब दिनेश उनका फॉर्म भरने को तैयार हुआ.

‘कर्ज किस लिए चाहिए?’ दिनेश का प्रश्न था.
‘टेंपो खरीदने के लिए’. गणेशदत्त तपाक से बोले. बैंकों से नो ड्यूज करवाने गए थे तब उन्होंने हर टेम्पों पर किसी न किसी की बैंक की पट्टी देखी थी.  उन्होंने तब ही सोच लिया था कि वे टेम्पो चलाएंगे. बैंको से नो ड्यूज सर्टिफिकेट लेने के चक्कर में गणेशजी,  जिन्होंने माता-पिता का चक्कर लगाकर का मैराथन का पदक प्राप्त किया था, अपना वजन तीन  किलोग्राम घटा चुके थे.

दो दिन विश्राम करने के बाद वे बैंक पहुंचे. उनका आवेदन पत्र ऋण अधिकारी ने पढ़ा और गणेशदत्त की ओर गौर से देखते हुए पूछा- ‘अनुभव कितना है?’
‘जी वही लेने तो आए हैं.’ गणेशदत्त बोले. ‘क्या!’  अधिकारी चौका. ‘कितने वर्ष हो गए ड्राइवरी करते करते?’
‘जी यही बीस-पच्चीस वर्ष हो गए होंगे.’ गणेशदत्त को लगा, शायद अधिकारी चूहे की सवारी का पूछ रहा है.
‘लाइसेंस है गाड़ी चलाने का? उसकी कॉपी लाओ और दिखाओ.’ अधिकारी ने उनका आवेदन पत्र फाइल करते हुए कहा और गणपति की मूर्ति बनाने के लिए करजा मांगने आए दूसरे व्यक्ति से बात करने लगा.

गणेशदत्त बैंक अधिकारी के प्रश्नों से थोड़ा घबरा गए. दिनेश के पास जाकर उन्होंने सारी बात बताई. दिनेश ने उन्हें सुझाया कि पहले उन्हें चार पहिया व्यावसायिक वाहन चलाना सीखना पड़ेगा, फिर आरटीओ से प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा. इसमें कम से कम चार-पांच माह लग जायेंगे.
गणेशदत्त ने टेंपो के लिए ऋण लेने का विचार त्यागा और हलवाई की दुकान डालने की सोचने लगे. आराम से गद्दी पर बैठेंगे. कारीगर लड्डू बनाता रहेगा, बेचेंगे और इच्छा हुई तो स्वयं भी ग्रहण कर लेंगे.

गणेशदत्त पुनः  नए सिरे से बैंक के चक्कर लगाने लगे. अर्जी बदली और मिठाई की दुकान के लिए आवेदन कर दिया. गणेशदत्त का डील डोल देखकर बैंक अधिकारी को उनका मिठाई का धंधा जम गया और वह किसी व्यक्ति की जमानत पर कर्जा देने के लिए तैयार हो गए.
गणेश दत्त का सिवाए दिनेश के यहाँ और था ही कौन !  वह दौड़ते हुए उसी के पास गए और सारी बात बताई. दिनेश अनुभवी था वह उन्हें जमुनालाल जमानत वाले के पास ले गया जो सिर्फ यही धंधा करता था. जमानत के बदले वह ऋण राशि का दस प्रतिशत  कमीशन प्राप्त करता था. गणेशदत्त पहले तो सकपकाए लेकिन बाद में तैयार हो गए क्योंकि इसके अलावा उनके पास अन्य कोई विकल्प भी नहीं था.

वह बहुत खुशी खुशी जब बैंक में कागजातों पर दस्तख़त करने पहुंचे तो अधिकारी महोदय ने बहुत ही सहजता से कह दिया-  ‘क्षमा करना, धंधों के लिए ऋण देने का हमारा सालाना लक्ष्य  पूरा हो चुका है. कृपया आप अगले वर्ष तशरीफ़ लाएं.’ गणेशदत्त पर जैसे घड़ों पानी गिर गया.

तभी  मेरे चेहरे पर पानी की बौछार पड़ी और कानों में मां का स्वर- ‘उठ बेटा, क्या अभी तक सोया पडा है. आज गणेश चतुर्थी है जा बाजार से गणपति की मूर्ति लेकर आ और पूजा कर. शाम को पड़ोस वाले जैन साहब से बैंक का फॉर्म भी भरवा लेना. वे बैंक में ही हैं. कल लोन हेतु  साक्षात्कार के लिए तुझे ‘लोक सेवा बैंक’ भी तो जाना है.’ माँ लगातार बोलती चली गई.

मैं उठा और दीवार पर लगी गणेशजी की तस्वीर को नमस्कार किया. मुझे गणेशजी कुछ थके थके और कमजोर से नजर आए. शायद उनका वजन भी कुछ कम हो गया था.

ब्रजेश कानूनगो

503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, इंदौर-452018

ताले और चाबियां

व्यंग्य
ताले और चाबियां
ब्रजेश कानूनगो

हमारे देश में चाबी का बड़ा पुराना इतिहास रहा है। चाबी ही क्या चाबी से जुड़ी हर वस्तु बड़ी महत्वपूर्ण रही है,मसलन चाबियों का गुच्छा, ताला, वह खूंटी जिस पर गुच्छा टांगा जाता है। मेज की वह दराज जिसमें चाबियां रखी जाती हैं। सास की साड़ी का पल्लू जिसमें  गुच्छा बांधा जाता है या बहू की कमर,जिससे टकरा टकरा कर गुच्छे में बड़ी रोमांचक और रोमांटिक झनझनाहट होती है।

बगैर चाबी  के ताला बेकार है। ताला शरीर है चाबी आत्मा। बगैर चाबी का ताला शव के समान है। चाबी के संपर्क से उसमें संचार संभव है। जीवन संभव है। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती या प्रभुजी तुम ताला हम चाबी। एक ही बात है एक ही अर्थ है।

ताला पड़ना विराम  की स्थिति है। अक्ल पर ताला पड़ता है।कारखानों पर ताला पड़ जाता है। जेलों पर ताला पडा रहता है। गोदामों पर लग जाता है।चाबियां नहीं मिलती वक्त पर, तो आदमी मूर्खताएं करता है। उत्पादन ठप हो जाता है। निरपराध कैद रहते हैं बरसों। शकर और अनाज चूहे खा जाते हैं।

चाबी का इस्तेमाल गति प्रधान क्रियाओं की उत्पत्ति का सबब होता है। चाबी घुमाते ही आदमी सरकार बदल डालता है। करघे फिर  चलने लगते हैं । विचाराधीन कैदी रिहा हो जाते हैं। शक्कर और अनाज खुले बाजार में बिकने लगता है।

चाबियां मोड़ लेती हैंपहले खुद मुड़ती है, फिर ताले के  लीवरों को मोड़ती है।फिर कहानियां मुड़ जाती है।बेमेल बात करके मैं लेख को मोड़ नहीं  दे रहा। जी हां, चाबियां कहानियों को मोड़ देती हैं।चाबियों की वजह से बंगला साहित्य में  सास अपनी बहू को चाबियों का गुच्छा सौंप कर कहानियों को बड़ा दिलचस्प मोड़ देती आई है। कहानियों का घुमाव दिलचस्पी और रोमांच उत्पन्न करता है। चाबियां नहीं तो मोड़ नहीं, रोमांच नहीं। बगैर रोमांच के जीवन निस्सार है।

चाबियां, आनंद भवन के द्वार खोलती हैं। आनंद बहुत आवश्यक है आदमी के लिए। आनंद में आदमी भूल जाता है कि भूख क्या होती है। आग  क्या होती है। दंगे क्या होते हैं। भ्रष्टाचार  किस चिड़िया का नाम है।कश्मीर में क्या हो रहा है, पंजाब का दर्द क्या है। पेट्रोल  और दालें इतनी महंगी क्यों हैं । कालाधन देश में आता क्यों नहीं। किसान आत्महत्याएं  करते क्यों हैं। पुल समय पर बनते क्यों नहीं, जो बने हैं वे जल्दी क्यों ढह जाते हैं। और भी बहुत कुछ भूल सकता है आदमी आनंद में। आनंद के इसी इंतजाम के लिए सरकारें मतदाता के मन के निराश तालों में आश्वासनों और घोषणाओं की नक्काशीदार चाबियां घुमाती  रहती हैं।जैसे ही ताला खुलता है,जनता डूब जाती है आनंद सागर में। भूल जाती है वह सब, जो उसके लिए भूल जाना ही आवश्यक बना दिया जाता है।

हरेक ताले की  विशेषता होती है कि वह अपनी सही चाबी से ही खुलता है। गलत ताले  में सही चाबी, या  सही ताले में गलत चाबी, दोनों ही स्थितियां कष्ट कारक होती हैं। गलत चाबी के प्रयोग से गले में हड्डी अटकने जैसी स्थिति हो जाती है। न ताला खुलता है न चाबी बाहर आ पाती है। या तो ताला तोड़ो या चाबी काटो। फिर ताला अरुणाचल का हो, पंजाब का हो, कश्मीर का हो या कर्नाटक का। अलीगढ़ का हो या अयोध्या का । वह नहीं खुलेगा सो नहीं खुलेगा। पचते रहो।घुमाते  रहो चाबी ताले के अंदर।वह नहीं खुलेगा तो नहीं खुलेगा। चाबी धारक को लगता रहेगा कि अब खुला अब खुला। हिंदी के ताले में अंग्रेजी की चाबी ऐसी ही अटकी पड़ी है।न ताला खुल रहा है न चाबी निकल पा रही है।

लंबे समय से लगा ताला तो अपनी चाबी से भी नहीं खुल पाता कभी कभी।  जंग लग जाता है उसमें। वैसे जंगी ताले रहे ही कहां अब , जिसमें जंग न लगती हो।पांच-पांच सालों तक ताले पड़े रहते हैं नागरिकों के बुनियादी हकों पर। घोषित और अघोषित आपातकालीन ताला डाल दिया जाता है कभी भी। लंबे समय तक बंद तालों के लीवर इतनी जंग खा जाते हैं और इतनी मजबूती से जुड़ जाते हैं की सही चाबियां लगाने के बावजूद नहीं खुलते और खुल जाते हैं तो बाद में अपनी असली चाबी से भी पुनः क्रियाशील होने से इनकार कर देते हैं।ये ताले इतिहास के कूड़ेदान में आसानी से खोजे जा सकते हैं।

ताले और चाबी का प्रयोग इतना आसान भी नहीं है जितना इसे समझा जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ‘भोपू बजाने की कला’ के विलुप्त होने का खतरा महसूस करते थे,  मैं भी आशंकित हूं कि डिजिटल लॉकिंग के आधुनिक समय में हमारे पारंपरिक तालों और दिलकश चाबियों को लोग कहीं  भुला न बैठें।


ब्रजेश कानूनगो 
503,
गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क,कनाड़िया रोड, इंदौर-452018 


Monday, September 12, 2016

सपने में भोलेनाथ

व्यंग्य कथा
सपने में भोलेनाथ
ब्रजेश कानूनगो

ओलिम्पिक में भारत के निराशाजनक प्रदर्शन से मन बहुत उदास था. सवा सौ करोड़ लोगों के मुल्क का ब-मुश्किल सवा-दो पदक हासिल करके लौटना काफी नहीं था. खिलाड़ियों से ज्यादा वहां अन्य हस्तियों का योगदान कहीं अधिक रहा था, गैर खिलाड़ियों ने ओलिम्पिक में हिस्सा लेकर उल्लेखनीय ख्याति अर्जित कर ली थी. देशवासी अपनी निराशा और  खिसियाहट, पदक अर्जित करने वाले जांबाज खिलाड़ियों के भव्य और जोशीले स्वागत के परदे में छुपाने की कोशिश में लगे थे. इसमें सफलता भी बहुत हद तक मिल भी रही थी. इन सबके बीच एक दिन अचानक सपने में बाबा भोलेनाथ प्रकट हो गए और बोले-‘वत्स! भारत में भी ओलिम्पिक की मशाल जलाओ और अपने खुद के देसी ओलिम्पिक महा खेलपर्व की शुरुआत करो!’

पहले तो मैं चौंका,थोड़ा घबराया भी लेकिन हिम्मत जुटाकर बोला- ‘भगवन, सन बयासी के ‘अय्याशियाड’ और हाल ही के ‘कामन वेल्थ’ खेलो के बाद से अब तक कमजोरी है, हेल्थ के बुरे हाल हैं और आप हैं कि ओलिम्पिक करवाने का आदेश दे रहे हैं.’

मैंने किसी सरकारी बाबू की तरह संभावित कष्ट को टालना चाहा. परन्तु भोलेनाथ अड़े रहे. मैंने ओलिम्पिक नहीं करवाने के पक्ष में अनेक तर्क दिए, लेकिन उन पर जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा था. मैंने कहा-‘बाबा, अभी हमें और भी बहुत काम करने हैं, ओलिम्पिक वगैरह तो बाद में होता रहेगा. भ्रष्टाचार को समाप्त करना है, गंगा की सफाई करनी है, डिजिटल इंडिया के लिए ओप्टिकल  फायबर बिछाना है, बेरोजगारों को ‘निपुण’ बनाना है, उन्हें रोजगार देना है. जनता को ‘मूल्यवृद्धि संवेदना’ और ‘महंगाई अनुभूति’ की मानसिकता से मुक्त करना है, काले कुबेरों को जेल में डालना है, स्वच्छता का बड़ा अभियान अभी हमारे हाथ में है, शौचालय भी अभी बहुत बनाए जाना बाकी रह गए हैं. इतने सारे महत्वपूर्ण कार्यों के बीच ओलिम्पिक को प्राथमिकता में नहीं रखा जा सकता प्रभु!’

‘ये कोई बड़ी बातें नहीं है, सब होता रहता है, अगर इतनी ही समस्या होती तो यह देश अब तक चल नहीं रहा होता, जनसंख्या भी इतनी विक्सित और विशाल नहीं हो जाती, सब कुशल-मंगल है यहाँ. लोग जीवित हैं, राष्ट्रीय आय और विकास दर के साथ साथ औसत आयु भी बढ़ गयी है, निराशा तुम्हारे मन में है बस, यदि बेरोजगारी की समस्या होती तो यह मुल्क अब तक खाली हो गया होता.’ महादेव ने किसी वित्तमंत्री की तरह बात को घुमा दिया.

‘लेकिन आप भारत में ओलिम्पिक करवाने पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं? दूसरे देश ओलिम्पिक  करते तो रहते हैं, हमारे खिलाड़ी वहां जाते ही हैं, थोड़ा-बहुत पदक वगैरह भी ले आते हैं, आपकी कृपा से. अब हम गरीबों को बड़े कष्ट में क्यों डालना चाहते हैं?’ मैंने महादेव से जानना चाहा. ‘वैसे भी हमारे यहाँ इतनी आसानी से कोई काम होता नहीं है. संसद में पहले किसी भी प्रस्ताव को पारित कराना होता है. सरकारें बदल जाती है पर प्रस्ताव पेंडिंग बना रहता है. ओलिम्पिक कोई सांसदों-विधायकों के वेतन वृद्धि आदि जैसी मामूली बात नहीं है कि सहजता से ओलिम्पिक-प्रस्ताव पारित करवाया जा सकता.’ मैंने आगे कहा.

‘जो होना होता है वह हो ही जाता है वत्स, अब ‘जी एस टी’ बिल को ही देखो, अपने-अपने समय हर विपक्ष इसका विरोध करता रहा , आखिर अब तुमने इसे अंगीकार कर ही लिया है. इसी तरह ओलिम्पिक प्रस्ताव को आगे बढाओ.’ भगवन बोले.

‘प्रभु, प्रस्ताव पारित होने के बाद भी उसे जमीन पर लाना, उसका क्रियान्वयन करना कहाँ इतना आसान होता है. आप तो जानते ही हैं, यह देश बहुत विविधता से भरा है, यहाँ की समस्याएं भी बड़ी विविध हैं. हर नेता ओलिम्पिक अपने चुनाव क्षेत्र में करवाने का प्रयास करेगा. कोई राज्य अप्रत्यक्ष रूप से धमकी दे सकता है कि ओलिम्पिक अमुक स्थान पर नहीं हुए तो वह शेष देश को बिजली अथवा अपनी नदी का पानी देना बंद कर देगा. बहुत समस्याएं खडी हो जायेंगी प्रभु! लोग रेल की पटरियां उखाड़ देंगे, बस डिपो में खडी अन्य राज्यों की बसों में आग लगा देंगे.’ मैंने चिंता व्यक्त की.   

‘जो भी हो,  यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है, हमारी प्राचीन नीतियाँ ओलिम्पिक करवाने की रहीं है. हम अतीत में ओलिम्पिक करवाते रहे हैं. उस परम्परा को तुम्हे पुनर्जीवित करना है.’ कहते-कहते वे थोड़ा क्रोधित हो गए और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोलना चाहा, मैं डर गया और हडबडा कर नींद से जाग गया.

स्वप्न तो मैं हमेशा से देखता रहा हूँ. सोते हुए नींद में सपने आते हैं और दिन में फुरसत में बैठता हूँ तो खुली आँखों के सामने ‘विचार-स्वप्न’ शुरू हो जाते हैं. लेकिन ऐसा विचित्र सपना शायद पहली बार देखा था. एक संतश्री की आध्यात्मिक दूकान से खरीदी ‘स्वप्न-विचार’ नामक पुस्तक में इसका फल और अर्थ देखना चाहा तो उसमें भी पशु, दैत्य, दानव, ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में विवरण अवश्य प्राप्त हुआ, मगर भोले बाबा द्वारा ओलिम्पिक करवाने संबंधी आदेश के बारे में कोई विचार या संकेत वहां उपलब्ध नहीं हुए.

मुल्ला की दौड़ मज्जिद तक, मुख्यमंत्री की दौड़ हाईकमान तक और मेरी दौड़ परममित्र साधुरामजी तक. स्वप्न-रहस्य का पर्दा उठना साधुरामजी से घनघोर ‘विमर्श’ के बाद ही संभव था. एक तरह से वे ‘विमर्श’  विशेषज्ञ हैं. जैसे महान कवि, कविता को औढता-बिछाता है, कविता ही उसका जीवन होता है उसी तरह साधुरामजी ‘विमर्श’ में रहते है, ‘विमर्श’ के लिए जीते हैं, ‘विमर्श’ करना उनकी प्रमुख विधा है. उनके जोरदार विमर्श के बीच से नए अर्थ निकल आते हैं. किसी ने बताया भी था कि साधुरामजी का जन्म हुआ तब दिल्ली की संसद में, राज्य की विधान सभा में और अस्पताल के लेबर रूम में डॉक्टरों के बीच भयंकर बहस छिड़ी हुई थी.
  
बहरहाल, मैं अपना विषय लेकर उनके पास पहुंचा ताकि स्वप्न रहस्य का सही-सही अर्थ जाना जा सके. मैंने अपनी जिज्ञासा साधुरामजी के समक्ष रखी तो वे बोले-‘ हमेशा कहता हूँ तुम्हे! खूब पढो और विश्लेषण करो, फिर बहस करो उस पर, लेकिन अपने आपको बचा जाते हो बहस करने से, कतराते हो इसीलिये ऐसी समस्याएँ सामने आ जाती है तुम्हारे.’

‘अब जो भी हो, इस स्वप्न भार से मुझे मुक्ति दिलाइये आप. भोलेनाथ ने ओलिम्पिक भारत में करवाने को क्यों कहा? जब तक मुझे समाधान नहीं होगा, मैं नया सपना नहीं देख सकूंगा. जैसे आप बगैर विमर्श के नहीं रह सकते वैसे मैं बगैर सपना देखे नहीं रह सकता. एक आम आदमी कर भी क्या सकता है सिवाय सपनों को ओढ़ने-बिछाने के..’ मैंने साधुरामजी से निवेदन किया.

‘ठीक है, ठीक है.’ साधुरामजी बोले-‘ भगवान शंकर के सपने में प्रकट होकर भारत में ओलिम्पिक करवाने के आग्रह के पीछे अनेक कारण हो सकते हैं. हो सकता है वे भारत के कृषि प्रधान की बजाए राजनीति प्रधान राष्ट्र में रूपांतरित हो जाने से बोर हो गए हों और उसे एक नई दिशा में मोड़ना चाहते हों ‘खेल प्रधान’ बनाना चाहते हों, ताकि खेलों के माध्यम से थोड़ा दृश्य परिवर्तन हो सके.’

‘मगर भगवान भोले हमारे देश की वर्त्तमान स्थितियों से चिंतित थोड़े हैं, वे तो अब आश्वस्त हैं कि देश के लोगों का धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास बढ़ा है, सब कुछ ठीक चल रहा है. उन्होंने तो सपने में यह कहा था कि ओलिम्पिक करवाना हमारी परम्परा रही है और यहाँ ओलिम्पिक जैसे खेल होते रहे हैं.’ मैंने स्पष्ट किया.

‘तो फिर भोलेनाथ का आशय सीधे-सीधे हमारे पौराणिक ओलिम्पिक से था और वे ओलिम्पिक आयोजन से प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने की कामना से तुम्हारे सपने में प्रकट हुए होंगे.’ साधुरामजी ने समझाया.
‘लोग कहते हैं कि हॉकी का जन्म हिन्दुस्तान में हुआ था, दुर्दशा होने के पहले तक हमने  ओलिम्पिक और एशियाई खेलों में बहुत नाम कमाया, पदक हासिल किये, लेकिन ओलिम्पिक करवाना हमारी परम्परा रही हो, ऐसा कभी नहीं सुना.’ मैंने अपनी अज्ञानता बहुत संकोच के साथ साधुरामजी के सामने रखी.

‘अध्ययन और विश्लेषण के अभाव में तुम्हारे भीतर अज्ञानता का अन्धेरा छाया हुआ है मित्र!, दरअसल, प्राचीन और आधुनिक ओलिम्पिक खेलों के पहले ही हमारे यहाँ ‘पौराणिक ओलिम्पिक खेल’ आयोजित होते रहे हैं. तीरंदाजी में अर्जुन और एकलव्य,भारोत्तोलन और डिस्क थ्रो में श्रीकृष्ण, ऊंची और लम्बी कूद में हनुमानजी, कुश्ती में भीम और दुर्योधन आदि अपने समय के नामी खिलाड़ी रह चुके हैं.’ साधुरामजी ने कहा. ‘और तो और जन-कथाओं से संकेत मिलता है कि गणेशजी संसार के पहले पदक विजेता थे. वे एक अच्छे एथलीट थे. उनकी प्रखर बौद्धिकता के कारण उनका खिलाड़ी पक्ष बहुत कम सामने आ पाया. जो थोड़ा बहुत दादी नानियों की ज़ुबानी सुना जाता रहा है, उसके अनुसार बालक गणेश बड़े अच्छे वेटलिफ्टर और धावक थे.’ साधुरामजी ने आगे बताया.

‘किन्तु एक अच्छा वेटलिफ्टर एक धावक कैसे हो सकता है? मैंने अपनी शंका व्यक्त की.
‘तुम्हारा प्रश्न बहुत अच्छा है.’ साधुरामजी ने वरिष्ठ विचारक की तरह आँखें झुकाते हुए कहा-‘सचाई यही है कि वेटलिफ्टर होने के बावजूद स्वर्ण पदक उन्हें दौड़ने के लिए ही प्राप्त हुआ था.’ साधुरामजी के भीतर का डिबेटर सन्दर्भ, प्रसंग , उदाहरण और तर्कों  के साथ शुरू हो गया, कहने लगे- ‘कार्तिकेय और गणेश, दोनों भाई  खेलों में विशेष रूचि रखते थे. इधर गणेश वेटलिफ्टिंग का अभ्यास करते, उधर कार्तिकेय मेराथन के लिए दौड़ने की प्रेक्टिस किया करते. कुछ समय बाद बच्चों के प्रोत्साहन हेतु भगवान भोलेनाथ ने ओलिम्पिक का आयोजन किया. यह गणेश जी और वेट लिफ्टिंग खेल का दुर्भाग्य था कि गणेशजी के भारवर्ग में कोई  प्रतियोगी नहीं था. अतः वह स्पर्धा रद्द कर दी गयी. इसीलिए पुरानों में इसका कोई उल्लेख भी नहीं मिलता. गणेशजी को अंततः विवश होकर भाई के साथ मेराथन में हिस्सा लेना पडा. कहा जाता है कि उन दिनों मेराथन के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता था. गणेशजी इस प्रतियोगिता में अपनी सामर्थ्य भली प्रकार जानते थे. अपने शरीर के भार को लिए-लिए  पृथ्वी का चक्कर लगाने की बजाए ‘माता-पिता’ का चक्कर लगाकर खेलों में विजेता बने और ओलिम्पिक का पहला पदक प्राप्त किया. गणेशजी का दावा था कि रेंट्स तो पूरी सृष्टि से भी बड़े होते हैं. उनकी परिक्रमा करना पृथ्वी की परिक्रमा करने ज्यादा श्रेष्ठ है. बुद्धि कौशल में गणेशजी के आगे कौन टिक सकता था. निर्णायकों को अपना निर्णय गणेशजी के पक्ष में देना पडा. 
ओलिम्पिक में हमारा स्वर्णिम इतिहास रहा है. शायद तुम्हारे सपने में भोलेनाथ की यही मंशा रही होगी कि हम अपने भारतवर्ष में ओलिम्पिक खेलों का पुनः आगाज करें.’ साधुरामजी ने विमर्श का समापन–सा कर दिया था.

सोच रहा हूँ, भारत सरकार के पोर्टल पर बाबा भोलेनाथ के आदेश के बारे में एक प्रस्ताव आज ही पोस्ट कर दूं. क्या ख़याल है आपका !
  

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018



                  

Sunday, September 11, 2016

सफ़र में समाधि

व्यंग्य
सफ़र में समाधि
ब्रजेश कानूनगो

अर्जुन जब निशाना लगाता था तब उसे सिर्फ चिड़िया की आँख नजर आती थी. अर्जुन योगी था और योगी जब ध्यान लगाता है तो उसे सिवाय अपने लक्ष्य के कुछ और नजर नहीं आता. उसका दिमाग शून्य में पहुँच जाता है. अर्जुन का लक्ष्य उस समय चिड़िया की आँख थी, जैसे सिद्धार्थ का लक्ष्य सत्य की खोज था.

एक दिन सफ़र करते हुए हम भी योगी हो गए. हमारा दिमाग शून्य में पहुँच गया. वहां केवल एक लक्ष्य, एक सत्य बचा रहा –कंडक्टर महोदय से टिकट के बाद बचे हुए पैसे प्राप्त करना. हम तीन व्यक्ति थे, मैं, पत्नी और हमारी माताजी, एक ऐसे बस स्टॉप से बस में चढ़े थे जहां पर यात्रा टिकट खिड़की से नहीं मिलता था. चलती हुई बस में कंडक्टर से हमने तीन टिकट प्राप्त किये और बदले मे पांच सौ रुपयों का एक नोट थमा दिया. टिकट के बाद बचे हुए रुपयों को प्राप्त करने के लिए हम उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखने लगे जैसे कोई बच्चा अपने पापा को टॉफी का रैपर खोलते देखता है. मगर कंडक्टर महोदय बगैर हमारी ओर ध्यान दिए आगे बढ़ गए.

हमने सोचा, कुछ देर में वे शायद लौटते हुए बचे हुए दो सौ रुपये लौटा देंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ. वे पिछली सीट से नए यात्रियों के टिकट बनाते हुए सबसे आगे की सीट तक पहुँच गए. जब-जब वे हमारी सीट के नजदीक से गुजरते, पत्नी की ख़ूबसूरत कोहनी हमारी कमर में बरछी की तरह चुभती. टिकटें बनाकर वे आराम से अपनी सीट पर जा विराजे और सिगरेट सुलगाकर उसका धुँआ बस में लिखे वाक्य ‘धूम्रपान वर्जित है’ पर उड़ाने लगे.

अब हमें न तो बस की खिड़की के बाहर की हरियाली का आभास हो रहा था और न ही पचास रुपयों में खरीदी चिकनी और दर्शनीय पत्रिका के पन्ने पलटने को मन कर रहा था. हम अर्जुन हुए जा रहे थे. हमें सिर्फ कंडक्टर का रुपयों वाला बैग नजर आ रहा था. बैग में कंडक्टर का हाथ प्रवेश करता और वापिस निकलता तो उसमें कुछ नोट होते. हमारी आँखें खुशी से चमक उठतीं. कंडक्टर नोटों की तह करके गड्डी बनाने लग जाता. हम अपने आपको दिलासा देने लगते कि शायद हिसाब मिलाकर वह हमारे बचे हुए रूपए लौटा देगा. परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ. नोटों की गड्डी बनाकर, रबर बैंड लगाकर उसने पुनः बैग में डाल लिया और धुंए के छल्ले बना-बनाकर उनमें अपनी तर्जनी डालने लगा.
अचानक वह अपनी सीट से उठा. हमें लगा, अब शायद यात्रियों के पैसे लौटाने लगेगा. लेकिन उसकी उंगली ऊपर नीचे होने लगी. वह यात्रियों की गिनती कर रहा था.
हमारी अगली सीट पर बैठे ग्रामीण के सब्र का बाँध जब टूट गया तो उसने कंडक्टर से अपने बचे हुए पैसे मांग लिए. लेकिन कंडक्टर ने उसे ऐसे डपट दिया जैसे वह महंगाई भत्ते की अतिरिक्त किश्त मांग रहा हो.
‘’लिख दिया है टिकट पर, उतरते समय ले लेना.’ बतर्ज एक किश्त स्वीकृत कर दी है, प्राविडेंट फंड में जोड़ दी है ,रिटायरमेंट पर ले लेना.

हमने कंडक्टर की नज़रों से बचाकर जेब से टिकट ऐसे निकाले जैसे कोई परीक्षार्थी इम्तिहान के समय चिटें निकालता है. सचमुच उनमें से एक टिकट पर पांच सौ बटे तीन लिखा था. हम मन ही मन प्रसन्न हुए, जैसे बम विस्फोट के समय चौराहे पर न रहे हों. अच्छा हुआ हमने पैसे नहीं मांगे वरना अगले यात्री की तरह अपमानित होना पड़ता. संतोषी सदा सुखी.

हम कंडक्टर की आँखों में आँखें डालकर पुनः मुस्कुराने लगे, इस आशा से कि शायद दुष्यंत को शकुन्तला की याद आ जाए, लेकिन दुष्यंत पुनः अपनी सीट पर जा बैठा और बस से नियमित सफ़र करने वाली शकुन्तलाओं से गुटनिरपेक्ष चर्चा करने लगा.

हमारा दिमाग सिवाए लौटाए जाने वाले पैसों के अतिरिक्त कुछ नहीं सोच पा रहा था. हम अर्जुन हुए जा रहे थे. कहीं ऐसा न हो कि गंतव्य पर हम बगैर पैसे लिए ही उतर जाएँ. कहीं भूल न जाएँ, इस भय में हम सारा संसार भूल चुके थे. ताजमहल कहाँ है, प्रधानमंत्री  कौन है, हमारे पास कौन बैठा है, कुछ याद नहीं रहा. याद सिर्फ यह रहा कि कंडक्टर से दो सौ रुपये प्राप्त करना है.

अचानक वह फिर उठा और हमारी ओर ही आने लगा. हम फिर से उसकी नज़रों से नजरें मिलाने लगे. वह हमारी सीट के पास आकर खडा हो गया. बैग में हाथ डाला, एक सौ रुपयों का नोट निकाला और पीछे वाली सीट पर बैठी महिला की ओर बढ़ा दिया. ऐसा लगा ’लक्ष्मी सुपर बम्पर लाटरी’ का पहला पुरस्कार एक नंबर पीछे वाले टिकट पर खुल गया हो.

मैंने सोचा, मान लो ऐसी ही किसी यात्रा में बस का अपहरण हो जाए और डाकू लूट लें तब यात्री अपने पैसे वैधानिक रूप से किससे वसूल करने की पात्रता रखता है? आशा है दूरदर्शन  का ‘कानूनी सलाह’ कार्यक्रम इस प्रश्न का उत्तर जरूर दे सकेगा.

चार घंटों के सफ़र में क्या हुआ, बस किन सुरम्य रास्तों से होकर गुज़री, मैं कुछ नहीं बता सकता क्योंकि मैं उस समय समाधि की स्थिति में पहुँच गया था. अपने सत्य की तलाश में जुटा था – ‘ऐसी कौन-सी बात है जो कंडक्टरों को बचे हुए पैसे तुरंत लौटाने से रोकती है?’ प्रश्न अभी तक अनुत्तरित है. बेताल बनने पर राजा विक्रमादित्य के कंधे पर चढ़ कर उनसे इसका उत्तर जरूर पूछूंगा. शायद तब पता चल पाए.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

   

Saturday, September 10, 2016

हिन्दी और मेरा आलाप


हिन्दी और मेरा आलाप 
ब्रजेश कानूनगो

यही वह समय  है जिसमें सहजता से यह सुविधा उपलब्ध हो जाती है कि हम भी अपना राग आलाप सकें। ऐसा नही है कि जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वह पहले नही कही जा सकती थी । लेकिन आमतौर पर सितम्बर में मौका भी होता है और दस्तूर भी होता है। यही वह समय होता है जब हर कोई हिन्दी को लेकर चिंतित हो उठता है। इस वक्त हिन्दी की फिक्र करनेवालों के कोरस में अक्सर यह खतरा हमारे सामने  आ खडा होता है कि कहीं हमारी आवाज दब कर न रह जाए। फिर भी मैं राजभाषा के इस राष्ट्र व्यापी देश राग में अपना अक्खड सुर भी लगाना चाहता हूँ।

राजभाषा का मुकुट पहनकर भी हमारी हिन्दी की आज जो दशा है, वह किसी से छुपी नही है। अभी पिछली यूपीए सरकार के समय की ही बात है. वह किस्सा शायद ही कोई भूला होगा जब देश के कानून मंत्री सीबीआई  रिपोर्ट की अंग्रेजी सुधारने के चक्कर में अपना मंत्री पद गंवा बैठे थे। अब यदि रिपोर्ट हिन्दी में आई होती तो भला क्योंकर मंत्रीजी से सुधरवाने की नौबत आती, विभाग का हिन्दी अधिकारी ही उसकी हिन्दी ठीक कर देता। पर होनी को कौन टाल सकता है। अंग्रेजी महारानी का राज ऐसे ही समाप्त थोडे हो जाता है। वर्षों पहले बोए अंग्रेजियत के बीजों के पल्लवित-पुष्पित होकर फल देने का शानदार समय अब आ ही गया है।

यह वह समय है जब हिन्दी स्वयं अंग्रेजी परिधानों में सुसज्जित होकर प्रस्तुत होने को लालायित दिखाई देने लगी है । किसी हिन्दी अखबार या पत्रिका को उठाकर एक पेंसिल से अंग्रेजी शब्दों पर गोले लगाते जाएँ, सच्चाई आपके सामने होगी । जो शब्द चिन्हित होने से बचेंगे  उनमें से भी अधिकतर ऐसे होंगे जिन्हे आपने हिन्दी का समझकर छोड दिया था।

आजाद हिन्दुस्तान में अपनी सुविधा से हिन्दी लिखने की सबको आजादी है। जो थोडा बहुत लिखा जा रहा है, उसमें व्याकरण, वर्तनी की किसी को परवाह नही है। जो चलन में है वही सही है। स्कूली शिक्षकों तक को बतानेवाला कोई नही कि कहाँ अल्पविराम लगेगा और कहाँ अनुस्वार। कम्प्यूटर प्रचालकों ने जो सुविधानुसार टाइप कर दिया, वही प्रचारित होकर मानक बन जाता है।

सब जानते हैं कि हिन्दी रोजगार की कोई गारंटी नही देती, अन्य कोई भाषा भी नही देती लेकिन यह भी सत्य है कि  अंग्रेजी के ज्ञान के बगैर नौकरी नही मिलती। मीटिंगों-पार्टियों में हिन्दी में बातचीत नही होती। मॉल और होटलों में सैल्सपर्सन और बेयरे स्वयं को अमरीकी, ब्रिटिश या फ्रेंच जतलांने का प्रयास करते नजर आते हैं। कुछ घंटों में,कुछ दिनों में अंग्रेजी सिखानेवालों की सुसज्जित शॉप्स हमारे मुहल्लों में खुल गईं हैं। पहले मजाक में कहा जाता था कि भारतीय व्यक्ति गुस्से और नशे में अंग्रेजी बोलता है, अब उलटा हो गया है, अंग्रेजी नही बोल पाने पर गुस्सा आने लगता है।

स्थिति तो यह है कि घर के बच्चे दादीमाँ के निर्देश पर गाय को रोटी डालने जाते हैं तो आवाज लगाते हैं-कॉउ कम..कम..और गाय दौडी चली आती है। वह विज्ञापन तो याद ही होगा आपको जिसमें एक फिल्मी सितारा मुर्गी से हिन्दी में तीन अंडे माँगता है, मुर्गी दो ही अंडे देती है, सितारा मुर्गी को डाटता है,. हिन्दी नही आती क्या? आय से थ्री.. और मुर्गी आसानी से अंग्रेजी समझकर तुरंत तीन अंडे प्रस्तुत कर देती है। गाय और मुर्गी तक ने समय के अनुसार अपने को ढाल लिया है.. अब हम जैसे हेकड लोगों को भी शायद हिन्दी का हठ छोड ही देना चाहिए। क्या खयाल है आपका।

ब्रजेश कानूनगो

503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-452018 


Friday, September 9, 2016

‘खाटों’ की लूट


‘खाटों’ की लूट ऐतिहासिक उपलब्धि है
ब्रजेश कानूनगो 

बड़ा हंगामा मचा हुआ है कि एक जनसभा के बाद उपस्थित श्रोताओं ने वहां बिछाई गईं ‘खाटो’ को लूट लिया. यह शरम की नहीं बल्कि एक अर्थ में गर्व करने की बात होना चाहिए. मेरे ख़याल से यह दुनिया में पहली और अकेली बात होगी जब हमारे लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खुले आम लूट की महानतम घटना को अंजाम दिया. यह मामूली घटना नहीं है. संख्या के लिहाज से भी और साहस के हिसाब से भी. किसी भी लूट में हजारों की संख्या में लुटेरों ने कभी इतना जोरदार धावा नहीं बोला है. और यह भी एक रिकॉर्ड ही है कि उपस्थित सामान्य लोग अकस्मात् अपराधी बन बैठे और हजारों की संख्या में वहां बिछी हुईं खाटें उठा ले गए. यह हमारी एक बड़ी उपलब्धि है. गिनीज बुक सहित दुनिया की सभी रिकॉर्ड पुस्तकों में इसे दर्ज किया जाना चाहिए.

यह समझा जाना चाहिए कि हिन्दुस्तानी समाज में खटिया की बहुत महवपूर्ण भूमिका रही है. शादी ब्याह में माता पिता द्वारा बच्चों को उपहार में खटिया देने की परम्परा रही है, ‘पलंग बैठनी’ जैसी मांगलिक रस्म होती है जिसमें नव-दंपत्ति साथ-साथ जीने-मरने का संकल्प लेते हैं. घर के बुजुर्गों के अवसान के बाद गाय, छतरी, बिछौने के साथ एक खटिया भी दान की जाती है. ऐसा कहा जाता है कि इससे बड़ा पुण्य मिलता है और मृतात्मा को सीधे स्वर्ग नसीब होता है. 
आज भी जब हम ग्रामीण क्षेत्र में जाते हैं तो सबसे पहले मेजमान आपके लिए खटिया बिछाता है, बैठाता है, फिर जलपान की व्यवस्था करता है. यदि ऐसा नहीं किया जाता तो वह बहुत अपमान जनक माना जाता है , सामने वाला कहता है ’फलां ने तो हमारे लिए खटिया तक नहीं बिछाई!’ राजनीतिक पार्टी ने अपनी रैली में जरूर यही सोंचकर जनता-जनार्दन के लिए खटिया बिछाई होंगी कि वह चुनाओं में उनके निशान वाला बटन दबाकर अपना ‘खटिया धर्म’ निभाएगी. मगर अफसोस , मतदाता खटिया ही ले उड़े.

खाटें ही निशाना क्यों बनीं ? अंततः खाटों में ऐसा क्या था जो वे उन पर टूट पड़े. खाटों के लिए एक दूसरों को घायल तक कर दिया. खाटों को लूटकर वे किसकी ‘खटिया खडी’ करना चाहते थे ? अगर खटिया खडी भी करना चाहते हैं तो वह सीधी खडी करना चाहते हैं या उल्टी खडी करना चाहते हैं. किसी के सिधार जाने के बाद जब खटिया का पैरों के तरफ वाला हिस्सा दीवार पर सटाकर ऊपर की ओर रखकर खडा किया जाता है उसे खटिया को उल्टी खडा करना कहा जाता है. उम्मीद करते हैं लुटरे मतदाता खाटों को घर ले जाकर जरूर सीधा खडा करेंगे, यही सबके हित में होगा. किसी भी राजनीतिक पार्टी के गुजर जाने की आकांक्षा करना प्रजातंत्र की मौत की तरह होगा.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -452018



ऐनक के बहाने

व्यंग्य
ऐनक के बहाने
ब्रजेश कानूनगो

पहनने की बड़ी पुरानी परम्परा रही है मानव इतिहास में. पेड़ों की छाल पहना करता था आदि मानव, लेकिन जैसे जैसे पेड़ कटने लगे, पहनने के लिए वह अन्य विकल्प तलाशने लगा. हमारे पूर्वज पेड़ों का भविष्य जानते थे, इसलिए उन्होंने खेती शुरू की, कपास का आविष्कार किया और आगे की पीढियां सूत कातकर कपडे बनाकर पहनने लगी. फिर जूते पहनना प्रारम्भ हुआ, टोपी पहनी जाने लगी. और एक दिन ‘ऐनक’ भी धीरे-धीरे पहनने की परम्परा का हिस्सा बन गई.

साधुरामजी ने भी इसी परम्परा के चलते ‘ऐनक’ धारण कर ली. पिछले दिनों आये तो मैंने देखा उनकी दिव्यदृष्टि पर नई नई ऐनक शोभायमान थी. मैंने चुटकी ली-‘साधुरामजी अब तो समाज और सरकार की विकृतियाँ आपको स्पष्ट दिखाई देती होंगी?’
साधुरामजी बगैर मेरे प्रश्न का उत्तर दिए धम्म से सोफे में धंस गए. बोले-‘पहले पानी पिलवाओ!’ वे थोड़ा परेशान नजर आ रहे थे.

मैंने बिटिया को आवाज लगाई तो वह फ़ौरन कॉलोनी के कुएं में संग्रहीत नगर पालिका प्रदत्त पानी से भरा जल गिलास में लेकर आ गयी. जब साधुरामजी पसीना सुखा चुके तो मैंने कहा-‘पहन लिया आपने भी यह गहना ?’ हालांकि उनकी आँखों को घेरे, नाक पर टिकी ऐनक मुझे स्पष्ट दिख रही थी, किन्तु दुनियादारी में कुछ मूर्खतापूर्ण प्रश्न किये जाना अच्छा माना गया है. इसलिए मुझे यह बेहूदा प्रश्न पूछते हुए भी कुछ अटपटा नहीं लगा.

‘हाँ, पहन लिया.’ मेरी मूर्खता के मुकाबले का ही उत्तर प्राप्त हुआ.
‘कितना नंबर निकला?’ परम्परागत प्रश्न. ‘’पॉइंट फाइव प्लस.’ स्वाभाविक उत्तर.
‘’ठीक किया आपने जो समय से लगा लिया, वरना नंबर और बढ़ जाता.’ मैंने किसी जानकार और अनुभवी की तरह शाब्दिक सहानुभूति दिखाई.
कुछ देर वार्तालाप इसी तरह किसी घटिया टीवी सीरियल के संवादों की तरह चलता रहा. ऐसी स्थितियों में दोनों पक्ष बातचीत की निरर्थकता को जानते हुए भी इसकी औपचारिक अनिवार्यता को समझते हैं और ठीक उसी तरह विवश होते हैं, जिस तरह परिवार के किसी सदस्य के निधन पर मातमपुरसी करने अथवा किसी बीमार के प्रति अस्पताल के पलंग के पास सहानुभूति प्रकट करते हुए होते हैं. यों कहें यह एक तरह की ‘अनिवार्य विवशताएँ’ होती हैं. फिर भी मैं ऐनक धारण के उनके इस नए अनुभव के प्रति घोर जिज्ञासु बना हुआ था.
‘यह गहना पहन कर कैसा महसूस कर रहे हैं आप?’ मैंने किसी टीवी संवाददाता की तरह उसी तरह पूछा, जैसे वह पुरस्कार प्राप्त करने वाले साहित्यकार से या किसी मैदानी नेता को मंत्री पद प्राप्त होने के बाद पूछता है.
साधुरामजी को तो विषय भर चाहिए. उनके भीतर का वक्ता विषय के इंतज़ार में उसी तरह बैचैन रहता है जैसे प्रतिपक्ष का नेता वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तुत ताजे बजट को घटिया बताने के लिए मीडिया प्रतिनिधि के इंतज़ार में रहता है. उन्होंने प्राण साहब की तरह भौंहों को चढ़ाया, संजीव कुमार की तरह कानो के कोनों को उँगलियों से छुआ और जवाहरलाल नेहरू की तरह कलाई को ठोड़ी पर टिकाते हुए, ओशो की तरह धीर-गंभीर वाणी में बोले- ‘जीवन का हर क्षण, हर घटना नया अनुभव लेकर आते हैं मित्र! ऐनक धारण की यह घटना भी कई नए पहलुओं को उजागर कर गयी है. डॉक्टर ने दवाई डालकर कुछ समय आँखों को बंद रखने को क्या कहा, तो जैसे उस छोटे-से अंतराल में नेत्रहीनों का समूचा दर्द सिमट आया मेरे भीतर. दुनिया में कोई  दूसरा ऐसा गहना नहीं हो सकता जिसे पहनने के पूर्व किसी दूसरे के दुःख का अहसास हमें होता हो.’ ‘वह कैसे?’ मैं बीच में ही पूछ बैठा.
‘जैसे सोने की चूड़ियाँ पहनने से पहले क्या यह अहसास होता है कि किसी हरिराम की बेटी पलास्टिक की चूड़ियाँ पहनकर बाप के घर से बिदा हो रही होगी. गले में कीमती चेन डालने के पहले यह कभी महसूस नहीं होता है कि अनेक औरतों के मंगलसूत्र रोजी-रोटी के इंतजाम में गिरवी पड़े होंगे या बिक गए होंगे?’ साधुरामजी के अन्दर का क्रांतिवीर जाग उठा था. मैं समझ गया था साधुरामजी ऐनक से गहने पर आ गए थे. ऐनक तो बस बहाना भर रह गया था, वे धाराप्रवाह किसी कॉमरेड की तरह बोले जा रहे थे.
‘यह कैसी व्यवस्था है,जहां एक वर्ग गहने पहनने के लिए, दूसरे के हिस्से पर अपना कब्जा जमाकर उन्हें बनवाता है और उसकी चमक से गरीबों की आँखों में चकाचौंध पैदा कर उन्हें अपराध की ओर अग्रसर कर देता है. अब अगर कोई रोटियों की खातिर, अभावों के बीच गहनों को झपटने की चेष्टा करता है तो इसमें दोष किसका है? समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ती ये आर्थिक खाइयां इसका बड़ा कारण नहीं बन बैठी हैं?’ वे जोश में बोल रहे थे, मैं निशब्द सुन रहा था.
‘लेकिन ऐनक तो ऐसा गहना नहीं है साधुरामजी.’ मैंने उनके वाक-प्रवाह में रोक लगाई.
‘हाँ, ऐनक ऐसा गहना नहीं है. यह ‘समानतावादी’ जेवर है.’  ‘वह कैसे?’ मैंने पूछा तो उन्होंने स्पष्ट किया- ‘क्योंकि इस गहने को हर व्यक्ति, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, अगड़ा-पिछड़ा, समान रूप से पहन सकते हैं.’
साधुरामजी  के इस नये ऐनक दृष्टिकोण से मैं अभीभूत था. सोंचने लगा कि ऐनक पहनने के बाद हमारे मन में विचार भी इसी तरह परिष्कृत होने लगते हैं, जैसे साधुरामजी के होते जा रहे थे. क्या बौद्धिकता का ऐनक धारण से कोई रिश्ता हो सकता है? अचानक मेरी नजरों के सामने कई महान विचारकों के वे सब चित्र घूम गए जिनमें उनके चेहरों पर मोटी-पतली ऐनकें चढी हुईं थी.
‘आप महान हो गए साधुरामजी!’ मेरे मुंह से बरबस फूट पडा.
‘वह कैसे?’ उन्होंने पूछा. ‘क्योंकि ऐनक धारण के बाद व्यक्ति महानता की दिशा में तेजी से आगे बढ़ता है. अधिकाँश महापुरुषों ने अपने जीवन काल में ऐनक धारण की हैं.’ मैंने बताया.
‘तुम्हारी बात ठीक हो सकती है मित्र! लेकिन अपनी बात को तुम यदि भौतिक धरातल से हटाकर वैचारिक दृष्टि से पुष्ट करते तो शायद उचित होता.’ उन्होंने कहा.
‘वह कैसे?’ ज़रा ठीक से आप ही समझाइये.’ मैंने अनुरोध किया.
‘वह ऐसे कि कोई भी व्यक्ति यों ही महान नहीं हो जाता है. पहले वह ‘चिंतन’ का ऐसा चश्मा धारण करता है जिससे वह सृष्टि और समाज को गहरी, अलग और सूक्ष्म दृष्टि से देख सके. इसके बाद ही वह ‘चिन्तक’ और ‘विचारक’ की श्रेणी में पहुंचता है. फिर वह इसी के प्रकाश में स्थितियों का विश्लेषण करता है,नए विचारों को जाग्रत करता है. अपने विचारों को अपने कार्यों को आगे बढाता है, दुनिया और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में उसका यह बड़ा योगदान ‘विचारधारा’ के रूप में जाना जाने लगता है.’ साधुरामजी ने स्पष्ट किया.

‘अर्थात जहां ऐनक से हमारी भौतिक दृष्टि ठीक होती है, वहीं ‘चिंतन के चश्में’ से वैचारिक दृष्टि साफ़ और प्रखर हो जाती है. एक से हम देश-दुनिया के बाह्य दृश्य देख पाते हैं जबकी दूसरे से मनुष्य और समाज के आतंरिक,परोक्ष और सूक्ष्म स्वरूप का अवलोकन संभव हो जाता है.’ मैंने उत्साहित होते हुए कहा.
‘बिलकुल ठीक कहा तुमने, लगता है तुम्हारे अन्दर भी ‘चिंतन के चश्में’ का विकास धीरे-धीरे हो रहा है.’साधुरामजी किसी आचार्य श्री की तरह मुस्कुराए और मेरे कंधे पर किसी महापुरुष की तरह हाथ फेरते हुए लौट गए.


ब्रजेश कानूनगो