Monday, February 26, 2024

मन मंदिर की घंटी और निर्माण की साधना

मन मंदिर की घंटी और निर्माण की साधना


एक सुंदर सपना मन मंदिर की घंटी बजाता रहता था कि अपना भी एक घर हो बादलों की छांव में. टेंट में तो नहीं रह रहा था,पुश्तैनी हवेली बाप दादा छोड़ गए थे. जो कबूतर खाने की तरह कालांतर में कुटुंब के लोगों में  बंट कर बीस बाय बीस के पिंजड़ों में बदल  गई.  
अपने खुद के बनाए झोपड़े का सुख अलग होता है. सो इन दिनों मैं अपना भी नया मकान बनवा रहा हूँ. जब कोई  मकान बनवा रहा होता है तब वह सिर्फ मकान ही बनवा रहा होता है. मकान के बनते कोई और काम नहीं बनते. अगर अन्य कोई कार्य किया भी जाता है तो वह सिर्फ इसलिए कि मकान बनता रहे. नौकरी करने जाते हैं तो इसलिए कि माह के अंत में वेतन मिले और हम ठेकेदार या बिल्डर को पेमेंट कर सकें. मान लीजिये कि मकान बनवाने वाला मास्टर है और वह नियमित स्कूल जाता है, तो इस विश्वास के साथ नहीं जाता कि उसके पढ़ाने के बाद छात्रों में से कोई गांधी अथवा कलाम बनेगा बल्कि इसलिए कि स्कूल जाने से उसे तनख्वाह मिलेगी और उससे एक कमरे का प्लास्टर हो सकेगा.

मकान बनाने का कार्य शुरू तो हो जाता है लेकिन समाप्त नहीं होता. मैं जानता हूँ, जिन्होंने कुछ वर्ष पहले मकान बनाना शुरू किया था वे आज तक कुछ-न-कुछ तोड़ रहे हैं, फिर बना रहे हैं. फिर तोड़ रहे हैं, फिर-फिर बना रहे हैं. यह जानते हुए कि भवन निर्माण की ऊंखली की गहराई  अंध महासागर की तलहटी की तरह असीम है, मैनें निर्माण में सर दिया है तो ईंटों और सरियों से कैसा डर !  जिसने शुरू करवाया है, वही समाप्त भी करवाएगा. भली करेंगे राम.

इस दौरान एक दिन  मित्र साधुरामजी आये बोले-‘भाई आज तो प्रेमचंद का जन्म दिन है.’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया-‘ तभी वह आज  काम पर नहीं आया.’ इस पर साधुरामजी  खिलखिला कर हँस पड़े. दरअसल महान कथाकार प्रेमचंद की बजाए मेरा सारा ध्यान अपने ठेकेदार प्रेमचंद भाटिया की ओर दृष्टिगोचर हो रहा था. ऐसा हो जाता है. जो मकान बनवा रहा होता है उसके साथ ऐसी स्थितियां अक्सर पैदा होती रहती हैं. जिसके पैरों में फटी न बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.

टीवी देखना कोई दो तीन साल पहले से छोड़ ही रखा है. वैसे यूट्यूब पर कभी कभार पुराने सीरियल और कार्यक्रम देखता रहता हूं. वहां भी मुझे जेठालाल और दया भाभी की नोंक झोक हंसा नहीं पाती, बल्कि मुझे उनके किचन की बनावट और सिंक की डिजाइन आकर्षित करती है. शिवकुमार शर्मा के इंटरव्यू के समय उनके संतूर पर कैमरा केन्द्रित होने पर मुझे कोफ़्त होने लगती है, मैं कैमरामेन से आशान्वित रहता हूँ कि वह उनके घर की बालकनी की जाली और दरवाजे की फ्रेम पर भी कैमरा घुमायेगा.यह बड़ा अच्छा रहा कि एक दिन मैंने गूगल पर भवन निर्माण विषय को सर्च कर लिया तो फेसबुक पर बिल्डिंग मैटेरियल ,खिड़कियों,जालियों, टोटियों, रंग रोगन और बिजली फिटिंग सामग्री की बाढ़ आने लगी.

अपनी गजल के वजन की बजाए मुझे छत में लगने वाले सरियों के वजन का हिसाब विचलित करता रहता है. ईपेपर और मैगजीनों के ले-आउट और पेज सेटिंग की बजाय मेरा ध्यान अपने निर्माणाधीन बाथरूम और टायलेट में सेनेटरीवेयर की सेटिंग की ओर भटक जाता है. पुराने जमाने की सोच का व्यक्ति हूं. मेरे द्वारा अधिक से अधिक दरवाजे और खिड़कियाँ रखने के आग्रह पर मेरा आर्किटेक्ट चिढ जाता है लेकिन मैं जानता हूँ इससे महंगी ईंटों और महंगी सीमेंट और प्लास्टर का थोड़ा खर्च बचाया जा सकता है. यही बचत रंग-रोगन और अन्य मदों में खर्च की जा सकती है.

यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि मकान निर्माण की इस साधना के बीच मैं यह लेख कैसे लिख पा रहा हूँ? इसका भी एक कारण है, जैसे भूखे व्यक्ति को चाँद में भी रोटी ही दिखाई देती है उसी तरह इस सृजन में भी मुझे थोड़ा सा अपना लाभ ही दिखाई दे रहा है. लेख छपेगा तो कुछ न कुछ पत्रम-पुष्पम भी प्राप्त होने की संभावना बनती है और उस से कुछ नहीं तो कम से कम दरवाजों की कुछ चिटकनियाँ  तो अवश्य ही खरीदी जा सकेगी. और यदि अखबारों की कॉस्ट कटिंग के चलते वह नहीं भी मिला तो सक्रीय साहित्यकार होने का गौरव भाव भी इस जमाने में कुछ कम नहीं.
बहरहाल, मुझे उम्मीद है मेरा सपनों का झोपड़ा भी अंततः बन ही जाएगा. जो शुरू होता है वह समाप्त भी होता ही है। भली करेंगे राम! 

ब्रजेश कानूनगो

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