Sunday, November 20, 2016

पिंकीसिंह की प्रेरक कहानी

व्यंग्य कथा
पिंकीसिंह की प्रेरक कहानी  
उर्फ़ पिक्चर अभी बाकी है..
ब्रजेश कानूनगो  

बहुत पुरानी कहावत है कि ‘समय सदा एक-सा नहीं रहता.’ देश पर भी अक्सर संकट आते रहते हैं और वह कठिन समय भी पिंकीसिंह के परिवार पर आये संकट की तरह बीत ही जाता है.  आइये आज आपको मैं वह प्रेरक कथा सुनाता हूँ.    
     
कुंवर पिंकीसिंह का जन्म दरअसल तब हुआ था जब जाना माना ‘मुद्रा परिवार’ बड़े संकट के दौर से गुजर रहा था। उसके दादा और प्रपिता के व्यवसाय करने के लायसेंस अवैध घोषित किये जा चुके थे। उस बुरे वक्त में वे दोनों अपने बच्चों को बचे खुचे कारोबार की बागडोर थमाकर हिमालय की ओर प्रस्थान  करने को उद्यत हो चुके थे।

श्रीमान मुद्राजी सदा से हमारे क्षेत्र की जानी मानी हस्ती रहे, लेकिन समय का चक्र देखिये कि एक दिन उन्हें अपने पिताजी का हाथ थामें  पितामहों का अनुसरण  करते हुए  वानप्रस्थ के लिए हिमालय की ओर कूच कर जाना पडा.

यो समझ लीजिए जब से देश आजाद हुआ तब से मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा देश-समाज में बनी रही है। आजादी के पहले भी उनके पूर्वज बड़े सम्मानित रहे। दरअसल रियासतों और राज तंत्र के जमाने से ही उनकी साख  ऐसी रही कि उनकी मात्र उपस्थिति से सारे कामकाज बड़ी आसानी से हो जाया करते।

गुलामी के दौर में फिरंगी राजा-रानियों से उनके परिवार की काफी नजदीकियां रही, जब देश आजाद हुआ तो वे गांधी टोपी धारण करने लगे। चरखा भी उन्होंने खूब चलाया। सम्राट अशोक के चिन्हों को अपने भीतर संजोया। मुद्राजी के पूर्वजों का मानना था कि महापुरुषों के विचारों की प्रेरणा से उनकी आगामी पीढियां भी विचारवान और नेक बन सकेंगी.

इस प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य भी हमारी तरह अमरता का वरदान प्राप्त करके दुनिया में नहीं आये हैं। कुछ ने लंबी उम्र पाई और कुछ असमय भी काल के गाल में समा गए। बरसों बरस पिंकी सिंह का परिवार सात्विक, पवित्र और शुद्धता का उदाहरण बना रहा.  दीपावली जैसे त्योहारों पर मुद्रा परिवार को सम्मानित करने की जैसे परम्परा ही पड़ गयी ।

लेकिन दुर्भाग्य से या किसी की कारस्तानी से इस  कुटुंब में कुछ दूसरे लोग अपने को इसी परिवार के डीएनए वाला बताकर शामिल हो गए।  इन लोगों की नीयत में ही खोट था। मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा का दुरूपयोग कर, इन नकली सदस्यों ने सब जगह अपनी गन्दगी फैलाना शुरू कर दी। भ्रष्टाचार और अराजकता के कुत्सित लक्ष्यों के साथ ये धीरे धीरे अपना काला कारोबार  स्थापित करने में संलग्न हो गए। मुद्रा परिवार के पिता और पितामह के नाम को सबसे ज्यादा बट्टा लगाने का घृणित काम इन्होने ही किया । हरेक तरह की गन्दगी और दुराचार के लिए परिवार के वास्तविक वरिष्ठ सदाचारियों पर उंगली उठने लगी।

महात्मा जी ने कभी स्वच्छता का पाठ पढ़ाया था हमें। देश की हर सरकार बापू के विचारों को अपनाने को कृत संकल्पित रहती है, न भी रहती है तो यह विश्वास दिलाने का प्रयास जरूर करती है कि वह गांधीवाद के साथ है.और वह बापू के विचारों के साथ चलती है. उन दिनों भी स्वच्छता का अभियान हर स्तर पर जारी था। शासन-प्रशासन यह जतलाने में सफल हो गया था  कि गन्दगी दूर करने में कई बार कुछ स्वच्छ सामान भी बुहारना पड़ जाता है। ऑपरेशन में कुछ स्वस्थ हिस्सा भी सम्पूर्ण शरीर को बीमारी से बचाने के लिए सर्जन अलग कर देता है। इसी अभियान में मुद्रा परिवार के दोनों बड़े सदस्यों से कारोबार का लाइसेंस छीन लिया गया। परिवार के छोटे सदस्य निरुपाय और कारोबार चलाने में अक्षम सिद्ध होने लगे.

उसी दौरान गुलाबी आभा लिए परिवार में तेजस्वी बालक का जन्म हुआ. परिवार की परंपरा के अनुसार उसे मुखिया का मानद पुश्तैनी ताज पहना दिया गया। उसकी वरिष्ठता नए होने के बावजूद सबसे अधिक हो गयी। यही थे कुंवर पिंकीसिंह. मुद्रा परिवार के चश्मों चिराग.  

वंश-परम्परा के अनुसार पिंकीसिंह को अब मुद्रा परिवार के बिजनेस को लीड करना था। लेकिन यह भी यथार्थ था कि  उसके माथे पर वरिष्ठता का ताज जरूर शोभायमान हो गया था, किंतु था तो वह कम आयु का बालक ही।

दादा और प्रपिता के पलायन के बाद कारोबार की सारी जिम्मेदारी पिता और अन्य युवा सदस्यों पर थी लेकिन वे इतने बड़े कारोबार को संभाल पाने में पूरी तरह सक्षम सिद्ध नहीं हो रहे थे। देश भर में मुद्रा परिवार का व्यवसाय बहुत  फ़ैल चुका था, बाजार और दफ्तरों में माल की  डिमांड भी असीमित बढ़ गयी थी।

यह प्राकृतिक विडम्बना थी कि  पिंकीसिंह चाहकर भी परिवार के काम में हाथ नहीं बटा पा रहा था। बालक होते हुए भी उसकी हालत परिवार के उस बुजुर्ग की तरह हो गयी थी जो गद्दी पर बैठा सब कुछ देखता तो रहता है, लेकिन कर कुछ नहीं पाता। उसका महत्व महज प्रतिष्ठा चिन्ह से ज्यादा नहीं रह पाता।

यों बालक पिंकीसिंह का गुलाबी सौंदर्य सभी को आकर्षित करता था, सब लोगों का सम्मान उसे सहज मिलता था, सब उसे गोद में उठाते, दुलारते,प्यार करते लेकिन इन सबसे मुद्रा परिवार के कारोबार में कोई ख़ास लाभ नहीं हो रहा था। हालांकि परिवार के लोग यह समझते रहे कि पिंकीसिंह के सौंदर्य के आकर्षण में ग्राहकों को लुभाया जा सकेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा था।
मुद्रा परिवार के हितचिंतक उन दिनों को याद करके बहुत दुःखी होते रहे जब पलायन के पहले पिंकीसिंह के  पितामह और उसके दादा जी कारोबार सहजता से संभाल रहे थे।

बड़े-बुजुर्गों ने सलाह दी कि जब हमारे हाथ में कुछ नहीं रहे तो हमें सब कुछ भगवान पर छोड़ देना चाहिए और भक्ति-भाव के साथ भजन-कीर्तन में लीन हो जाना चाहिए. मुद्रा परिवार ने भी यही किया. प्रभु की तस्वीर के सामने अखंड दीप जलाया और ‘जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिये’ का पारायण करने लगे.

इसे चमत्कार ही कहिये कि कुछ समय बाद उनके दिन सुधर गए. थोड़े दिनों में, थोड़ी सी परेशानी सहने के बाद फिर सब लाइन पर आने लगा। व्यवसाय में आई मंदी से परिवार आखिर उभर गया। पिंकीसिंह भी अब युवा हो चुके थे। चचेरे भाई स्लेटीसिंह ने भी उनका सहयोग करना शुरू कर दिया था।

किसी ने ठीक ही कहा है आपातकाल में हमें धैर्य कदापि नहीं खोना चाहिए। ईश्वर के यहां देर हो सकती है, अंधेर तो कतई नहीं होता, कथा भी यही सन्देश देती है।इति।।

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018












Thursday, November 17, 2016

दास्तान मुद्रा परिवार की

दास्तान मुद्रा परिवार की
ब्रजेश कानूनगो  

श्रीमान मुद्राजी हमारे क्षेत्र की जानी मानी हस्ती रहे हैं, लेकिन आज वे अपने पिताजी का हाथ थामें  पितामहों का अनुसरण  करते हुए  वानप्रस्थ के लिए हिमालय की ओर निकल पड़े हैं।
यो समझ लीजिए जब से देश आजाद हुआ तब से मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा देश-समाज में बनी हुई है। यों आजादी के पहले भी उनके पूर्वज बड़े सम्मानित ही रहे हैं। दरअसल रियासतों और राज तंत्र के जमाने से ही उनकी साख  ऐसी रही है कि उनकी उपस्थिति से सारे कामकाज बड़ी आसानी से हो जाया करते हैं।

गुलामी के दौर में फिरंगी राजा-रानियों से उनके परिवार की काफी नजदीकियां रही, जब देश आजाद हुआ तो वे गांधी टोपी धारण करने लगे। चरखा भी उन्होंने खूब चलाया। सम्राट अशोक के चिन्हों को अपने भीतर संजोया। मुद्राजी के पूर्वजों का मानना था कि महापुरुषों के विचारों की प्रेरणा से उनकी आगामी पीढियां भी विचारवान और नेक बन सकेंगी.

इस परिवार के सदस्य भी हमारी तरह अमरता का वरदान प्राप्त करके दुनिया में नहीं आये हैं। कुछ ने लंबी उम्र पाई और कुछ असमय भी काल के गाल में समा गए। बरसों बरस मुद्रा परिवार सात्विक, पवित्र और शुद्धता का उदाहरण बना रहा.  दीपावली जैसे त्योहारों पर मुद्रा परिवार को सम्मानित करने की जैसे परम्परा ही पड़ गयी ।

लेकिन दुर्भाग्य से या किसी की कारस्तानी से इस  कुटुंब में कुछ दूसरे लोग अपने को इसी परिवार के डीएनए वाला बताकर शामिल हो गए।  इन लोगों की नीयत में ही खोट था। मुद्रा परिवार की प्रतिष्ठा का दुरूपयोग कर, इन नकली सदस्यों ने सब जगह अपनी गन्दगी फैलाना शुरू कर दी। भ्रष्टाचार और अराजकता के कुत्सित लक्ष्यों के साथ ये धीरे धीरे अपना काला कारोबार  स्थापित करने में संलग्न हो गए। मुद्रा परिवार के पिता और पितामह के नाम को सबसे ज्यादा बट्टा लगाने का घृणित काम इन्होने ही किया । हरेक तरह की गन्दगी और दुराचार के लिए परिवार के वास्तविक वरिष्ठ सदाचारियों पर उंगली उठने लगी।

महात्मा जी ने कभी स्वच्छता का पाठ पढ़ाया था हमें। हर सरकार बापू के विचारों को अपनाने को कृत संकल्पित रहती है.  स्वच्छता का अभियान हर स्तर पर जारी था। गन्दगी दूर करने में कई बार कुछ स्वच्छ सामान भी बुहारना पड़ जाता है। ऑपरेशन में कुछ स्वस्थ हिस्सा भी सम्पूर्ण शरीर को बीमारी से बचाने के लिए सर्जन अलग कर देता है। इसी अभियान में मुद्रा परिवार के दोनों बड़े सदस्यों से कारोबार का लाइसेंस छीन लिया गया। कुछ समय के लिए छोटे सदस्य निरुपाय और अक्षम सिद्ध होने लगे.

इस बीच मुद्रा परिवार में गुलाबी आभा लिए एक तेजस्वी बच्चे ने जन्म लिया। सुकोमल बालक को जन्म लेते ही परिवार के सबसे बड़े सदस्य का मानद ताज पहना दिया गया, इस उम्मीद से कि जल्द ही परिवार का कारोबार सभी सदस्यों के सहयोग से फिर शुद्धता, स्वच्छता और सदाचार के साथ पुनः चल निकलेगा।

ब्रजेश कानूनगो










Monday, November 14, 2016

कतार में कवि

कतार में कवि
ब्रजेश कानूनगो

हे कवि!  तू नाहक विलाप करता है। देख जराये जो तेरे आगे और पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, जो धूप के कारण पसीना पसीना हुए जा रहे हैं, ये देश के सिपाही हैं जो देशहित में अपने धर्म का पालन कर रहे हैं। इन लोगों से कुछ सीख ले. हालांकि, ये यहां लाइन में नहीं लगते तो कहीं ओर लगना पड़ता। लाइन में लगना इनकी नियति है। ये यहाँ नहीं कतार में होते तो कहीं ओर लगे अपना पसीना बहा रहे होते. इनके पिता और पितामह, माता,भाई-बहन सब लाइन में लगते रहे हैं।

बगैर लाइन में लगे इस कलयुग में कुछ भी कार्य संभव नहीं है. लाइन में लगकर ही अराजकता से मुक्ति संभव है. लाइन बनाना अनुशासन की दिशा में बढ़ने का पहला कदम होता है. राशन की दूकान से लेकर अस्पताल की खिड़की तक, स्कूल प्रवेश की अप्लिकेशन से लेकर वोटर कार्ड और आधार कार्ड तक, मतदान केन्द्रों से लेकर मुफ्त भंडारों तक कतार में लगना जरूरी है. हे कवि! इस वृहद अनुशासन पर्व के दौरान इस महान कतार में खडा होकर यूं आँसू मत बहा. 

हे,सर्जक! इंतज़ार में ही जीवन का सच्चा आनन्द मिलता है। जो सहज यों ही मिल जाए उसमें कौन बड़ी बात हुई। तू स्वयं जानता है रचना जब तुरन्त छप जाती है और जो इन्तजार के बाद विशेषांक या  पत्रिका में छपती है इन दोनों खुशियों में कितना बड़ा अंतर होता है। इसलिए इस लाइन की महत्ता को समझ। जिसका नंबर कतार में जितने पीछे होता है वह उतना अधिक भाग्यशाली है, उनके सुख और आनन्द की तीव्रता अन्यों के लिए ईर्ष्या का विषय हो जाती है।

हे, कविवर! ये मत देख की तेरे आगे और कितने लोग हैं, ये महसूस करके खुश हो कि तुझसे ज्यादा वे कितने नसीब वाले हैं जिन्हें तेरे पीछे खड़े होने का अवसर मिला है। यह गौरव की बात है कि तेरे यहाँ इतने सारे फालोवर हैं।

फालोवर होना न सिर्फ प्रतिष्ठा की बात होता है, बल्कि यह बहुत कठिन कार्य भी होता है कि कोई हमारे पीछे पीछे चले। यह बड़ी सिद्धि का कार्य है जो तुझे यों ही उपलब्ध हो गया है। आज जो कतार क्षेत्र के अलावा प्रसिद्धि में सबसे आगे हैं, उनसे कभी जानना, अपने अनुयायी बनाने के लिए उन्होने कितने पापड बेले हैं। कई तो मात्र संवाद ही बोलते रहे कि-'जहां हम खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीँ से शुरू हो जाती है।'  तुम समझ सकते हो कि लाइन में खड़े होने जैसे  काल्पनिक संवाद के जरिये भी सुख का सागर कैसा हिलोरे मार सकता है, जबकि तुम तो वास्तविक जीवन की कतार में सशरीर खड़े हो। तनिक धैर्य रखो। छोटे मोटे कष्टों को नहीं सहोगे तो बड़ी आपदाओं से कैसे मुकाबला कर पाओगे। 

देखो कवि! जो अभी-अभी द्वार से बाहर आया है विजय पताका लहराते हुए, उसके मुख मंडल पर कितना तेज छाया हुआ है! प्रफुल्लता की इस गुलाबी आभा को ज़रा महसूस करो। इस अद्भुत आनंददायी क्षण की लंबी प्रतीक्षा के बाद जब तुम भवन से बाहर आओगे, जीवन की सच्ची कविता के आनन्द से लबालब भर उठोगे।

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018



Wednesday, October 26, 2016

स्मार्टनेस और 'इमोजी'

व्यंग्य
स्मार्टनेस और 'इमोजी'
ब्रजेश कानूनगो

पहले तो आप 'इमोजी' नाम से  कतई भ्रमित न हों। यह कोई 'सूमोजी' या 'शर्माजी' जैसा जीता जागता प्राणी नहीं है और न ही  रजवाड़ी स्टाइल का कोई अनुरोध है कि भोजन की थाली में छप्पन भोज सजाकर कोई सास अपने दामाद से कहे- 'आइये कंवर साब  "जीमोजी!".

यदि आप अभी भी एक बार में पांच दिन के लिए चार्ज हो जाने वाले सुदृढ़ चलित भाष्य यंत्र को पट्टे से लटकाकर बुशर्ट की ऊपरी जेब में रखकर धडकनों को सुनते हैं तो आप ‘इमोजी’ को ठीक से समझ नहीं पाएंगे।

'इमोजी' को समझने और उसके संग-साथ के लिए आपको थोड़ा स्मार्ट होना पड़ेगा। बाजार भी यही चाहता है कि आप पुराने को पितामह मानकर ‘मार्ग दर्शक’ का सम्मान दें और उसे  शो-केस में सजाते रहें. इसके लिए पुराने जमाने के परमप्रिय हैंडसेट को अपनी काम वाली बाई को समर्पित करके 'स्मार्ट फोन' के नए युग  में आपको प्रवेश करना होगा। हालांकि शास्त्रीय अर्थों में एक युग बारह वर्षों का माना गया है किंतु स्मार्ट और तकनीकी समय में अब साल-दो साल में युगांतर हो जाता है। नई जनरेशन का बस इतना ही स्मार्ट युग होता है। वह ‘जी-वन’ से होता हुआ फोर जी,फाइव जी सिक्स होने में जी जान लगा देता है.... और जल्दी जल्दी दौड़ता चला जाता है। मनुष्य की औसत आयु भले ही बढ़ गयी हो मगर  स्मार्ट उत्पादक कभी नहीं चाहेंगें कि उनका कोई भी प्रोडक्ट अमरता का वरदान लेकर बाजार में अवतरित हो.

दरअसल, जो लोग स्मार्ट हो गए हैं, वे शब्दों और वाक्यों की बजाय ‘इमोजी’ का प्रयोग करते हैं। जैसे हमारे समाज में वर्ग विभाजन होता है उसी तर्ज पर सूचना संसार में भी एक वे होते हैं, जिनके मोबाइल फोन में इमोजी हैं और दूसरा वह वर्ग जो इमोजी के बगैर ही अपना काम चलाने को अभिशप्त है। वास्तविक दुनिया में जैसे राजनीतिज्ञों,उद्योगपतियों, फिल्मी सितारों के घराने सिक्का जमाये होते हैं, ठीक उसी तरह स्मार्ट संचार में 'इमोजी परिवारों' का बोलबाला होता है। 'इमोजी वंश' के सदस्य आभासी दुनिया के  जगमगाते सितारे होते  हैं। और ये सितारे यही चाहते हैं कि आम लोग ‘शब्दों’ की बजाय ‘चित्रों’,’संकेतों’ या ‘इमोजी’ आदि में उलझे रहें, इससे ‘विचार’ का उनका निरर्थक परिश्रम बचेगा. विचार से क्रान्ति हो सकती है, बगावत की आग फैलने और खून खराबे की आशंका बलवती होती है. शांति-सद्भाव के लिए ‘इमोजी’ शब्दों की तरह खतरनाक और हानिकारक नहीं होते.

स्मार्ट संचार(संसार)  में इमोजी का अपना नमस्कार होता है, इमोजी का सुख- दुःख होता है, इमोजी के फूल, पक्षी,आसमान,नदी ,पहाड़, उसकी प्रकृति होती है, उसका अपना वैभव होता है, सब कुछ होता है। 'इमोजी' की पूरी अपनी दुनिया होती है। वह सब दिखलाती है, महसूस करवाती है जो असल दुनिया में बहुत मुश्किलों से संभव हो पाता है। इमोजी ठीक उसी तरह काम करता है जैसे भूखे व्यक्ति के लिए  चाँद रोटी का काम करता है। रोटी का आभास होता है आकाश का चाँद , अनुभूतियों का आभास होता है मोबाइल मैसेज का 'इमोजी' 

गब्बर के तमंचे की तरह निर्देशक ने पिस्तौल में दुनिया की मैगजीन को ऐसा घुमा दिया है...कि अब किसी को पता नहीं है कहाँ असली है और कहाँ आभासी.. हमें कुछ नहीं पता... विकास के इस महत्वपूर्ण समय में इमोजी से दोस्ती जरूरी है या रू-ब-रू अनुभूतियों, दिली संवेदनाओं का सम्प्रेषण... किसी को कुछ नहीं मालूम...!   स्मार्टनेस की रेस में कहीं हम पीछे न छूट जाएं, इस चिंता में सब दौड़े जा रहे हैं. इस दौड़ में भी 'इमोजी' हमारा बहुमूल्य पसीना बचा लेता है। बस एक ‘पिक’ तो ‘टच’ करनी होती है धावक इमोजी की, अपने स्मार्टफोन में।

ब्रजेश कानूनगो 
503,गोयल रीजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर -18


Sunday, October 16, 2016

डाकिया दाल लाया

डाकिया दाल लाया...
ब्रजेश कानूनगो

जब कोई अपना काम ठीक से नहीं कर पाए तो उसका काम दूसरों को सौंप दिया जाना चाहिए जो उसे कुशलता पूर्वक कर सके. अड़ियल और शक्तिहीन हो गए खच्चर से काम लिए जाने और उसे घी-मेवा खिलाते रहने से कोई फ़ायदा नहीं. समय पर अपना काम किसी तरह निकाल लेना ही समझदारी है. केंद्र सरकार बुद्धिमान है जिसने बढ़ती महंगाई को रोकने और राज्यों  के असहयोग के चलते अब  डाकघरों के मार्फ़त लोगों को सस्ती दालें मुहय्या करवाने की प्रशंसनीय पहल की है.

यह पहली बार नहीं हुआ है. बरसों से यह नुस्खा आजमाया जाता रहा है. अब देखिये कुछ राज्यों में सरकारी रोडवेज नागरिकों को अपनी सेवाएं ठीक से न दे पाया तो अन्ततः यह काम सेठों, साहूकारों और बिल्डरों को सौंपना पड़ा। और देखिये क्या चका-चक बसें दौड़ रहीं हैं.

अस्पतालों, कॉलेजों में कुप्रबंधन का वायरस आया तो स्वस्थ नेताओं और उनके समाज सेवी परिजनों को जिम्मेदारी का हस्तांतरण करना जरूरी माना गया। न सिर्फ इससे शिक्षा का स्तर ऊपर उठा बल्कि छात्रों के लिए सीटों की अनुपलब्धता की समस्या ही समाप्त हो गई.

बहुपरीक्षित कहावत है कि जो खच्चर बिना ना नाकुर किये बोझा ढोता है उसी पर अधिक  सामान लाद दिया जाता है। यही परंपरा रही है। सरकारी विभाग जब योजनाओं के कार्यान्वयन में गच्चा देने लगे तो बैंकों का राष्ट्रीकरण करके उनके ऊपर योजनाओं की पोटली धर दी गयी। 
बैंक जब ढीले पड़ने लगे तो फिर से उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट्स को नए बैंक के लिए लायसेंस बांटने की पहल की जाने लगी।

हमारे यहाँ कभी गुरुजन ही कर्मठ माने जाते थे,  उन सम्मानितों पर समाज और सरकार को पूरा भरोसा हुआ करता था। संकट की घड़ी में इन्होने देश की काफी मदद की है. बच्चों को ज्ञान बांटने के अलावा मलेरिया की गोलियां और कंडोम बांटने तक का काम तल्लीनता से किया है.  जानवर से लेकर आदमी, कुओं से लेकर बोरिंग और ताड़-पत्रों से लेकर मत-पत्रों तक की गणना के कार्य को सफलता पूर्वक निष्पादित किया है.

यह बहुत खुशी की बात है कि मास्टरजी के बाद पोस्टमास्टर जी ने इस भरोसे को अर्जित कर लिया है. डाकघर अब बैंकों का काम करते हुए आपका खाता खोलते हैं, बुजुर्गों को पेंशन बांटते हैं, टेलीफोन और बिजली का बिल जमा करते हैं। क्या कुछ नहीं करते।   चिट्ठी-पत्री भले ही समय पर गन्तव्य तक पहुंचे ना पहुंचे, डाक सामग्री उपलब्ध हो न हो, लेकिन इस बात का पूरा विश्वास है कि गंगाजल की तरह दाल भी जरूर हमारी रसोई तक पहुँच जायेगी. डाकिया बाबू के इंतज़ार के वे मार्मिक दिन बस अब लौटने ही वाले हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018  

  

Wednesday, October 12, 2016

लेखक से चुराइटर तक

व्यंग्य
लेखक से चुराइटर तक
ब्रजेश कानूनगो

हमारी एक रचना चोरी होकर अन्य लेखक के नाम से कहीं और प्रकाशित हो गयी तो हमने अपना दर्द मित्र को बताया. इसपर उन्होंने अपनी संवेदनाएं जाहिर करते हुए कहा कि ‘इन दिनों बाजार में बहुत सारे ‘चुराइटर’ पैदा हो गए हैं. उन्होंने चोरी और राइटर को मिलाकर बहुत पारिभाषिक शब्द का निर्माण मजे-मजे में भले ही कर दिया था किन्तु उनकी बात मेरे मन में चिंतन का ज्वार-भाटा ले आई. आखिर उन्होंने ‘चौर्य रचनाकर्मी’ या ‘चोर लेखक’ नहीं कहते हुए ‘चुराइटर’ ही क्यों कहा. आइये तनिक विचार करते हैं.
  
‘राइटर’ का ऐसा है कि वह सचमुच ‘राइटर’ होता है। जिस बात को अंगरेजी में कहा गया हो, उसका महत्त्व वैसे ही बढ़ जाता है. इस लिए राइटर ही सही मायने में राइटर है .प्रेमचन्द, परसाई वगैरह सब लेखक थे। वे राइटर नहीं थे। राइटर होना उनके बस में भी नहीं था। हिंदी में लिखते हुए उस वक्त कोई राइटर नहीं हो सकता था। उर्दू में जरूर कुछ होते थे राइटर। हिंदी में तो सब लेखक ही होते थे या फिर जो थोड़ा रिदम में कहते थे वे कवि कहलाते थे। हिंदी में उन्हें ‘पोएट’ नहीं बोलते थे। कवि प्रदीप, हरिवंश राय बच्चन सब कवि थे। बच्चन अंग्रेजी के प्रोफेसर होने के बावजूद पोएट नहीं कवि ही कहलाते थे। 
अब ऐसा नहीं है. हिन्दी में कविता करने वाला अपने को पोएट कहलाना पसन्द करता है और  हिंदी में गद्य लिखने वाला 'राइटर' का संबोधन चाहता है।

वो क्या है कि अंग्रेजी में छपे  रैपर में  देसी माल का उठाव ठीक रहता है। बाजार का समय है। भविष्य के उपभोक्ता तो वैसे भी हिंदी समझते नहीं हैं। हिंदी में ‘उनचास’ बोल दो तो समझ ही नहीं पाते की ‘सिक्सटी नाईन’ है या ‘सेवेंटी नाइन’। पेरेंट्स बताने का प्रयास करते है कि बेटा ‘फिफ्टी नाईन’ बोलो। हिन्दी के वरिष्ठ लेखक दादाजी सिर पीट लेते हैं, वे राइटर नहीं हैं। अब उन्हें राइटर हो जाना चाहिए। समझते ही नहीं हैं यार! , लेखक ही बने रहना चाहते हैं।

अब जब हिंदी का अखबार संपादकीय का शीर्षक रोमन में 'एडिटोरियल' छापता है। नगर की हलचल 'सिटी एक्टिविटी' और सार संक्षेप 'ब्रीफ' का ताज पहनकर खुश है तो वरिष्ठ लेखक को राइटर कहलाने में क्या दिक्कत है? उनके जमाने में अदालतों में अर्जी नवीस हुआ करते थे, अब भी होते हैं उन्हें जरूर राइटर कह लीजिये। वे मुवक्किलों के आवेदन वगैरह लिखते हैं। चूंकि उनके लिखे पर कारवाई तो अभी भी अंग्रेजी में ही होती है, कोई दिक्कत नहीं है।
हिन्दी फिल्मों के पटकथाकार शुरू से रोमन में स्क्रिप्ट लिखते हैं, अभिनेता रोमन में पढ़ते हैं, मगर संवाद हिंदी में बोलते हैं। अभिनेताओं को राइटर के लिखे को हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी में बोलना चाहिए और फैन्स से हिंदी में बतियाना चाहिए। होता बिलकुल उलटा है. ये तो बहुत उलटबासी हुई। अभिनेताओं को संवाद राइटर लिखकर देता है हिन्दी में। मगर बातचीत उनकी मौलिक होती है। 'राइटर' ही नेताओं के जोशीले भाषण लिखकर चुनाव जितवाने का दमखम रखता है। इस अर्थ में ‘राइटर’ लेखक से ज्यादा प्रतिभाशाली होता है.

लेखक में मौलिकता के संस्कारों का खतरा हमेशा बना रह सकता है। राइटर में यह आग्रह उतना बलवती नहीं होता। यहां-वहां से माल जुटाकर भी वह कुछ न कुछ राइट कर ही लेता है। अपने लेखन के लिए उसे ‘राइट’ को अपनाने और ‘लेफ्ट’ को तिलांजलि देने में भी कोई संकोच नहीं रहता है। ‘लेफ्ट’ चलते हुए वह ‘राइट’ में भी अपनी कार को घुसेड़ ने के लिए स्वतन्त्र होता है। लेकिन लेखक मूल्यों, भाषा,विचार,व्याकरण आदि के बहुत से बंधनों से बंधा होता है बेचारा। समझदार वही व्यक्ति है जो लेखक नहीं 'राइटर' बनने का लक्ष्य सामने रखता है। इसमें उन्नति के बहुत से रास्ते खुल जाते हैं। 

‘लुग्दी लेखक’ भले ही साहित्य में बड़ी आलोचना के केंद्र में रहकर बहुत लोकप्रिय हुए हैं लेकिन वे भी इतने गुणी कभी नहीं रहे जितने कि आज के ये ‘चुराइटर’ होते हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018


Friday, October 7, 2016

आलू की फैक्ट्री का सपना

व्यंग्य
आलू की फैक्ट्री का सपना
ब्रजेश कानूनगो

उन्होंने यदि कह भी दिया कि वे किसानों के लिए आलू की फेक्ट्री लगायेंगे. तो इसमें हंगामा करने की क्या बात है. एक बात कही उन्होंने. और आप हैं कि उसका बतंगड़ बनाने पर तुले हैं. जब विश्व में कृत्रिम दिल बनाने के प्रयास हो रहे हों तब आलू किस खेत की मूली है. वह भी फेक्ट्री में बनाया जा सकता है. चाहे उनकी जुबान ही क्यों न फिसल गयी हो लेकिन उनके कथन को सकारात्मक रूप से लिया जाना चाहिए.

हाँ, यह बात अवश्य है कि पटाटो जैसी इतनी पापुलर चीज के बारे में इतने पापुलर व्यक्ति का अज्ञान संदेह अवश्य पैदा करता है. भारतीय भोजन में आलू की लोकप्रियता निर्विवाद है. एक तरह से इसे राष्ट्रीय कन्द के खिताब से नवाजा जा सकता है. कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों से लेकर लीडरकिंग लालू प्रसाद के गुण-गौरव तक में ‘आलू’ की उपस्थिति चर्चित रही है. हमारे भोजन में आलू ठीक उसी प्रकार उपस्थित रहता है, जैसे शरीर के साथ आत्मा, आतंकवाद के साथ खात्मा, नेता के साथ भाषण, यूनियन के साथ ज्ञापन, मास्टर के साथ ट्यूशन,वोटर के साथ कन्फ्यूजन, टेलर के साथ टेप, भूगोल के साथ मैप, पुलिस के साथ डंडा और इलाहाबाद के साथ पंडा, अर्थात भोजन है तो आलू है. आलू है तो समझो भोजन की तैयारी है.

आलू हमारी तरह धर्म निरपेक्ष है. हर सब्जी का धर्म उसका अपना धर्म है. हर सब्जी के रंग में डूबकर वह उसके साथ एकाकार हो जाता है.बैगन,पालक,गोभी,टमाटर,बटला,दही,खिचडी,पुलाव, आलू सभी में अपने को जोड़े रखता है.आपसी मेल-मिलाप हमारी परम्परा रही है,यही संस्कार हमारे आलू में भी देखे जा सकते हैं.

विनम्रता और और दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार अपने को ढाल लेना हमारे चरित्र की विशेषताएं होती हैं.उबलने के बाद आलू भी हमारी तरह नरम और लोचदार होकर अपने आपको समर्पित कर देता है. चाहो तो आटे में गूंथकर पराठा सेंक लो या मैदे में लपेटकर समोसा तल लो अथवा किसनी पर किस कर चिप्स का आनंद उठा लो.

आलू की नियति से हमारी नियति बहुत मिलती है. राजनीतिक नेता और पार्टियां जिस तरह हमारी भावनाओं को उबालकर उनके पराठें सेंकते हैं, समोसा तलते हैं या चिप्स बनाकर वोटों के रूप में उदरस्थ करते हैं, उसी तरह आलू हमारे पेट में जाता है.

परम मित्र साधुरामजी ने बताया कि जहां हम आलू के दीवाने हैं, वहीं रूसियों को मूली, गाजर और गोभी बहुत पसंद है. इसी तरह अमेरिकियों को शकरकन्द खाने का बहुत शौक होता है. पिछले रविवार जब हमने साधुरामजी के यहाँ भोजन ग्रहण किया तो तो उन्होंने एक नई सब्जी परोसी जिसका नाम था- ‘इंडो-रशिया फ्रेंडशिप वेजिटेबल’ (भारत-रूस मित्रता सब्जी). जब मैंने वह खाई तो मुझे आलू, मूली और गोभी का मिला-जुला जायका आया. मित्रता की खुशबू दिलों से होकर सब्जियों तक महसूस कर मुझे अपने आलुओं पर गर्व हुआ. अब तो शकरकंद में आलू मिलाकर बनाई गयी सब्जी भी हम बड़े चाव से खा रहे हैं, परोस रहे हैं. दुनिया में यह एक मिसाल भी है जब हमारा देश, दुनिया में हमारी आलू-प्रवत्ति का कायल हुआ है.

संभवतः उन्होंने हमारे सर्व प्रिय आलू के और अधिक विकास पर ध्यान दिया और आकांक्षा व्यक्त की है कि अब आलू की फेक्ट्री भी शुरू की जानी चाहिए. नया विचार रखा है, जेम्स वाट ने केतली से निकली भाप को देखकर जो विचार दिया था उससे आगे चलकर रेल गाड़ियां दौड़ने लगीं. ‘नवोन्मेष विचार’ ही भविष्य के किसी अन्वेषण का आधार बनता है. बुद्धिमान और हुनरमंद लोग घरों में डिटर्जेंट के पैकेटों और वनस्पति तेल के पीपों से भैस का दूध दुह रहे हैं, कोई आश्चर्य नहीं जब फैक्ट्रियों से निकले आलुओं से समोसे बनाए जाने लगें.


ब्रजेश कानूनगो
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