Tuesday, March 17, 2020

दिल्ली नहीं बिल्ली के दर्द की दास्तान

दिल्ली नहीं बिल्ली के दर्द की दास्तान
ब्रजेश कानूनगो

मुझे पता नहीं वे दोनों कहाँ से पलायन करके हमारे यहाँ शरण लेने आये थे. उनमें से एक थोड़ा गबरू था और उसके चहरे पर काली गहरी धारियां थी. देखकर ही लग जाता था कि वह ‘नर’ रहा होगा. जो दूसरा प्राणी था वह पहले वाले से कुछ उजला भूरा रंग लिए था, पहले के मुकाबले उसका शरीर नाजुक और पतला देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वह ‘मादा’ रही होगी. रही क्या वह मादा ही थी. किसी नव विवाहित दंपत्ति की तरह इन दोनों ने हमारे गैरेज में अपनी गृहस्थी बसा ली थी. बिल्लियों के इस जोड़े से हमें भी कुछ लगाव सा हो गया था इसलिए बीच बीच में गैरेज में जाकर उनकी खैर खबर भी ले आते थे. उनके आ जाने से चूहों का आतंक भी थोड़ा कम होने लगा था. कुछ दिनों में जैसे वे हमारे परिवार का हिस्सा ही हो गए थे.

बिल्ला दोपहर को दिखाई नहीं देता था लेकिन शाम को लौट आता था. बिल्ली घर पर लम्बे समय से गैरेज में पार्क हमारे प्रवासी बेटे की कार के नीचे सुस्ताती रहती, कभी बाहर निकल कर बरामदे में चहल कदमी भी कर लेती थी. उनके साथ समय बिताने से हमारा दोपहर को टीवी देखना भी कम हो गया था. बिल्ली को देखकर लगता था वह निश्चित ही गर्भवती रही होगी. एक दिन अचानक बिल्लियों का वह जोड़ा हमारे घर से गायब हो गया. हम दोनों पति-पत्नी को उनका यह अभाव बहुत दुखी कर गया. उनके आ जाने के बाद जो हमारा एकाकीपन थोड़ा कम हो गया था वहां फिर से उदासी पसरने लगी थी. बहरहाल, स्थितियों से समझौता करना इतना मुश्किल भी नहीं होता. थोड़े समय में हम उनके संग-साथ को भुला चुके थे.

दरअसल इस सत्यकथा में ट्विस्ट तो तब आया जब कोई एक माह पश्चात वही बिल्ली फिर से लौट आई. इस बार उसके साथ गहरी धारियों वाला बिल्ला नहीं था. अपने जबड़ों में वह एक प्यारा और मुलायम सा ‘बिल्ला शिशु’ थामें हुए थी. अपने बच्चे को बरामदे के फर्श पर छोड़कर वह हमारी ओर ऐसे देखने लगी जैसे खुशी से कह रही हो - ‘देखो, मैं किसे लेकर आई हूँ आपके पास.’

सुबह सुबह नियमित सैर को निकलने वाले पड़ोसी ने बताया था कि कॉलोनी के आवारा कुत्तों ने बिल्ली के साथी गबरू बिल्ले पर एक सप्ताह पहले हमला कर दिया था. किसी तरह बिल्ली अपने नवजात को उनके खूंखार पंजों से बचाती हुई हमारे या यों कहें अपने घर लौट आई थी. हमारे घर में फिर रौनक लौट आई थी. छोटे से बच्चे को हम बड़ा होते देख रहे थे. माँ की उपस्थिति में कभी गेरेज से निकलकर वह बरामदे के फर्श पर लौट लगाता था तो भोजन की तलाश में माँ के बाहर निकलने पर गमलों के पीछे दुबक कर दोपहर की नींद निकाल लेता. गैरेज में रखी कार के टायरों पर चढ़कर मस्ती करना उसका प्रिय खेल हो गया था.

बच्चा देखते ही देखते बड़ा होने लगा था. हम दोनों पति-पत्नी और वो दोनों माँ-बेटा बहुत हंसी खुशी अपना समय बिता रहे थे कि अचानक एक जलजला आया और बिल्ली की दुनिया फिर उजड़ गयी. कुत्तों के समूह ने फिर हमला किया था शायद. इस बार बिल्ली अपने बच्चे के बिछोह में बहुत ग़मगीन नजर आई. लम्बे समय के साथ ने हमें बिल्लियों की खुशी और रुदन को समझने योग्य बना दिया था.

दुखी बिल्ली की उदास पुकार से हमारे ह्रदय भीग रहे थे...रो रहा था हमारा मन..... बल्कि हमारा मन तो दोहरी पीड़ा और व्यथा से छलछला रहा था. यह संयोग ही नहीं दुर्भाग्य भी  था कि हमारी प्यारी बिल्ली के साथ हमारी दिलकश दिल्ली की छाती भी दुखों से छलनी हो रही थी.
मैं जानता हूँ इस दुखभरी दास्ताँ का उन लोगों पर कतई प्रभाव नहीं पड़ने वाला जिनकी आत्मा न बिल्ली के दर्द पर पसीजती है और न ही दिल्ली के क्रंदन से.


ब्रजेश कानूनगो

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