Thursday, July 18, 2019

की फरक पैंदा जी !


व्यंग्य
की फरक पैंदा जी !

किसी के कुछ भी हो जाने को कोई अब रोक नहीं सकता। न ही किसी को कोई फर्क पड़ता है कि वह क्यों कर ऐसा हो गया। वो जमाना लद गया जब बाप गुस्से में आग बबूला होते हुए माँ पर आँखें तरेरता हुआ चीख उठता था- 'सुनती हो भागवान! तुम्हारा लाडला 'आवारा' हो गया है।'

समय समय की बात है। अब बेटा हत्यारा हो जाए तो भी बाप के माथे पर शिकन तक नहीं आती। ‘न्यू इंडिया’ का नया बाप जानता है कि बेटा अब 'भारत' नहीं रहा। भारत के भीतर के ‘प्रेम’ और आदर्शों को वक्त नें 'प्रेम चोपड़ा’ ने बदल कर रख दिया है।

‘मदन’ का चाकू 'पुरी' हो या 'भटिंडा' कहीं भी खुले आम अपने जलवे दिखा सकता है। अब कोई ‘बलराज’ अपने बेटे को ‘परीक्षित’ का तमगा लगवाना नहीं चाहता। नए जमाने मे सब बेटे बिना मेहनत किये 'अजेय' बने रहना चाहते हैं। कोई बाप उन्हें बदलने का दुस्साहस चाहकर भी कर नहीं सकता। यह मजबूरी है माँ बाप की। दौलत और जायदाद के लालच में बाप की जान को बेटे की लायसेंसी बन्दूक से खतरा है।

खतरा तो बाप से बेटी को भी हो गया है। अब ‘ओमप्रकाश’ या ‘नाजिर हुसैन’ से भावुक बाप भी कहाँ देखने को मिलते हैं। ‘जीवन’ दादा और ‘के एन सिंह’ के क्लोन मुहल्ले मुहल्ले बेटा बेटियों पर अत्याचार में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।

बात केवल घर परिवार की ही नहीं है। बदलाव की यह प्रवत्ति इससे आगे बढ़कर नागरिक समाज की रगो में प्रवेश कर चुकी है। लोग क्या हो जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अच्छा भला आदमी न जाने कब रूप बदलकर भेड़ में बदल जाए और किसी गड़रिये के पीछे पीछे  भेड़ों का कोई झुंड लहलहाती खुशहाल फसल को बर्बाद कर दे। गड़रिये को चतुर लोमड़ ‘कन्हैयालाल’ या खूंखार लॉयन ‘अजीत’ हो जाने से कोई रोक नहीं सकता।

अब कोई कभी भी शेर हो सकता है, गधा, बन्दर, चूहा भी हो सकता है। भैंस भी हो सकता है। कोई भरोसा नहीं रहा कि कौन कब क्या हो जाए। भरोसे की भैंस पाड़ा जने या फिर कीचड़ में उतर कर मजे करे, किसी को क्या फर्क पड़ने वाला। नेता अभिनेता हो जाए, अभिनेता अर्थशास्त्री, योगाचार्य व्यवसायी,पड़ोसी थानेदार, टीवी एंकर जज में बदल जाए... यारां ! की फरक पैंदा जी!!

अब लेखक खुद ही अपने को ‘परसाई’ समझने लगे तो पाठकों को क्या फर्क पड़ने वाला है। वाट्सएप यनिवर्सिटी से कितने ही नए ‘गुलजार’,’नीरज’, ‘बच्चन’ और ‘अटल बिहारी’ निकलकर आ रहे हैं। अब कोई प्रदीप के गीत को बीन की तरह सुन रहा हो तो जरूरी नहीं कि वह रसिक श्रोता ही हो। वह रूपांतरित इच्छाधारी भैंस भी हो सकती है। क्या फर्क पड़ता है इससे किसी को।


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