Tuesday, March 17, 2020

रंगपंचमी के रंग, दफ्तर के संग

हास्य-व्यंग्य संस्मरण
रंगपंचमी के रंग, दफ्तर के संग
ब्रजेश कानूनगो

हमारे दफ्तर के सबसे वरिष्ठ सदस्य जीवनबाबू वैसे तो लगभग सेवानिवृत्ति के करीब थे लेकिन इस उम्र में भी उनका उत्साह किसी नौजवान से कम नहीं था. कठिन से कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी सहजता बनी रहती थी बल्कि अपने कार्य कलापों से वे माहौल को बहुत हल्का फुल्का बना दिया करते थे. उनकी उपस्थिति मात्र से महफ़िल में रोनक आ जाती थी. खूब चुटकुले सुनाते और सबको मुक्त कंठ से ठहाके लगाने को विवश कर दिया करते थे.

खासकर रंगपंचमी के दिन उनका जो रूप देखने को मिलता था वह कभी भुलाया नहीं जा सकता. दरअसल हमारा दफ्तर राष्ट्रीयकृत बैंक की एक शाखा थी जहां धुलेंडी को तो सार्वजनिक अवकाश होता था किन्तु रंग पंचमी को दफ्तर लेनदेन के लिए खुला रहता था. पूरा शहर जब रंगों में डूबा रहता हम बैंककर्मी अपना लटका हुआ चेहरा लिए किसी भंगेड़ी,नशेड़ी, रंगपुते इक्का-दुक्का ग्राहक के इंतज़ार में  दोपहर तीन बजे तक बही-खाता खोलकर बैठे रहते. ऐसे में जीवन बाबू ही हमारा एकमात्र सहारा होते थे जो अपने दिलचस्प  किस्सों से हमारा मन बहलाया करते थे.

तीन बजते बजते जीवनबाबू चुपचाप भांग-प्रसादी ग्रहण करके पूरे मूड में आ जाते थे. ग्राहकीय समय ख़त्म होने पर धीरे-धीरे हम सब पर भी होली का रंग चढने लग जाता.

शाखा भवन से बाहर निकलने से पहले ही साथीगण एक दूसरे के कपड़ों पर चुपके चुपके हरी, नीली और लाल स्याही लगाने लग जाते. इस प्रयोजन से इंकपेड और रबर की मोहरों का भी खूब उपयोग होने लगता. जीवनबाबू रंगपंचमी को विशेषरूप से धवलवस्त्र धारण करके आते थे. उनके सफ़ेद झक्क कपड़ों पर रंग बिरंगी स्याही से बैंक की मोहरें ठप्पित कर दी जातीं. जीवनबाबू एक तरफ से ‘एकाउंट पेयी’ हो जाते तो दूसरी तरफ से ‘केश पेड’. पायजामें का पिछला हिस्सा किसी लिफ़ाफ़े की तरह ‘रिसिव्ड’ और कुरते का अग्र भाग ‘डीलिवर्ड’ हो जाता था. दिलचस्प तो यह होता कि इसके पश्चात जीवनबाबू मुस्कुराते हुए स्वयम एक मोहर अपने कपड़ों पर लाल स्याही से लगा लेते वह होती थी ‘आल अवर स्टेम्स आर केंसल्ड’ याने हमारी सभी मोहरें निरस्त की जाती हैं.

दफ्तर के बाहर निकलकर थोड़ा अबीर गुलाल से होली खेली जाती लेकिन बाद में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो ही जाती थी. बैंक भवन के बाहर पानी का एक बड़ा फव्वारा बना हुआ था जिसमें जीवनबाबू के निर्देशन में रंग घोल दिया जाता था. फिर एक दूसरे को उस ‘रंग कुंड’ में समर्पित करने का सिलसिला शुरू हो जाता. रंगपंचमी के दिन दफ्तर आते समय शहर की बस्तियों और चौराहों पर रखे कढावों में फैंके जाने से बचकर भले आ गए हों मगर दफ्तर के उस रंगकुंड से बचना बहुत मुश्किल हुआ करता था.

एक के बाद एक सबको रंगकुंड में स्वाहा किया जाने लगता तो कुछ लोग स्वयं ही फजीहत से बचने के लिए भीतर छलांग लगा देते. देखते ही देखते उस बड़े फव्वारे के होज में पानी से ज्यादा मुंडियां दिखने लगती, जैसे तालाब में रंगबिरंगे कमल खिले हों. जब काफी मटरगश्ती करने के बाद सब थक जाते तो धीरे धीरे बाहर निकल कर जमीन पर बैठकर सुस्ताने लगते.

जीवनबाबू सबसे आखिर में बाहर आते. एक बार तो काफी देर तक जब बाहर नहीं आये तो सबको चिंता हो गयी. उन्हें खींचकर बाहर निकाला गया तो वे फिर कूद गए. दोबारा निकाला तो फिर कूद गए. उनका चेहरा भी कुछ उतरा हुआ सा लग रहा था. सब चिंता में पड गए कहीं भांग ज्यादा तो नहीं चढ़ गयी उन्हें? लेकिन अगली बार जब वे कुंड से बाहर निकले तो चिपरिचित अंदाज में कहने लगे ‘क्यों इकन्नी कर रहे हो यार ! बत्तीसी गिर गयी थी पानी में, उसे ही ढूंढ रहा था.’ फिर तो जो ठहाके लगे थे उसे याद कर अभी भी चहरे पर मुस्कराहट तैर जाती है.

उधर भवन के केन्टीन में ठंडाई और पकोड़ी आदि बनती रहती थीं. नाश्ते के इंतज़ार में तुकबन्दियाँ ,चुटकुले , गीत गजल गायन होता. जीवनबाबू भांग के खुमार में दार्शनिक हो जाते. उनकी कुछ बातें अब तक याद हैं...आज आप भी मजा लीजिये...उन्होंने कहा था...’यार हम इंसानों से तो ये गधे कितने समझदार हैं जो सबका एक ही नाम रखते है,ये ‘गधे’ इनके पिता ‘गधे’ और प्रपिता भी ‘गधे’..... और ‘ये भी बड़ी चिंता है यार कि जब इस संसार से आख़िरी व्यक्ति मरेगा तो उसे कंधा कौन देगा..?’
तो जनाब! ऐसी होती थी हमारे दफ्तर की रंगपंचमी.

ब्रजेश कानूनगो
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