Monday, December 12, 2016

कहावतों का लोकतांत्रिक दर्शन

व्यंग्य
कहावतों का लोकतांत्रिक दर्शन
ब्रजेश कानूनगो   

दादीमाँ मालवी में कभी कभी एक मुहावरा अक्सर बोला करती थी- 'बोलने वाला को मुंडों थोड़ी बंद करी सकां।'  आशय यही रहता था कि हमें तो सदैव अपने मन की करते रहना चाहिए। जरूरी नहीं कि हम वही करें जो सामने वाले के मन की बात हो। इसलिए किसी के कुछ कहने बोलने की चिंता किये वे जो करना चाहती थीं, घर परिवार में, जाति-बिरादरी में, गाँव-मुहल्ले में और यहां तक कि शादी-ब्याह और जलसों तक में जो दिल करता बेझिझक कर डालती थीं।

पीएम की ‘मन की बात’ से बरसों पहले दादी रेडियो पर भी मन की बात किया करती थी। वह समय ही ऐसा था जब आकाशवाणी पर हर कोई अपनी बात करता रहता था। खेती-गृहस्थी और महिला सभा में वे बतियाती भी थीं और मालवी के लोक गीत भी सुनाया करती थीं। आज की तरह केवल स्टूडियों में ही गूंजकर नहीं रह जाती थी आवाज,  बल्कि पीएम की 'मन की बात' की तरह पूरा इलाका उसे सुनता था जहां तक तरंगें पहुँचती थीं। 

दादी यह भी कहती थीं कि ‘जो बोलता है उसका कचरा भी बिक जाता है, जो नहीं बोलता उसका सोना भी नहीं बिकता. वह अपनी गद्दी पर बैठा बस मक्खियाँ ही गिनते रह जाता है.’ दादी की मक्खियाँ गिनने में कोई ख़ास रूचि नहीं थी और वे खूब बोलती थीं. उनके बोलने पर  कोई कुछ विपरीत प्रतिक्रिया देता तो वे दूसरी कहावत 'हाथी जाए बाजार, कुत्ता भूँके हजार'  को एकलव्य के बाण की तरह चलाकर कहने वाले का मुंह बंद कर देती थीं। दूसरों को मुंह बंद न किये जाने की विवशता की कहावत सुनाने वाली दादी स्वयं दूसरों की बोलती बंद करने में माहिर थीं।

कभी-कभी दादीमाँ  की ‘कथनी और करनी में अंतर’ आ जाता था. यह कोई अटपटी बात भी नहीं है। आइये, इसे ज़रा समकालीन सन्दर्भों में समझते हैं. कहावत में 'कथनी' को यदि आप संसद में बोले जाने वाले मंत्री के वक्तव्य की तरह लें तो पब्लिक मीटिंग के उनके 'आह्वान' और ‘जुमलों’ को 'करनी' माना जा सकता है। 'कथन' में कार्य का संकल्प और करने की बाध्यता होती है,  वहीं करनी में  ‘उद्घोष’ और ‘आह्वान’ की शानदार प्रस्तुतिके जरिये लोगों का दिल जीतने की महज आकांक्षा निहित होती है। संसद में यथार्थ की नदी बहती है जबकि बाहर आश्वासनों की नावें तैराई जा सकतीं हैं. सदन के बाहर ‘मार्केटिंग’ का जलवा है और सदन के भीतर ‘मेन्युफेक्चरिंग’ का संयंत्र लगा रहता है. यही बड़ा अंतर है. जब तक दोनों का तालमेल नहीं बनता तब तक अवरोध निश्चित है. परिणाम यह होता है कि पक्ष-विपक्ष एक दूसरे को बोलने में बाधक बनते हैं। बड़ी कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं. जटिल हो जाता है बहस का रास्ता। संसद ठप्प हो जाती है.

लेकिन यह भी सच है कि जो आसानी से मिल जाए, उसकी गुणवत्ता संदिग्ध हो सकती है. दादी माँ का मुहावरा यहाँ फिर हमारा संबल बढाता है. वह यह कि ‘स्थायी लाभ और लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमेशा संघर्षों का कठिन रास्ता चुनना चाहिए.’ हम इसका पालन करने को प्रतिबद्ध हैं, पहले राह को दुर्गम बनाते हैं फिर संघर्षो से लक्ष्य हांसिल करने के लिए कंटक पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रीजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इंदौर-452018


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