Wednesday, January 6, 2016

निर्माण की साधना

व्यंग्य
निर्माण की साधना
ब्रजेश कानूनगो

इन दिनों मैं मकान बनवा रहा हूँ. जब कोई  मकान बनवा रहा होता है तब वह सिर्फ मकान ही बनवा रहा होता है. मकान के बनते कोई और काम नहीं बनते. अगर अन्य कोई कार्य किया भी जाता है तो वह सिर्फ इसलिए कि मकान बनता रहे. नौकरी करने जाते हैं तो इसलिए कि माह के अंत में वेतन मिले और हम ठेकेदार या बिल्डर को पेमेंट कर सकें. मान लीजिये कि मकान बनवाने वाला मास्टर है और वह नियमित स्कूल जाता है, तो इस विश्वास के साथ नहीं जाता कि उसके पढ़ाने के बाद छात्रों में से कोई गांधी अथवा कलाम बनेगा बल्कि इसलिए कि स्कूल जाने से उसे तनख्वाह मिलेगी और उससे एक कमरे का प्लास्टर हो सकेगा.

मकान बनाने का कार्य शुरू तो हो जाता है लेकिन समाप्त नहीं होता. मैं जानता हूँ, जिन्होंने कुछ वर्ष पहले मकान बनाना शुरू किया था वे आज तक कुछ-न-कुछ तोड़ रहे हैं, फिर बना रहे हैं. फिर तोड़ रहे हैं, फिर-फिर बना रहे हैं. यह जानते हुए कि भवन निर्माण की ऊंखली की गहराई  अंध महासागर की तलहटी की तरह असीम है, मैनें निर्माण में सर दिया है तो ईंटों और सरियों से कैसा डर !  जिसने शुरू करवाया है, वही समाप्त भी करवाएगा. भली करेंगे राम.

इस दौरान एक दिन  मित्र साधुरामजी आये बोले-‘भाई आज तो प्रेमचंद का जन्म दिन है.’ मेरे मुंह से अनायास निकल गया-‘ तभी वह आज  काम पर नहीं आया.’ इस पर साधुरामजी  खिलखिला कर हँस पड़े. दरअसल महान कथाकार प्रेमचंद की बजाए मेरा सारा ध्यान अपने ठेकेदार प्रेमचंद भाटिया की ओर दृष्टिगोचर हो रहा था. ऐसा हो जाता है. जो मकान बनवा रहा होता है उसके साथ ऐसी स्थितियां अक्सर पैदा होती रहती हैं. जिसके पैरों में फटी न बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई.

टीवी देखते हुए मुझे जेठालाल और दया भाभी की नोंक झोक हंसा नहीं पाती, बल्कि मुझे उनके किचन की बनावट और सिंक की डिजाइन आकर्षित करती है. शिवकुमार शर्मा के इंटरव्यू के समय उनके संतूर पर कैमरा केन्द्रित होने पर मुझे कोफ़्त होने लगती है, मैं कैमरामेन से आशान्वित रहता हूँ कि वह उनके घर की बालकनी की जाली और दरवाजे की फ्रेम पर भी कैमरा घुमायेगा.

अपनी गजल के वजन की बजाए मुझे छत में लगने वाले सरियों के वजन का हिसाब विचलित करता रहता है. रविवारीय मैगजीनों के ले-आउट और पेज सेटिंग की बजाय मेरा ध्यान अपने निर्माणाधीन बाथरूम और टायलेट में सेनेटरीवेयर की सेटिंग की ओर भटक जाता है. मेरे द्वारा अधिक से अधिक दरवाजे और खिड़कियाँ रखने के आग्रह पर मेरा आर्किटेक्ट चिढ जाता है लेकिन मैं जानता हूँ इससे महंगी ईंटों और महंगी सीमेंट और प्लास्टर का थोड़ा खर्च बचाया जा सकता है. यही बचत रंग-रोगन और अन्य मदों में खर्च की जा सकती है.

यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि मकान निर्माण की इस साधना के बीच मैं यह लेख कैसे लिख पा रहा हूँ? इसका भी एक कारण है, जैसे भूखे व्यक्ति को चाँद में भी रोटी ही दिखाई देती है उसी तरह इस सृजन में भी मुझे थोड़ा सा अपना लाभ ही दिखाई दे रहा है. लेख छपेगा तो कुछ न कुछ पत्रम-पुष्पम भी प्राप्त होगा ही, और उस से कुछ नहीं तो कम से कम दरवाजों की कुछ चिटकनियाँ  तो अवश्य ही खरीदी जा सकेगी.

बहरहाल, मुझे उम्मीद है वर्षों से निर्माणाधीन ओवर ब्रिज की तरह कभी मेरा मकान भी बन ही जाएगा. गृह-प्रवेश की दावत हम जरूर एक साथ खायेंगे. ये वादा रहा.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018 


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