Monday, January 4, 2016

रात के आतंकवादी

व्यंग्य
रात के आतंकवादी   
ब्रजेश कानूनगो


सुरक्षा में ज़रा सी कमी रहे तो उनकी मुराद पूरी हो जाती है. इसके लिए शायद हम स्वयं  जिम्मेदार होते हैं. हमारे प्रबंधों में ही कमी रह जाती है. वरना क्या मजाल की सुरक्षा का घेरा लांघकर वे भीतर चले आयें. खूँखार आतंकवादियों का धैर्य भी बड़ा जबरदस्त होता है. वे हमारी ज़रा-सी चूक होने का घंटों इंतज़ार करते रहते हैं और जैसे ही उन्हें मौक़ा मिलता है,  हमला कर देते हैं. अमूमन  दिन में वे अपनी योजना बनाते हैं और रात को उसे अंजाम देने के लिए निकल पड़ते हैं.

मुश्किल तो तब होती है जब हम देर रात कोई जश्न मनाकर थके-हारे अपने बिस्तर में घुसते हैं और काफी देर तक नींद नहीं आ पाती. बड़ी मुश्किल से रात के तीसरे पहर झपकी लगती है कि उनकी जहर बुझी बरछी कान के नीचे यका-यक चुभती है. ऐसा लगता है कोई विमान हमारी मच्छरदानी में किसी आतंकवादी को उतारकर निकल भागा है. जाते हुए हेलिकॉप्टर के पंखों की गूँज और कान के नीचे लगी आग की जलन से विचलित होकर हम हडबडाते हुए जाग जाते हैं . हमलावर हमारी नींद को भंग करने में कामयाब हो कायरों की तरह भाग गया होता है.

हमारी सुकूनभरी नींद को ये आतंकवादी मच्छर नष्ट न कर सकें इसके लिए उपाय करने की पहल तो हम करते ही हैं. परन्तु इन आतंकवादियों ने भी तकनीकी रूप से अपने को  बहुत संपन्न कर लिया है. फूलों की खुशबू वाले क्रीम के मोहपाश में फंसाकर इन्हें ख़त्म करना अब कठिन है. अश्रु गैस चलाकर प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने की तरह उन्हें जहरीले धुएं के गुबारों से भगाया जाना भी आसान नहीं रहा. कुछ हद तक सुरक्षा जाली के बीच स्वयं को कैद करके उन्हें  आने से रोका जा सकता है.  मगर यहाँ हम ही से कहीं चूक हो जाती है. कभी एक हाथ तकिये के पास से बाहर निकल आता है तो कभी चादर से बाहर पैर निकल आते हैं.  मच्छरदानी का एक हिस्सा थोड़ा ऊपर उठते ही हमलावर घुस आते हैं और धावा बोल देते हैं. हमारी सारी तैयारी धरी रह जाती है.

दिन के उजाले में इनका हमला आसानी से समझ पाना कठिन होता है. दिन के हमलावर वातावरण से ऐसे एकाकार हो जाते हैं कि पता ही नहीं चलता. स्वच्छ पानी या गुलदान में तो हम किसी आतंकवादी के छुपे होने की कल्पना नहीं कर सकते. दिन में हुआ हमला इतना घातक होता है कि सीधे अस्पताल में ही शरण लेनी पड़ती है.

ऐसा नहीं है कि आतंकवाद से लड़ाई में हम कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. बुजुर्गों से ज़रा पूछकर देखिये. जब जूट और मूंज की रस्सियों से बुनी लकड़ी की खटिया का शानदार समय और निर्बाध रातें हुआ करती थीं. उन दिनों की सपनीली नींदों की बात ही कुछ और हुआ करती थीं जब पीपल की छाँव में मामाजी मौसम के किस्से सुनाया करते थे और दादा रात को चन्द्रमा पर चरखा चलाती बुढ़िया दिखाया करते थे, धीरे-धीरे खटिया पर लेटे-लेटे हमको नींद अपने आगोश में ले लिया करती थी. मगर इसी नींद में खलल पैदा करते थे अतीत के आतंकवादी खटमल. खटिया के रोम-रोम में छुपे ये आत्मघाती आतंकवादी कभी भी हमला कर देते थे. घर की दीवारों से लेकर चादरों-रजाइयों-तकियों तक पर इनकी हरकतों के खूनी निशान दहला जाते थे. लेकिन हमने आखिर उन पर भी विजय पा ही ली. अब हम पूरी तरह खटमल मुक्त हैं.

बहरहाल, ‘उम्मीद पर दुनिया कायम है’ . खूनी खटमलों से मुक्त हुए हैं तो मक्कार मच्छरों से मुक्ति का संघर्ष भी फलदायी होगा. आतंकवाद की कोई प्रजाति नहीं होती. आतंकवाद सिर्फ आतंकवाद होता है. वह जहरीले कीट-पतंगों का हो या भटके हुए इंसानों का. इसके खिलाफ हमारी लड़ाई निरंतर जारी रहना आवश्यक है. 

ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर-452018

मो.न. 09893944294  

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