Monday, April 25, 2016

ये जो अतिक्रमण है


ये जो अतिक्रमण है
ब्रजेश कानूनगो

असल में ये जो अतिक्रमण होते हैं ना, वही झगड़े की असली जड़ होते हैं. सरल शब्दों में कहें तो अतिक्रमण वह चीज है जो हो जाती है, तथा उनके हो जाने का अक्सर बहुत बाद में पता चलता है . यह तब भी होता था जब हमारे यहाँ इतनी स्मार्टनेस नहीं थी, ’विकास’ का डिस्को इतना प्रचलित भी नहीं हुआ था. डीजे युग के आने से पहले सडकों पर केवल ‘ढोल’ बजा करते थे और नजूल की जमीन पर चाय की गुमटी का होना या दूकान का साइन बोर्ड सड़क की सीमा तक लटकना या अपने घर के आगे क्यारी बनाकर अशोक के पेड़ लगा लेना भी अतिक्रमण की परिभाषा में आया करता था.  अब विकास के नए जमाने में अतिक्रमण की परिभाषा में भी स्मार्टनेस और व्यापकता आ गई है और बरसों पुराने आशियानों को भी ‘आदेशों’ के बुलडोजरों से ध्वस्त होने में देर नहीं लगती.

हम अच्छी  तरह जानते हैं कि बगैर आदेश के पत्ता भी नहीं खड़कता. जिस तरह लाखों शिव मंदिरों में भगवान भोलेनाथ के सामने नंदीगण केवल इसी प्रतीक्षा में बैठे होते हैं कि आदेश हों तो वे उठ खड़े हों,  उसी तरह तंत्र के कर्मचारी काम शुरू करने के आदेश के इंतज़ार में बैठे-बैठे अक्सर बोर होते रहते हैं. दरअसल आदेश, प्रशासन की रगों में रक्त-संचार के लिए आवश्यक उत्प्रेरक होता है. बगैर आदेश के अमला मात्र निष्क्रिय रोबोट होता है, आदेश रूपी बटन के दबाते ही वह गतिमान होता है. रिमूवल गैंग के मुस्तैद घोड़े दौड पड़ते हैं और अतिक्रमण के साम्राज्य को बहुत स्मार्ट तरीके से घंटों में नेस्तनाबूद करके रख देते हैं.

बेहद जोशीली और सख्त कार्यवाही के बावजूद बहुत सारे अतिक्रमण फिर भी बचे रह जाते हैं. कुछ साकार अतिक्रमण अदृश्य शक्तियों द्वारा बचा लिए जाते हैं और कुछ इतने निराकार और अदृश्य होते हैं जो सहज आँखों से दिखाई ही नहीं दे पाते. विस्थापितों की आँखों से निकले आंसू तो देखे जा सकते हैं मगर उनके भीतर आस्था और विश्वास की जो बगिया नष्ट हो जाती है  आसानी से नजर नहीं आ पाती.

अब इन अदृश्य अतिक्रमणों पर कार्यवाई करने का अवसर और बड़ी चुनौती हमारे सामने है. अब देखिये भारतीय संस्कृति पर कितनी चालाकी से पश्चिमी अपसंस्कृति ने अतिक्रमण किया है, देसी उत्पादों पर बहुराष्ट्रीय सौदागरों ने और छोटे बाजारों पर बड़े-बड़े शापिंग मालों ने अपने विशाल तम्बू तान दिए हैं. हमारी बोलियों और भाषाओं पर फिरंगियों की जुबान ने जो शनै-शनै अतिक्रमण कर लिया है, उसे कौनसा रिमूवल दस्ता हटा पायेगा. क्या भरे-पूरे जंगलों का कम होते जाना और उपजाऊ खेतों की भस्म पर कांक्रीट की पैदावार लेना अतिक्रमण की परिभाषा में नहीं लिया जाना चाहिए?

चिंतन करें हम कि वे कौनसे अतिक्रमण हैं जिसके कारण योग्य गरीब उम्मीदवार को मिलने वाली नौकरी किसी समर्थ(?) परिवार के ढपोरशंख को मिल जाती है. वे कौनसे सेंसेक्स आंकड़े हैं जिन्होंने लाखों युवाओं के रोजगार आंकड़ों पर अतिक्रमण कर लिया है? वे कौनसी ऋण नीतियाँ हैं जिनके अतिक्रमण से गरीब किसान आत्महत्या को विवश हो जाता है और करोड़पति व्यापारी देश को करोड़ों का चूना लगाकर हवा-हवाई हो जाता है?

बहरहाल, अतिक्रमण जारी हैं. कुछ जमीन पर किया जाता है, कुछ आशाओं और सपनों पर होता है. संस्कृति पर होता है, संस्कारों पर होता है. यहाँ तक कि नागरिक की निजता और संवैधानिक अधिकारों पर भी अतिक्रमण की कोशिशें चलती रहती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बस्तियों-शहरों के अतिक्रमण से मुक्ति के बाद अब दूसरी तरह के अतिक्रमणों पर भी जिम्मेदार लोगों का ध्यान जा सकेगा.

इतना जरूर है इसके लिए किसी सूक्ष्मदर्शी का इस्तेमाल करना आवश्यक होगा, वह ‘संवेदन शीलता’ का विवेक पूर्ण लेंस भी हो सकता या राजनीतिक धुंध खाया कोई साधारण कांच का टुकड़ा भी. विचार करें!


ब्रजेश कानूनगो

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