Saturday, January 22, 2022

ये पुरस्कार अगर मिल भी जाए तो क्या है

ये पुरस्कार अगर मिल भी जाए तो क्या है

'ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है..' विविध भारती की तरंगों पर सवार मोहम्मद रफी कानों में उतरकर दिल के दरिया में दर्द की डोंगी आज भी जब तब चलाते रहते हैं। हालांकि आज का गायक,नायक  नाचते गाते हुए भी 'दर्द ए डिस्को' करने लगता है लेकिन मधुबनजी का दर्द कुछ शास्त्रीय किस्म का ही है।

मधुबनजी वैसे तो साहित्य संसार में हर घड़ी हर पल जिंदगी की धूप छांव और बदलते रूप  निहारते  फिरते हैं। लेकिन असल में उनकी अपनी एक वांछित दुनिया भी थी, जिसे वे पाना चाहते थे। 'मन तरसत हरि दर्शन को आज...' की तरह अंतर्मन में आशा की ज्योति जलाए बहुत हाथ पैर मारते रहे। दिल ही दिल में खूब चाहा कि किसी पुरस्कार या सम्मान के रूप में उन्हें भी कहीं से अपनी एक दुनिया हाथ लग जाए।

लेकिन अब तो एक छोटा सा आशियाना प्राप्त करने में ही दर दर की ठोकरें खाना पड़ती हैं। दुनिया तो बहुत बड़ी ख्वाहिश है।

इधर रफी साहब हैं कि गा गए हैं 'ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'

अरे साहब! बहुत कुछ है। एक बार मिले तो सही! क्या नहीं है 'पैसा है,इज्जत है,शोहरत है। किताब के बेक कवर पर अपने परिचय में 'सेठ धनपत स्मृति साहित्य सम्मान' जैसा विशेषण है। चर्चे हैं, मुख्य आतिथ्य है। साहित्य अकादमियों की अध्यक्षता है, सृजन पीठों का निदेशक पद है, राज्यसभा सदस्यता के रास्ते हैं। 'दीवार' फ़िल्म  के शशिकपूर की तरह साहित्य के तमाम 'बिगों' को आप जवाब दे सकते हैं- 'मेरे पास पुरस्कार है!' ये वक्तव्य मेरा नहीं मधुबनजी का है रफी साहब को सुनते हुए।

बात सम्मान या दुनिया के मिल जाने की ही नहीं है। बाद में नायक के निराशा के समुद्र में उतर जाने की भी है। सबकी अपनी अपनी दुनिया होती है। अब दुग्गल साहब को  खाने में 'चिकन टिक्का' और पांडेय जी को 'मटर मलाई' मिल जाये तो उनके चेहरों पर सारा जहाँ मिल जाने की खुशी उतर आती है। लेकिन जनाब  निराश होने के लिए कई कारण भी मिल ही जाते हैं । दुग्गल साहब के 'चिकन टिक्का' में काली मिर्च की कमी और पांडेय जी की 'मटर मलाई' में शक्कर की ज्यादती उनकी दुनिया फिर से उजाड़ देती है।

रहा सवाल मधुबनजी का तो उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी गांठ के पैसों से किताबें छपवाईं। नामी गिरामी समीक्षकों को गोष्ठियों में आमंत्रित किया। मित्रों से समीक्षाएं लिखवाईं। तब जाकर उन्हें नगर की 'भाषा सेवा समिति' के शिखर सम्मान के रूप में छोटी ही सही एक दुनिया मिल तो गई, लेकिन व्यवस्था के प्रति आक्रोश इतना अधिक है कि सम्मान लौटाना चाहते हैं। नही लौटाते हैं तो ट्रोल होने का खतरा मुंह बाएँ खड़ा है। वास्तविक और आभासी दुनिया के अधबीच में उनकी दुनिया अटक गई है।

यही खास वजह है जिसके कारण मधुबनजी इन दिनों यही गीत गुनगुनाते फिर रहे हैं... 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...!'

ब्रजेश कानूनगो

1 comment:

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