Tuesday, October 10, 2017

पीटना, बजाना, ठोकना, कूटना वगैरह..!


पीटना, बजाना, ठोकना, कूटना वगैरह..!    
ब्रजेश कानूनगो 

पीटने और बजाने में काफी अंतर होता है। दीपावली या किसी शुभ अवसर पर कुछ लोग आपके घर-द्वार आकर ताली पीटते हैं, वह बजाना नहीं है। जबकि जन सभा में ताली बजती है तो बजाने वाला और बजवाने वाला दोनों सुख पाते हैं। इस संगीत को सम्मान देकर 'करतल ध्वनि' भी कहा गया है।

ऐसे ही स्कूल के दिनों में बच्चे माटसाब के आने के पहले टेबलें पीटा करते थे। गुरुजी जिस छात्र को ऐसा करते पकड़ लेते तो वे उसको ही टेबल की तरह पीट दिया करते थे। इस ‘पीटने’ को लोकाचार में ‘कूटना’ और लोकभाषा में ‘बजाना’ कहा जाता है. हालांकि पीटने की एक श्रेणी छाती से और कूटने की माथे से भी जुडी है. गरीब आदमी अक्सर छाती पीटता पाया जाता है जबकी संपन्न व्यक्ति माथा कूटते नजर आ जाता है. ठोकने- पीटने का राजनैतिक सिद्धांत भी दिलचस्प है. कुछ लोग छप्पन इंच फुगाकर स्वयं ठोकते रहते हैं तो इसके चलते कई लोग अपनी छाती पीटने लगते हैं.


हमारी कक्षा का हुनरमंद मांगीलाल भी टेबल पीटता था लेकिन उसके टेबल ठोकने में एक लय होती थी,एक रिदम होती थी। वह शायद टेबल बजाया करता था। टेबल बजाते बजाते वह शादी ब्याह में ढोल बजाने लगा फिर कस्बे के आर्केस्ट्रा में ड्रमर बनकर खूब लोकप्रिय हो गया।  

कहने का तात्पर्य है कि हरेक व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कब क्या पीटना है और कब क्या बजाना है। मसलन यदि आप किसी बात का खूब ढोल पीट रहे हैं तो यह अपेक्षा भी सहज बन जाती है कि कभी आप सुर में भी आएंगे। केवल ढोल पीटते रहने से काम नहीं चलने वाला। हवाओं में संगीत गूंजना चाहिए। शोर नहीं। यह बुनियादी सूत्र है। 

नगाड़ा पीटा जाता है,क्योंकि वहां उद्देश्य ही शोर पैदा करना होता है। सोये हुए को जगाने और निराशा से भरे को उत्साहित करने के लिए नगाड़ा पीटा जाता है। युद्ध भूमि में सैनिकों में जोश के लिए और सुर संसार में मग्न सम्राट के ध्यानाकर्षण के लिए नगाड़ा पीटा जाता रहा है। ढोल, मृदंग,तबले जैसे वाद्यों की प्रकृति कुछ अलग होती है। ये बजते हैं, बजाए जाते हैं, पीटे नहीं जाते।

बेशक ढोल पीटते हुए शुरुआत करिये कोई हर्ज नही है, लेकिन कब तक इस तरह शोर किया जाना चाहिए। रस पैदा होना चाहिए। ढोल से संगीत पैदा करना जरूरी है। संगीत में ताल और संगत का बड़ा महत्व होता है। बेताला और बेसुरा कर्णप्रिय नहीं होता। श्रोता कानों में रुई लगा लेते हैं। बैचैन होकर सभागार से बाहर निकल जाते हैं। बेचारे संयोजकों का तो फिर बैंड बज जाना निश्चित है।

यह भी गौर करने वाली बात है कि यदि लम्बे समय तक ढोल पीटा जाता रहे तो उसके फट जाने का अंदेशा बन जाता है। इसलिए बिन मांगे भी एक मशविरा त्योहारों के अवसर पर फ्री लीजिये कि जब भी आपके हाथ में किसी भी क्षेत्र का  कोई ढोल आ जाये, कृपया उसे पीटने की बजाए मधुरता पैदा करने की कोशिश करें। संगीत मनुष्य की सचमुच कमजोरी होती है। आपके ढोल पर थिरकने लगेंगे सारे लोग। 

ब्रजेश कानूनगो 
503 गोयल रिजेंसी चमेली पार्क, कनाड़िया रोड, इंदौर 452018

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