Thursday, March 17, 2016

मार्च माह का ‘मार्च’

व्यंग्य
मार्च माह का ‘मार्च’
ब्रजेश कानूनगो

क्यों आता है यह मार्च का महीना? क्या फरवरी के बाद सीधे अप्रैल नहीं आ सकता? और फिर मार्च के बाद पहली अप्रैल को मूर्ख-दिवस के रूप में मनाने की क्या आवश्यकता है? अपने वेतन से आयकर कटवाने के बाद वैसे ही क्या बचा रह जाता है सिवाय मूर्ख बने रहने के. अगर एक सामान्य आयकरदाता किसी टैक्स सेविंग बचत या नियोजन की व्यवस्था न करे तो उसका लगभग ढाई माह का वेतन आयकर की बलि चढ़ जाता है. राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को सृदृढ बनाने में नौकरी पेशा व्यक्ति का पेटकाट योगदान, विकास के यज्ञ में एक विनम्र आहुति. वर्ष में लगभग साढे नौ माह के वेतन का जायज अधिकारी होता है वेतनभोगी. प्रकृति ने ही मनुष्य को धारण करने की नौ, साढ़े नौ माह की प्राकृतिक व्यवस्था की है, तब उसे  इतना वेतन मिलना प्रकृति सम्मत है.

सेठ-साहूकारों और कॉर्पोरेटों को आयकर से बचने के अनेक वैधानिक रास्ते बजट की गलियों में ही छुपे रहते हैं. गरीब-फटेहाल के पास तो करयोग्य धनराशि पहुँचती ही नहीं, जो राशि पहुँचती है उसमें से भी बहुत सारा हिस्सा तंत्र के संचालन में क्षयित हो जाता है. अब रहा वेतनभोगी माध्यम वर्ग, जिससे राष्ट्र के समूचे आयकर का महज दो प्रतिशत प्राप्त होता है, जो उसकी कमर तोड़ने के लिए पर्याप्त होता है.

हर साल मार्च माह के प्रारम्भ होते ही वेतनभोगी कर्मचारी का कठिन समय प्रारम्भ हो जाता है. जीवन बीमा स्कीमों का वह नाश्ता करने लगता है, प्यास लगती है तो पीपीएफ विड्राल से बुझाता है, भूख सताती है तो म्यूचुअल फंडों , बाडों-यूनिटों को निगलने लगता है. नींद में भी उसे कर सलाहकार, स्कीम एजेंट और  मनीब्रोकरों के सपने दिखाई देने लगते हैं. घबराकर वह जाग जाता है, नींद उचट जाती है. मार्च माह और  कैसी नींद? अपने आयकर को लेकर यदि आप परेशान नहीं हैं तो आपके सहयोगी आपको निश्चिन्त नहीं रहने देंगे, वे अपना दुःख बांटने चले आयेंगे आपके पास. आपको चिंता करनी ही होगी. चिंता की चिता से आप दूर नहीं रह सकते.

यह भारतीय अर्थव्यवस्था की विडम्बना है कि यहाँ कुछ लोगों को जीवन व्यापन के लिए अपने पदक तक बेचना पड़ जाते हैं. कर्ज चुकाने में असमर्थ किसान जहर पीने को विवश हो जाता है. अपने समय में लाखों-करोड़ों कमाने वाले अभिनेता और कलाकार गुमनाम चाल में दम तोड़ देते हैं. अच्छा खाने, अच्छा पहनने और अच्छे घर की चाह में आम भारतीय को किसी अनुदान या इंसेंटिव की राह तकनी पड़ती है. बेहिसाब कमाई करने वाले कई धन्ना सेठ, राजनेता, फ़िल्मी सितारे आयकर हजम कर जाने के कारनामे खुले आम करते दिखाई दे जाते हैं किन्तु एक सामान्य नौकरीपेशा व्यक्ति मार्च माह में न्यूनतम वेतन मिलने या निवेश की कल्पना करके ही सिहर जाता है !

बजट के बाद हमेशा से दो पक्ष प्रतिक्रिया व्यक्त करते दिखाई देते रहे हैं. एक जो उसे शानदार बताता है, दूसरा उसे बिलकुल बकवास. लेकिन एक तीसरा पक्ष भी होता है, जिसके लिए वह न शानदार होता है न घटिया, उसके लिए वह मारक होता है. उसके सामने वह मार्च के रूप में   आ खडा होता है.  
बहरहाल, मार्च माह की सड़क पर ’मार्च’ तो करना ही होगा, भले ही पैर थोड़े लड़खड़ा जाएँ.

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